रिश्तों से अब डर लगता है।
टूटे पुल-सा घर लगता है।
चहरों पे शातिर मुस्कानें
हाथों में ख़ंजर लगता है।
संग हवा के उड़ने वाला
मेरा टूटा पर लगता है।
हथियारों की इस नगरी में
जिस्म लहू से तर लगता है।
जीवन के झोंकों पर तेरा
साथ हमें पल भर लगता है।
सारा जग सिमटा घर में तो
घर जग के बाहर लगता है।
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3 comments:
wah kya anubhuti hai ---
bahut sunder
Kya socte he 1
इस बड़े जहाँ में किस शहर जाएँ कि कोई अपना मिल जाए,
नींद तो रोज़ आती है, वो कौन सी रात सोयें कि कोई सपना दिख जाए।
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