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Friday, December 19, 2014

‘लालबहादुर शास्त्री’


किसी गाँव में रहने वाला एक छोटा लड़का अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गया। शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुंचे तो लड़के ने नाव के किराये के लिए जेब में हाथ डाला। जेब में एक पाई भी नहीं थी। लड़का वहीं ठहर गया। उसने अपने दोस्तों से कहा कि वह और थोड़ी देर मेला देखेगा। वह नहीं चाहता था कि उसे अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े। उसका स्वाभिमान उसे इसकी अनुमति नहीं दे रहा था।

उसके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए। जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लड़के ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गया। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पास खड़े मल्लाहों ने भी लड़के को रोकने की कोशिश की।

उस लड़के ने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए वह नदी में तैरने लगा। पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह लड़का रुका नहीं, तैरता गया। कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गया।

उस लड़के का नाम था 'लालबहादुर शास्त्री'

 

मुझे इतना विश्वास है।

सीमाएं अपनी जानता हूँ मैं

जबतक सांस है दिल में आस है।

काम मेरा रुका कभी भी नहीं

उस पर मुझे इतना विश्वास है।

 

आतंकी नस्लों को।

 

जिनने बोया हे धरती में बम बारूदी असलों को।
निर्ममता से जिन्होंने कुचला फूलों की फसलों को।
मासूमों के खून से जिनने खून की होली खेली हे
करदो नेस्तनाबूत धरा से इन आतंकी नस्लों को।

कहने को बचा ही क्या है


विदा तुमसे अंतिम संवाद हेतु
उपयुक्त शब्द नहीं है
संवेदनाओं की स्याही भी लिख नहीं पा रही है 
अव्य्क्तेय इस वेदना को

कोई ताबूत में घर लौटने के लिए
नहीं जाता स्कूल सज धजकर यूनिफ़ॉर्म में
और स्कूल में भी गोलियां नहीं 
ज्ञान के बादल बरसते आये हैं

कक्षाओं में हत्यारे नहीं 
सपनों के मन मयूर नाचा करते हैं

बच्चों और शिक्षकों को नहीं
यहाँ अज्ञान को जलाया जाता रहा है

पर सब कुछ उल्टा हो गया
कल्पनातीत अमानवीय क्रूर और राक्षसी कृत्य 
भर कहना काफी नहीं 
कहने को बचा ही क्या है
-
सुरेन्द्र रघुवंशी
Copyright@
सुरेन्द्र रघुवंशी

Thursday, August 21, 2014

प्रिय माँ ,

प्रिय माँ ,
मुझे बताते हुए बड़ा संकोच हो रहा हैं की मैंने घर छोड़ दिया हैं और मैं अपने प्रेमी के साथ रहने चली गयी हूँ मुझे उसके साथ बड़ा अच्छा लगता हैं. उसके वो स्टाइलिश टैटू ,कलरफुल हेयर स्टाइल … मोटरसाइकिल की रफ़्तार, वे हैरतअंगेज करतब. वाह ! उस पर कुर्बान जाऊ. मेरे लिए ख़ुशी की एक और बात हैं. माँ , तुम नानी बनने वाली हो. मैं उसके घर चली गयी, वह एक झुग्गी बस्ती में रहता हैं. माँ उसके ढेर सारे दोस्त हैं. रोज शाम को वो सब इकठ्ठा होते हैं और फिर खूब मौज मस्ती होती हैं. माँ एक और अच्छी बात हैं अब मैं प्रार्थना भी करने लगी हूँ. मैं रोज प्रार्थना करती हूँ की AIDS का इलाज जल्दी से जल्दी हो सके ताकि मेरा प्रेमी लम्बी उम्र पाएं. माँ मेरी चिंता मत करना. अब मैं 16 साल की हो गयी हूँ और अपना ध्यान खुद रख सकती हूँ. माँ तुम अपने नाती -नातिन से मिलने आया करोगी ना ?
 -तुम्हारी बेटी

फिर कुछ नीचे लिखा था...

नोट : माँ ,परेशान होने की जरूरत नहीं हैं. यह सब झूठ हैं . मैं तो पडोसी के यहाँ बैठी हूँ. मैं सिर्फ यही दर्शाना चाहती थी की मेज़ की दराज में पड़ी मेरी मार्कशीट  ही सबसे बुरी नहीं हैं, इस दुनिया में और भी बुरी बातें हो सकती है।

बच्चों से उम्मीद तो रखे पर दबाव ना डालें.कही ऐसा ना हो की दबाव और डांट डपट के चलते वे कोई गलत कदम उठा ले और आपको भारी खामियाजा भुगतना पड़े .

Wednesday, March 26, 2014

मेरी ताकत

मेरी चुप्पी भी आवाज बनती है
आज तुम जितना चाहो बोल लो
हमें हल्का समझने भूल ना कर
चाहो तो अपनी तराजू से तौल लो

राजनीति में महारत तुमको है
कुछ मानवता के पन्ने खोल लो
जात-पात और धर्म पर कब तक
कुछ नई परिभाषाएँ भी जोड़ लो

बहुत बोलते हो एक दूसरे के खिलाफ
भाई कुछ हमारे बारे में भी बोल लो
मेरे पास तो 'वोट' ही एक ताकत है
सत्ता के लिए तो अपना मुखौटा खोल लो..

 

केजरीवाल के वाराणसी दौरे पर

वोट बैंक से इस टिप्पणी का कोई सरोकार नहीं अतः अतिवादी टिप्पणियों का स्वागत नहीं है।**

विचारधाराओं को रक्त से सींचा जाता है। चाहे वो वामपंथ हो दक्षिण पंथ हो या फिर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का झूठा श्रेय लेने वाली कोई भी पार्टी। सबने खून से सींचा है अपनी जड़ों को। ये बात केजरीवाल नहीं जानते जो भारतीय राजनीति की सतह पर बुलबुले की तरह उभरे हैं। डंडा खाने पर बुरका पहन के भागने वाले और कैंडल मार्च की हास्यास्पद और नम्र राजनीति करने वाले लोगों को भी यह समझना चाहिए।

फिर भी आल द बेस्ट।

 

Monday, January 27, 2014

पर मुझे इन्तजार था, उसका |

रोजाना कि तरह, स्टेशन में खड़ा
घडी निहारता, भीड़ को देखता,
कुछ अनमना, कुछ बेचैन होता,
कभी अपनी हाथ कि घडी देखता,
फिर आने वालो से, समय पूछता
कभी पुराना अखबार, देखता, पढता
कभी बिस्कुट खाकर, समय काटता
हालत, एक सी, हर मुसाफिर की
सभी को इन्तजार था, ट्रैन का,
पर मुझे इन्तजार था, उसका |
                                              ढेर सारे सामान, का भार लिए
दौड़ते यात्री को, कुली कोसता
दो पत्र, पढ़कर, मैं कही खो जाता
एक प्यार और दूसरा शिकवा गिला
इसी सोच में, कौन बुरा कौन भला,
पुरानी यादो का, मन में भार लिए
हथेली की लकीरों, की धार लिए
सभी को इन्तजार था, ट्रैन का,
पर मुझे इन्तजार था, उसका |
जब भी बजती, आखिरी शीटी
धड़कने बढ़ जाती, मेरी जोर से
अहसास से कि ट्रैन आएगी
फिर कही, सफ़र अकेला न हो
मझदार में बैंठ, ढूढूं साहिल
पहुचने को अपनी मंजिल
सभी को इन्तजार था, ट्रैन का,
पर मुझे इन्तजार था, उसका |


Thursday, January 2, 2014

नई कहानी क्यूँ नहीं लिखते ?

पीछे दौड़ने को है, हजार खवाहिशे, हजार सपने
कुछ सपने पूरे नहीं होते, कुछ हो नहीं पाते
सब कुछ पाकर भी क्या करोगे ?
तुम अपनी जिंदगी में अपनी तरह क्यूँ नही रहते ?

महँगे मोबाइल,कार, फ्लैट,प्रॉपर्टी इक़ठठा करना
इन्क्रीमेंट, बोनस का हिसाब लगाते रहना
शेयरों के दाम की जाँच कब तक करोगे ?
जो इन सब से दूर ले जाए, वो नौकरी क्यूँ नहीं करते ?

ऐसे तो लाखों किताबें और हजारों फिल्में हैं दुनिया में,
लेकिन तुम्हारी अपनी जिंदगी क्या किसी फिल्म से कम है,
कभी थोड़ा वक़्त निकाल कर,
तुम अपनी कोई सच्ची कहानी क्यूँ नही कहते ?

फेसबुक में पोस्ट अपलोड करते हो
जिंदगी में हमेशा लोड लेकर रहते हो
सोमवार - वीकेंड के लिए बस 5 दिन और
ऐसे ऐसे चुटकले बार-बार कहते हो
हर साल वही पुरानी बाते, कहानिया है
           बची जिंदगी में नई कहानी क्यूँ नहीं लिखते ?