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Tuesday, December 18, 2012

जब तक वो सुनाती रही

मैं  हमेशा  ही  तुमसे  रहा  ,रूठता
तुम  खड़ी  पास  मुझको  मनाती  रही .

मैं  सदा  दूर  तुमसे  रहा , घूमता -
तुम  खड़ी पास  मुझको  बुलाती  रही .
मै  तुम्हारा  हू  या  नहीं  मै  कैसे  बताता 
तुम  खड़ी  पास  मेरे  मुझको  बताती  रही 

जो  था  तुम्हारी,'आँखों'  में  नहीं  समझा 
तुम  खड़ी  पास  मेरे  कुछ  दिखाती  रही 

अब  है  दिल  की   इच्छा  तो  क्या  होगा  फायदा 
अंजन ने सुना  नहीं , जब  तक  वो  सुनाती  रही   

                                                -- अंजन ..... कुछ दिल से 


Monday, October 22, 2012

शारदा देवी मंदिर -मैहर

मैहर का मतलब है, मां का हार।  यहां सति का हार गिरा था।
पुराणों में माना जाता है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सति शिव से विवाह करना चाहती थी। लेकिन राजा दक्ष शिव को भूतों और अघोरियों का साथी मानते थे। फिर भी सति ने अपने पिता की मर्जी के खिलाफ जाकर भगवान शिव से विवाह कर लिया। एक बार राजा दक्ष ने कनखल (हरिद्वार) में बृहस्पति सर्वश् नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती इससे बहुत आहत हुई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। इस अपमान से पीड़ित हो, सती ने यज्ञ-अग्नि पुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर ने यज्ञपुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कर कंधे पर उठा लिया और गुस्से में तांडव करने लगे। ब्रह्मांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने ही सति के अंग को 52 भागों में विभाजित कर दिया। जहाँ-जहाँ सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे, वहाँ बावन शक्ति पीठो का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति रूप में प्राप्त किया। 

मंदिर का इतिहास
मंदिर के पास में एक प्राचीन शिलालेख है। वहाँ शारदा देवी के साथ भगवान नरसिंह की एक मूर्ति है। इन मूर्तियों नुपुला देवा द्वारा शेक 424 चौत्र कृष्ण पक्ष पर 14 मंगलवार, विक्रम संवत् 559 अर्थात 502 ई. स्थापित किया गया। देवनागिरी लिपि मे चार पंक्तियों वाली यह षिलालेख ''3.5'' से 15 आकार की है। मंदिर मे एक और षिलालेख शैव संत जिससे पता चलता है कि उस समय जैन धर्म का भी ज्ञान था यह षिलालेख 34 31'' आकार का है। माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 को की गई है। मूर्ति पर देवनागरी लिपि में शिलालेख भी अंकित है। इसमें बताया गया है कि सरस्वती के पुत्र दामोदर ही कलियुग के व्यास मुनि कहे जाएगें। दुनिया के जाने माने इतिहासकरा ए कनिंग्घम ने इस मंदिर पर विस्तार में शोध किया है। इस मंदिर में प्राचीन काल से ही बलि देने की प्रथा चली आ रही थी। लेकिन 1922 में सतना के राजा ब्रजनाथ जूदेव ने पशु बलि को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया। यह एक बहुत ही प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है, मैहर नगरी से 5 किलोमीटर दूर त्रिकुट पर्वत पर माता शारदा देवी का वास है। मंदिर तक पहुंचने के लिए भक्तों को 1063 सीढ़ियां तय करना होता है। पर्वत की चोटी के मध्य में ही शारदा माता का मंदिर स्थापित है। हालांकि पिछले साल से यहां रोप वे की शुरुआत कर दी गई है, जिससे वृद्धों और शारीरिक तौर पर विकलांग लोगों को माता के दर्शन करने में मुश्किल न आये। क्षेत्रीय परंपरा के मुताबिक अल्हा और उदल जिन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया था, जिसमे उदल की मृत्यु हो गई थी। दोनो भाई शारदा माता के बड़े भक्त हुआ करते थे। इन दोनों ने ही सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी। इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर में 12 सालों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था। माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था। आल्हा माता को शारदा माई कह कर पुकारा करता था और तभी से ये मंदिर भी माता शारदा माई के नाम से प्रसिद्ध हो गया। आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा ही करते हैं। मंदिर के पीछे पहाड़ों के नीचे एक तालाब है जिसे आल्हा तालाब कहा जाता है। यही नहीं तालाब से 2 किलोमीटर और आगे जाने पर एक अखाड़ा मिलता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आल्हा और उदल कुश्ती लड़ा करते थे।
यातायात 
मैहर मध्यप्रदेश के सतना जिले मे आता है यह राट्रीय राजमार्ग क्रमांक 7 से जुड़ा है। रेल यातायात मे महाकौशल एक्सप्रेस दिल्ली हजरत निजामुद्दीन से सीधा संपर्क है। यह जबलपुर से 162 किमी की दूरी पर है और कटनी जंक्षन से 62 किमी है। सतना जिला से 40 किमी पर स्थित है। 
मैहर घराने
हिंदुस्तानी शस्त्रीय संगीत मे मैहर घराने एक प्रमुख स्थान रखता है। संगीत की द्रुपदशैली का जन्म इसी घराने मे हुआ है। उस्ताद अलाउद्दीन खान (1972 मृत्यु हो गई) इस शैली के सबसे बड़े दिग्गज थे। लंबे समय तक उन्होने यहॉ निवास किया। उनका जन्म त्रिपुरा { अब पष्चिम बंगाल मे } 1862 में हुआ। मैहर के महाराजा के दरबार संगीतकार, और उसके छात्रों में श्रीमती अन्नपूर्णा (अलाउद्दीन खान की बेटी) देवी, उस्ताद अली अकबर खान (अलाउद्दीन खान के पुत्र), पंडित रवि (संगीतकार) शंकर, उस्ताद आशीष खान (अलाउद्दीन खान के पोते), उस्ताद ध्यानेश खान (अलाउद्दीन खान 2 पोता), उस्ताद प्रणेश खान (अलाउद्दीन खान के पोते 3), उस्ताद बहादुर खान (अलाउद्दीन खान के भतीजे), ज्पउपत बारां भट्टाचार्य (अलाउद्दीन खान के पहले छात्र) 

Friday, September 14, 2012

हिंदी दिवस और आम आदमी

एक व्यंग्य

लो भईया 14 सितम्बर का समय आ गया एक और सरकारी दिवस  ,हिंदी दिवस | सभी को सरकारी आदेशानुसार  मन से मनाना है | हमसे फ्रेंडशिप-दिवस,प्रेम-दिवस मनवा लो ,जन्म-तिथि,पुन्य-तिथि मनवा लो यहाँ तक की रास्ट्रीय त्यौहार भी मनवा लो पर हिंदी दिवस को हमसे ना कहो सच कहू इसको मनाना अपनी आत्मा से साक्षात्कार जैसे है हिंदी में काम को बढ़ावा देने वाली घोषणाएँ होंगी, कई कार्यक्रम आयोजित होंगे हिंदी की दुर्दशा पर दिल भी भारी करना पड़ सकता है ,घड़ियाली आँसू भी बहाना पड़ सकता है ,'कल से सिर्फ और सिर्फ हिंदी में काम करूँगा' अपने आप से और लोगो से ये वादा करना पड़ सकता है | लेकिन एक दिन  की बात है दूसरे दिन से फिर न जाने क्या होगा हिंदी का, साल के अन्य दिनों के लिए, ये भगवान ही जानता है  |

ये कोई नई बात नहीं है, 14 सितम्बर 1049 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी  तब से लेकर आज तक ये सिलसिला जारी है | मैं तो एक छोटा सरकारी मुलाजिम ही हूँ, अपने जान पहचान के लोगो और अपने रिश्तेदारों से हिंदी भाषा का हिमायती होने पर अक्सर गाली खाता  हूं |वास्तव में हिंदी तो उन लोगो की भाषा है जिनको अग्रेजी माता आती नहीं या हिंदी बोलने से  ज्यादा ही लगाव है और ऐसे लोगों को लोग-बाग नान-स्टैण्डर्ड करार देते है |मिश्रा जी अग्रेगी में फ़र्राटेदार  बात करते है तो पूरे मोहल्ले में नाम है और एक हम है हिंदी बोलने से घर में भी नाम नहीं है | हमारे दफ्तर में तो चपरासी से लेकर साहब तक सभी हिंदी के नाम पर लम्बे लंबे-चौड़े भाषण देते हैं पर अपने बच्चो को अग्रेगी माध्यम स्कूलों में पढ़ाते है,और उनको दान देकर बढ़ावा भी देते है, लेकिन हिंदी दिवस में हिंदी स्कूलों को बढ़ावा देने के लिए सरकार से गुजारिस करते है |

हमारा बालक शहीद न हो गाव जाये तेल लेने ,हमारे बाप दादा भी कभी जिले के बहार न गए हो पर हमें पाने बच्चो को तो महानगरो में पढाना है,भले ही हम छोटे-बाबु हो पर अपने बच्चो को विदेशो में नौकरी कराना है और ये सब बाते हिंदी से संभव न हो पाएंगी हिंदी के साथ रहेंगे तो हिन्दुस्तानी रह जाएँगे

हमारे लिए शहीदों ने कुर्बानियां देकर आजादी दिलाई और संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत कीराजभाषा होगी । इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाने लगा लेकिन ये कुरबानी हमारे लिए थी हमारे लिए थी हमारे बच्चो के लिए नहीं हम निभा रहे है हिंदी बोलकर और हिदी दिवस मनाकर

एक  दिन काट लो कल से हम अपने ही काम में लग जाएँगे | हिंदी का मालूम नहीं बोल तो लेते ही है ,हिंदी फिल्मे देखते है,समाज के ज्योतिमार्गी धारावाहिक देखते है ,हिंदी गाने सुनते है और यहाँ तक की गाली गलौज में भी कभी हम किसी अन्य भाषा का प्रयोग नहीं करते हमसे बड़ा कोई हिंदी का हिमायती नहीं है ! अब हिंदी दिवस में हम सपथ क्यों ले की कल से हिंदी को बढ़ावा देंगे हिंदी का प्रचार प्रसार करेंगे | हिंदी का प्रचार तो अपने देशो में ही नहीं विदेशो में भी हो रहा है,अमेरिका यूरोपी सरकारे   हिंदी   स्कूल खोल रही है, तो फिर यहाँ  इतना शोर शराबा क्यों | हिंदी दिवस है आएगा और चला जाएगा इसमें इतना घबराना क्यों | हिंदी न बोलेंगे तो सरकारे थोडा गिर जाएंगी ,आलू  प्याज टमाटर के दाम तो वैसे ही रहेंगे जैसे है ,आम जनता तो आम जनता ही रहेगी |   मेरे दादा जी तो कहते थे  अंग्रेज़ी पढ़ें सीखें परंतु साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि अंग्रेज़ी को उतना ही सम्मान दें जितना कि ज़रूरी है, उसको सम्राज्ञी न बनाएँ | लेकिन अब दादा जी कुछ ज्यादा नही बोलते |  अभी   हिंदी में भाषण तैयार कर रहा हू हिंदी दिवस में  देना है |

 

विवेक अंजन श्रीवास्तव 

सरलानगर , मैहर 

 

 

हिंदी दिवस में किर्तिप्रभा और जबलपुर एक्सप्रेस दैनिक हिंदी अख़बार में छपा मेरा लेख

Wednesday, August 29, 2012

मकबूल भेजती थी

किताबो  में  गुलाब  के  फूल  भेजती  थी ,
इशारो  से  क़यामत  के  शूल  भेजती  थी ,
हम  मिल  न  सके,  किनारों  की  तरह ,
वो  मुझे  प्यार  के  मकबूल  भेजती  थी 



Monday, August 13, 2012

बहुत मग़रूर हैं


चाहते जीना नहीं पर जीने को मजबूर हैं 
ज़िन्दगी से दूर हैं और मौत से भी दूर हैं 

दूर से उनके दो नैना जाम अमृत के लगे
पास जा देखा तो पाया ज़हर से भरपूर हैं 

जन्म पर दावत सही, है मौत पर दावत मगर
कैसे-कैसे वाह री दुनिया तेरे दस्तूर हैं 

ठीक हो जाते कभी के हमने चाहा ही नहीं 
जान से प्यारे हमें उनके दिए नासूर हैं 

भूखे बच्चों की तड़प, चिथड़ों में बीवी का बदन
ज़िन्दगी हमको तेरे सारे सितम मंज़ूर हैं 

लड़खड़ाने पर हमारे तंज़ मत करिए जनाब
हौसला हारे नहीं हैं हम थकन से चूर हैं 

व्यस्तताओं की वजह से हम न जा पाते कहीं
लोग कहते हैं 'अकेला' जी बहुत मग़रूर हैं 


साभार : वीरेंदर खरे "अकेला" 

Thursday, August 2, 2012

जब 'एंग्री यंग मैन' ने बॉलीवुड को बनाया वन-मैन इंडस्ट्री

एंग्री यंग मैन' से लेकर 'शहंशाह ऑफ बॉलीवुड' तक अमिताभ ने काफी लंबा सफर तय किया है। अमूमन देखा गया है कि वक्त के साथ लोगों की पॉपुलरिटी घटती है और छवि धूमिल होने लगती है। पर यह उनकी शख्सीयत ही है कि अभी भी उनका क्रेज जाता नहीं। अमिताभ बच्चन एक ब्रांड हैं, जिससे बॉलीवुड की पहचान जुड़ी है। प्रोड्यूसर्स उन्हें अपनी फिल्म में लेने को तरसते हैं, तो स्क्रिप्ट राइटर्स उनकी पर्सनालिटी को सूट करने वाली बेहतरीन स्क्रिप्ट लिखने के सपने देखते हैं। बिग बी की कड़क पर्सनालिटी के पीछे एक संवेदनशील कलाकार का दिल धड़कता है, जिसके लिए सेल्यूलॉइड अभिव्यक्ति से ज्यादा अस्तित्व का माध्यम है।


क्या आप जानते हैं कि जब अमिताभ का जन्म हुआ तो इनके पिता हरिवंश राय बच्चन ने इनका नाम 'इन्कलाब' रखा था? नैनीताल के शेरवुड स्कूल में पढ़ाई के दौरान उनका रुझान एक्टिंग की ओर हुआ। दिल्ली में कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर उन्होंने कोलकाता का रुख किया। हालांकि, यहां उनका मन नहीं लगा। एक दिन उन्होंने ठान लिया कि वे वही करेंगे जो उनके दिल ने हमेशा चाहा था। और इस तरह उन्होंने वहां की शिपिंग कंपनी की अच्छी-खासी नौकरी छोड़ मुंबई का रुख किया। सपनों के शहर मुंबई में दुबले-पतले और लंबी कद-काठी के अमित जब मुंबई पहुंचे तो इस शहर ने उनका स्वागत खुली बाहों से नहीं किया था। यह एक निर्दयी जगह थी, जहां हजारों लोग स्टार बनने के सपने लिए आते थे पर वे स्टूडियो फ्लोर तक पहुंचने से पहले ही टूट जाते थे। शुरुआत में अमिताभ को जैसा रेस्पॉन्स मिला उससे उन्हें लगा कि उन्हें वापस उसी जगह जाना होगा जहां उन्हें कोई जानता नहीं था और वही काम करना होगा जिसमें जरा भी रुचि नहीं थी। 6 फुट 3 इंच की हाइट का अभिनेता होना हिंदी सिनेमा के लिए आम बात नहीं थी। कुछ प्रोड्यूसर्स ने तो उनकी रंगत के कारण भी उन्हें ठुकरा दिया था।


फिर अमिताभ ने सोचा कि अपनी आवाज का फायदा उठाया जाए, पर यहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। ऑल इंडिया रेडियो ने उन्हें नौकरी देने से इनकार कर दिया। हर तरफ से उपेक्षित होने के कारण उन्होंने हार मान ली और वापसी की तैयारी करने लगे। तभी उनके पास फिल्म 'सात हिंदुस्तानी' का ऑफर आया। फिल्म तो पिट गई, पर अमिताभ की अभिनय कला को पहचान मिल गई। पहली ही फिल्म के लिए उन्हें बेस्ट न्यूकमर का नेशनल अवार्ड मिला। पर किस्मत ने अब भी उनकी राह में कई रोड़े खड़े किए। उम्दा परफॉर्मेन्स के बावजूद अमिताभ को न के बराबर सफलता मिल रही थी। एक के बाद एक उन्होंने कई फिल्मों में छोटे-मोटे रोल किए। कुछ फिल्मों के लिए उन्होंने वॉइस-ओवर भी किया। यह जंग जारी ही थी कि अमिताभ के हिस्से में 'आनंद' आ गई। ऋषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म में राजेश खन्ना जैसे सुपर स्टार के होने के बावजूद अमिताभ के काम को पसंद किया गया। इसके लिए उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला। फिल्म सुपरहिट रही। पर अब भी उनकी पहचान एक ऐसे अभिनेता के रूप में थी जो काफी लंबा है पर ठीक-ठाक एक्टिंग कर लेता है। उनकी 13वीं फिल्म 'जंजीर' से उन्हें वह मिला जिसका उन्होंने सपना देखा था।



'जंजीर' से हुई नई सुबह


'जंजीर' ने बिग बी की दुनिया ही बदल दी। सक्सेस के अलावा उनकी जीवनसाथी जया भादुड़ी से भी इसी फिल्म के दौरान उनकी मुलाकात हुई। प्रकाश मेहरा की इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा के इतिहास में शायद पहली बार एंटी-हीरो जैसे कैरेक्टर को इंट्रोड्यूस किया। इसी फिल्म ने उन्हें 'एंग्री यंग मैन' की इमेज भी दी। 1970 की शुरुआत तक वे सक्सेसफुल तो हो गए थे पर स्टारडम का आना अभी बाकी था। इस दशक के दौरान आईं अमित की दो फिल्में ब्लॉकबस्टर साबित हुईं- 'दीवार' और 'शोले'। 'शोले' में उन्होंने जय का किरदार निभाया। फिल्म में जय तो मर गया पर एक नए अमिताभ का जन्म हो गया। इसके बाद 'दीवार' को मिली अप्रत्याशित सफलता ने बॉलीवुड को 'वन-मैन इंडस्ट्री' के नाम से फेमस कर दिया। इस समय तक हर प्रोड्यूसर समझ गया था कि अगर उनकी फिल्म में अमिताभ रहेंगे तो फिल्म का हिट होना तय है। एक जमाने में साइड रोल करने वाले अमित अब सेल्युलॉइड की जान बन चुके थे। उनकी पॉपुलरिटी के चलते कई दूसरे एक्टर्स अच्छी एक्टिंग के बावजूद पीछे रह गए। इसके बाद तो उन्होंने बैक-टू-बैक कई हिट्स दिए, जैसे 'अमर अकबर एंथनी', 'डॉन', 'त्रिशूल', 'काला पत्थर' और 'सिलसिला'। फिल्म 'कूली' की शूटिंग के दौरान अमिताभ का एक्सीडेंट हो गया और वे गंभीर रूप से घायल हो गए। उन्हें रिकवर करने में काफी लंबा समय लगा। इस दौरान देश भर में उनके जल्द ठीक होने के लिए लोग दुआएं करने लगे। अमिताभ मानते हैं कि दर्शकों के प्यार के कारण ही वे आज जिंदा हैं।


केबीसी से हुआ नया जन्म


अमिताभ ने एक प्रोडक्शन कंपनी बनाई थी- अमिताभ बच्चन कॉर्पोरेशन लिमिटेड। इस कंपनी ने कुछ फिल्में प्रोड्यूस कीं, पर सभी पिट गईं। भारी नुकसान हुआ। उन्होंने कई जगहों से कर्ज लिए पर आखिरकार कंपनी डूब गई। इधर, उनकी फिल्में भी फ्लॉप होने लगीं थीं। तब साल 2000 के दौरान उन्हें 'कौन बनेगा करोड़पति' नाम का गेम शो होस्ट करने का मौका मिला। उसके बाद जो हुआ उसने टीवी के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया। शो को अपार सफलता मिली और अमिताभ का जैसे नया जन्म हुआ। इसके बाद उन्होंने अपने सारे कर्ज चुकाए और दोबारा कंपनी खड़ी की।


आज भी हैं सुपर स्टार


राजेश खन्ना के बाद अगर इंडस्ट्री में कोई सुपर स्टार कहलाया तो वह हैं अमिताभ बच्चन। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज भी यह जगह कोई दूसरा ले नहीं पाया है। अमिताभ आज भी असली सुपर स्टार हैं। 

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 साभार : दैनिक भास्कर 

Friday, July 27, 2012

श्रमिकों का दुखड़ा कौन सुनेगा


अश्विनी महाजन (: साभार अमर उजाला ) 
Story Update : Friday, July 27, 2012    9:52 PM
देश की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी में हाल ही के विवाद और हिंसा के कारण पूरा देश सकते में आ गया है। मारुति के महानिदेशक की बर्बतापूर्ण हत्या के कारण उद्योग जगत में चिंता स्वाभाविक है। श्रमिकों की शिकायतें चाहे कितनी भी जायज क्यों न हों, उनके इस तरह से हिंसक होने का समर्थन नहीं किया जा सकता। श्रमिकों और प्रबंधन के बीच हिंसक वारदात का मारुति एकमात्र उदाहरण नहीं है। हालांकि उदारीकरण के दौर में हड़ताल सुनने में नहीं आ रही थी। जबकि एक समय हड़ताल और तालाबंदी एक सामान्य-सी बात थी। इसका अर्थ क्या यह लगाया जाए कि श्रम विवाद पहले से कम हो गए अथवा मजदूरों और प्रबंधन के बीच संबंध बहुत मधुर हो गए?

पिछले लगभग एक वर्ष से भी अधिक समय से मारुति में श्रमिकों की हड़ताल खासी चर्चा में रही है। श्रमिकों और प्रबंधन के बीच चल रहे इस संघर्ष से मारुति का उत्पादन और उसकी आमदनी तो प्रभावित हो ही रही है, उसका बाजार छिनने का भी खतरा मंडरा रहा है। माना जाता है कि इस हड़ताल के दौरान मारुति को 2,500 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। श्रमिकों ने यह हड़ताल अधिक मजदूरी के लिए नहीं, बल्कि बर्खास्त श्रमिकों की बहाली और स्वतंत्र श्रमिक संघ को मान्यता देने की मांग को लेकर शुरू की थी। प्रबंधन और श्रमिकों के बीच में हुआ कथित समझौता भी विवाद का विषय बना रहा, क्योंकि इसके माध्यम से प्रबंधन द्वारा श्रमिकों से सही आचरण की शर्त जबर्दस्ती मनवाई गई।

हाल के दशकों में हुए श्रमिक असंतोष के कई कारण हैं, जिसे समझना जरूरी है। भूमंडलीकरण के इस दौर में कंपनियों में ठेके पर मजदूर रखने की परंपरा शुरू हो चुकी है। नियमित कर्मचारी जैसे-जैसे रिटायर होते जाते हैं, नई भरतियां ठेके के कामगारों की ही हो रही हैं। ये कामगार सामान्यतः किसी प्रकार के श्रम कानूनों के अंतर्गत नहीं आते। ऐसे में प्रबंधन के साथ किसी भी प्रकार का विवाद उनकी नौकरी ही समाप्त कर देता है।

मारुति उद्योग भी इसका अपवाद नहीं। इसमें 10,000 स्थायी कर्मचारी हैं, और लगभग इतनी ही संख्या में ठेके पर मजदूर रखे जाते हैं। स्थायी कामगारों को औसत 18,000 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं, जबकि अस्थायी कार्मिकों को 6,000 रुपये ही मिलते हैं। कंपनी का कहना है कि अब वह ठेके पर कर्मचारी रखना बंद करेगी। सिर्फ यही नहीं कि मारुति और अन्य उद्योग ठेके पर कर्मचारी रखकर श्रम के शोषण को बढ़ावा देते रहे हैं, बल्कि छंटनी का डर दिखाकर कर्मचारियों की मजदूरी कम रखने का भी प्रयास होता है। 

भूमंडलीकरण के इस दौर में श्रमिकों के शोषण में वृद्धि हुई है। आंकड़े बताते हैं कि उद्योगपतियों को मुनाफा 1989-90 में कुल उत्पादन का मात्र 19 प्रतिशत ही होता था, वह 2009-10 में बढ़कर 56.2 प्रतिशत हो गया। श्रमिकों और अन्य कार्मिकों का हिस्सा इस दौरान 78.4 फीसदी से घटता हुआ मात्र 41 प्रतिशत रह गया। उद्योगों में प्रति श्रमिक सालाना मजदूरी वर्ष 2009-10 में 75,281 रूपये ही रही, जबकि अन्य कार्मिकों की मजदूरी 1,25,404 रुपये तक पहुंच गई। यानी श्रमिकों की मजदूरी में इस दौरान चार गुने की ही वृद्धि हुई, जबकि उन्हीं उद्योगों में लगे दूसरे कार्मिकों के वेतन पांच गुना से भी ज्यादा बढ़ गए। केंद्र व राज्य सरकारों और उनके द्वारा संचालित संस्थानों में जहां वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होती हैं, वहीं अर्थव्यवस्था के विविध क्षेत्रों में श्रमिकों को महंगाई भत्ता तक नसीब नहीं है। 

कुछ विशेष प्रकार के कार्यों को छोड़ शेष श्रमिक नितांत कम वेतन पर काम करने के लिए बाध्य हैं। ऐसे में निजी क्षेत्र की कंपनियां तो मोटा लाभ कमा ही रही हैं, सार्वजनिक क्षेत्र के ज्यादातर प्रतिष्ठान भी भारी लाभ कमा रहे हैं। वर्ष 1990-91 में केंद्र सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों का कर पूर्व लाभ जहां मात्र 3,820 करोड़ रुपये था, वहीं 2009-10 में वह बढ़कर लगभग 1,24,126 करोड़ रुपये हो गया। ऐसे में श्रमिकों के हितों की रक्षा हेतु श्रम कानूनों में बदलाव बहुत जरूरी है। तभी श्रमिकों का कंपनी के प्रति नजरिया बदलेगा और वह उत्पादन में अधिक वफादारी से लगेगा।

Friday, July 20, 2012

विचारो की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है,काव्य

 

समाज एवं जीवन के अलग अलग हालातों को देखने के बाद विचारो की अभिव्यक्ति का जो सफर चलता है और जो उड़ान होती है ,उन सब को अल्फाजों में ढालने का  सशक्त माध्यम है काव्य' जिसने दुनिया को खूबसूरत अल्फाजों से तर बतर कर दिया है

 

 मनुष्‍य के मन-मस्तिष्‍क में जब उथल पुथल उत्‍पन्‍न होता हैतो  काव्य की पृष्‍ठभूमि तैयार होती है और जब वह काव्य ,अक्षरों और शब्‍दों  का  रूप लेता हैतो कविता मूर्त रूप ग्रहण करती है।

 यह उथल पुथल कई कारणों से उत्‍पन्‍न हो सकता है। यह वैयक्तिक भी हो सकता हैसामाजिक भी।

 काव्य के रूप में कवि,प्रकृति का सौंदर्यजीवन की परिस्थितियांभूख ,विषाद,उम्‍मीद,जीवन,आत्म-विस्वास ,जिंदगी ,प्यार ,बेवफा,दोस्त,गाव,यादें,धोखा और आस अन्य कई विषयों में अपने भाव व्यक्त करता है कभी काव्य में भूख और गरीबी का चित्रण किया जाता है तो कभी संपन्‍न अघाए वर्ग की संवेदनहीनता पर चोट किया जाता है |कभी भूख से छटपटाते बच्‍चों के करूण क्रंदन तो कभी पिया विरह में करून प्रेम रस का वर्णन किया जाता है !   जीवन की सुख-दुःखभरी नाना अनुभूतियों को लेकर साहित्य में श्रृंगार, हास्य, करुण आदि नव रसों की अवतारणा की गयी है। साहित्य-शास्त्रियों ने अपनी-अपनी रचनाओं में जीवन का तात्त्विक विश्लेषण किया है। साहित्य जब जीवन-धर्मी होता है, तब पाठक और श्रोता के हृदय को विशेष रूप से स्पर्श करता है।

 

कोई विचार आना अलग बात  है और विचारो को काव्य के माध्यम से अपने व लोगो के जेहन में उतारना अलग बात है ,कवि  काव्य में कुछ सवाल करता है , तो जवाब खोजने की जद्दोजहद भी | इनमें वह  कभी व्‍यक्तिगत पीड़ा से रूबरू होता हैतो सामाजिक दुख भी उसकी चेतना को झकझोरता रहता है। इस कठिन समय में कोई संवेदनशील मन भला निजी पीड़ा से ही आप्‍लावित कैसे रह सकता है। कवि के मन में कई प्रश्‍न हैंजिनके उत्‍तर ढूंढने की कोशिश में उसका अंतर्मन बेचैन रहता है 

कश्ती के मुसाफिर ने कभी समंदर नही देखा
बहुत दिनों से  हमनें कोई सिकंदर नहीं देखा

दिखते है  रूप रुपया राज के कदरदान सभी

बहुत दिनों से हमने कोई कलंदर नहीं देखा

लेकिनवह ये भी जानता है कि उन प्रश्‍नों के उत्‍तर खोजनारेत के घरों की नींव ढूंढने जैसा है। फिर भी वह काव्य साधना के माध्यम से कोशिश करता रहता है 

मूल्यों का बिखराव कवि मन को गहरे तक आहत करता है  उसके मन की व्यथा और तल्खियाँ रचनाओ से झांकती है;परन्तु इन तल्खियो में न तो हताशा है और न  परिस्थितियों के सामने समर्पण का पराजय बोध |तस्वीर के तमाम उदास और धुंधले रंगों का बयान तो बड़े ईमानदारी के साथ करने की कोशिश की जाती है  ,पर साथ ही वह  इस तस्वीर को बदलना भी चाहता है    

सोलह रुपये में फुटपातो की पहचान कैसे हो  जाये

अंजन' कुछ करें गरीबी की लक्ष्मण रेखा पार हो जाये

 

कवि मन केवल दुखविषादहताशा ही ब्यक्त नही करता बल्कि अमावस के अंधियारे में रौशनी को ढूंढने का जज्‍बा, मन में  आत्मविश्वास और आशा शब्दों से बयान करने का साहस भी करता है  

 

पंखो के परवाजो को अब जल्द शिखर मिल जाएगा

चाहे लाख तूफा आये दिया और प्रखर जल जाएगा

कुल मिलाकर, काव्य एक संवेदनशील मन की अभिव्‍यक्ति हैं, जिन्‍हें एक आलोचक की दृष्टि से नहीं, एक संवेदनशील पाठक की दृष्टि से देखा जाना चाहिए क्‍योंकि मेरी समझ से इन्‍हें साहित्‍य की प्रचलित आलोचना पद्धति की कसौटी पर कसना कवि और कविताओं, दोनों के साथ न्‍यायसंगत नहीं होगा। केवल तुकबन्दी करने एवं स्थल वर्णन भर कर देने से काव्य की रचना नहीं होती है। भावों एवं विचारों के सुन्दर समन्वय के साथ-साथ रचनात्मकता का सही सन्तुलन सफल रचना की अनिवार्यता है। वर्तमान समय के दमघोटूँ परिवेश एवं भ्रष्ट व्यवस्था ने लोगों के भीतर बेचैनी एवं छटपटाहट पैदा कर दी है। वर्तमान परिवेश ने लोगों की सुरुचि को आहत किया है। ऐसे समय में सफल काव्य  की रचना करना बड़ा ही कठिन होता जा रहा है। केवल कुरुचि को भुनाकर काव्य के द्वारा तालियाँ बजवा लेना आसान है लेकिन लोगों में सुरुचि जगाने वाले कालजयी रचना करना बड़ा ही कठिन है। परन्तु इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सार्थक रचनाएँ हो रही हैं और आगे भी होती रहेंगी

विवेक अंजन श्रीवास्तव 

 मैहर,सतना