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Saturday, March 13, 2021

निष्ठा से वो कर्म किये जा।

 कर्म तेरे अधिकार में केवल, कर्म किये जा तू कर्म किये जा,

फल की इच्छा त्याग के अर्जुन पालन अपना धर्म किये जा।

किस स्थिति में क्या धर्म है तेरा, ज्ञात तू इसका मर्म किये जा,

तेरे लिए जो धर्म है निश्चित निष्ठा से वो कर्म किये जा।

हे पार्थ! तुम कर्म कर सकते हो, कर्म करने का संकल्प कर सकते हो, परन्तु इसका फल पाना तुम्हारे हाथों में नहीं है।
अर्जुन पूछते हैं- हे मधुसूदन! मैं जिस काम का संकल्प करूँगा वो काम तो मैं करूँगा ही। जब भोजन करने का निश्चय करके बैठूंगा तो निवाला उठाकर मुँह में रखूँगा ही। तभी तो उसे खाऊँगा?
कृष्ण कहते हैं- यदि वो खाने का निवाला तुम्हारे प्रारब्ध में नहीं है, तो उसे तुम मुँह तक तो ले जाओगे, परन्तु उस ग्रास का एक दाना भी अपने मुँह में नहीं रख सकोगे। हे अर्जुन! केवल कर्म का संकल्प ही प्राणी के अधिकार में है। उसका फल प्राणी के अधिकार में नहीं है।
अर्जुन पूछता है- वो कैसे?
कृष्ण कहते हैं- पार्थ! तनिक उस दृश्य की कल्पना करो की नगर धनवान के सामने बड़े स्वादिष्ट भोजन की थाली परोसी गई है। थाली सोने की है। गरमा-गर्म व्यंजन भरे हुए हैं। जिन्हें देखकर वो बहुत प्रसन्न हो रहा है। वो बड़ी प्रसन्नता से पहला निवाला उठाता है, लेकिन जैसे ही वह खाने लगता है उसकी सेविका का पैर फिसल जाता है और वह उस भोजन पर गिर जाती है और राजा को चोट लग जाती है। तब कृष्ण कहते हैं- अर्जुन देख लिया, कि प्रारब्ध में ना हो तो मुँह तक पहुंचकर भी निवाला तक छिन जाता है। परन्तु हे अर्जुन! इस उदाहरण का ये अर्थ भी नहीं है कि तुम सब कुछ प्रारब्ध पर छोड़कर स्वयं अकर्मण्य हो जाओ। याद रखो मैंने कहा है
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥

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