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Friday, October 30, 2009

श्रद्धांजलि: पटेल न होते तो बंटा रहता देश

 

 

दिल्ली।। सरदार वल्लभ भाई पटेल निर्विवाद रूप से वर्तमान भारत के शिल्पकार थे। इस लिहाज से लौहपुरुष सर

दार पटेल को भारत का बिस्मार्क कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आजादी की लड़ाई और उसके बाद अखंड भारत को रचने में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें वह मुकाम नहीं मिला जिसके वह हकदार थे। एक बड़े तबके का यह मानना है कि यदि सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो भारत ज्यादा मजबूत देश होता। लोग यह भी मानते हैं कि यदि लौहपुरुष होते तो आजाद होने के बाद भी भारत रियासत रूपी कई टुकड़ों में बंटा होता। आज उनका 135 वां जन्मदिवस है, पर देश के एक बड़े तबके ने उनको भुला दिया है।

31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नाडियाद में जन्मे सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारत को विशाल और अखंड भारत बनाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और साथ ही हैदराबाद के निजाम जैसे कई अहंकारी राजा-रजवाड़ों का मान मर्दन भी किया।

पटेल के जीवन पर शोध करने वाले प्रोफेसर राम रतन का कहना है कि वल्लभ भाई पटेल को 'सरदार' का तमगा उनके साहसिक कारनामों की वजह से मिला था। वह कांग्रेस के भीतर जवाहर लाल नेहरू से भी अधिक लोकप्रिय थे। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के बहुत से सदस्य पटेल को आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे, लेकिन गांधी जी को लगता था कि प्रधानमंत्री के रूप में जवाहर लाल नेहरू ज्यादा ठीक रहेंगे। पटेल ने महात्मा गांधी का पूरा सम्मान किया और वह नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में बाधा नहीं बने।

देश जब आजाद हुआ तो पटेल देश के पहले उप प्रधानमंत्री औप गृहमंत्री बने। उन्होंने अपनी कुशलता से उन सभी छोटे बड़े राजा रजवाड़ों को भारत संघ में मिला लिया जो खुद की रियासतों को देश से अलग रखना चाह रहे थे। पटेल अपनी बुद्धि ही नहीं, बल्कि शक्ति के लिए भी मशहूर थे। जब हैदराबाद का निजाम किसी भी कीमत पर भारत संघ में मिलने को तैयार नहीं हुआ तो उन्होंने बल प्रयोग करने की ठानी, लेकिन इस पर उन्हें अन्य नेताओं का समर्थन नहीं मिल पा रहा था।

उस समय हैदराबाद एक बहुत बड़ी रियासत था जिसमें वर्तमान आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के बहुत से हिस्से शामिल थे। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू यूरोप की यात्रा पर गए तो पटेल कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाए गए। तभी लौह पुरुष ने भारतीय सेना को आदेश दिया कि हैदराबाद को भारत संघ में मिला दिया जाए।

इस पर भारतीय सेना ने हैदराबाद पर धावा बोल दिया और निजाम के समर्थन में लड़ने वाले लोगों पर ज्यादती करने वाले हजारों रजाकरों को रौंद डाला। इस तरह हैदराबाद भारत का हिस्सा बन गया। पटेल के लिए हैदराबाद को संघ में इसलिए भी मिलाना अनिवार्य हो गया था कि वहां के 80 प्रतिशत लोग अखंड राष्ट्र में शामिल होना चाहते थे और निजाम उनके रास्ते में बाधा बन रहा था।

पटेल ने आजादी की लड़ाई में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। भारत छोड़ो आंदोलन हो या फिर डांडी मार्च, उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में उनका साथ दिया। उन्होंने बंटवारे के समय शरणार्थियों के पुनर्वास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

 

 

 

   

 

 

Thursday, October 22, 2009

भारत कभी गाँव और ग्रामीण संस्कृति का देश था।

भारत कभी गाँव और ग्रामीण संस्कृति का देश था। गाय तब 'काऊ' नहीं, गौमाता हुआ करती थी। जीवन में गाय के दूध की ही नहीं, उसके गोबर और मूत्र तक की प्रतिष्ठा थी। दीपावली के दूसरे दिन गोबर के गोवर्धन बनाकर पूजे जाते थे। गाय-बैल की पूजा होती थी। त्योहार का उत्साह घर की चौखट से आँगन-ओटले को छूता हुआ पूरे गाँव, कस्बे, शहर में फैल जाता था।
तब आज की तरह त्योहार का आनंद तलाशने कोई घर से बाहर नहीं जाता था, न ही उत्सव-आनंद का सुख बाहर से खरीदकर घर में ही लाया जाता था। सारे मिष्ठान्न और पकवान घर के चूल्हे पर माँ के हाथों बनते थे। घर का रोम-रोम केसर, इलायची की खुशबू से गमक उठता था। बाजार की मिठाइयों का रसोई की देहरी पर वार-प्रहार नहीं हुआ था। माँ गोबर और पीली मिट्टी के लेप से पूरा घर, घर की दीवारें तक लीपती थीं। माँ के हाथ का स्पर्श जैसे घर के जर्रे-जर्रे में स्वर्ग का-सा सौंदर्य, खुशी और आनंद उड़ेल देता था।

खड़िया के घोल से बनाए माँडने बच्चों और महिलाओं के आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे। चौक इतनी खूबसूरती से पुरे जाते थे कि चौक पूरने वाले की कला ही नहीं, उसकी आत्मा का सौंदर्य भी जैसे उसमें उतर आता था। देखने वाले की दृष्टि में, तुलना या ईर्ष्या का भाव नहीं, जो सम्मुख है उसमें प्रच्छन्न आनंद के अनुभव की छवि होती थी।

ऐसा हर घर, हर परिवार में होता था। मैं जो उम्र के सत्तरवें दरवाजे पर खड़ा हूँ और जो इसे पार कर आगे निकल चुके हैं, वे सब जब मुड़कर पीछे देखते हैं तो स्वयं के किसी स्वर्ग में होने के सुख से भर उठते हैं। हमारे पास अपने अतीत को लेकर कितनी संपन्नता है। अपने घर-परिवार, आँगन, तुलसी चौरा, बेला, चमेली, नीबू, नीम को लेकर कितनी स्मृतियाँ, कितने राग और रागिनियाँ हैं।

दादा-दादी और माँ की कितनी-कितनी सुखद भंगिमाएँ और यादें हैं। जब सोचते हैं तो हमें लगता है कि हम न अपने बीते कल में कंगाल थे न अपने आज में ही कंगाल हैं। किंतु आज, हमारे बाद की पीढ़ी के पास न वैसा अतीत है न वर्तमान ही। न वैसा घर-परिवार, न वैसे तीज-त्योहार, न वैसे राग-फाग। अतीत की संपन्नता क्या होती है, वे नहीं जानते और जानना भी नहीं चाहते, क्योंकि उनकी दृष्टि में अतीत में झाँकना पिछड़ा और दकियानूस होना है।

माँ, इस नई पीढ़ी के लिए घर की देखभाल करने वाली परिचारिका भर है। दादा-दादी यदि कहीं जीवित हैं और वृद्धाश्रम नहीं भेजे गए हैं तो वे व्यर्थ की रोक-टोक करने वाले नितांत गैरजरूरी व्यक्ति हैं। वे घर में जगह घेरने के साथ, नई पीढ़ी के लिए, उसकी सुख-सुविधा और स्वतंत्रता के लिए, अनावश्यक बोझ और बाधा हैं। ऐसी सोच के साथ पल-बढ़ रही पीढ़ी का भावी संसार कैसा होगा, सोचकर बेचैनी और भय होने लगता है।

आज वे भी जो मुझसे कुछ आगे या पीछे चल रहे हैं, इन परिस्थितियों में बेचैनी और घुटन का अनुभव जरूर करते होंगे। किंतु अतीत के स्मृति-वैभव और वर्तमान के जीवन-सौंदर्य से रहित केवल अपने आज में जीने वाली इस पीढ़ी के लिए हम कुछ भी कर सकने लायक कहाँ हैं। हाँ, अपनी विवशता में इनके लिए हम शुभकामना ही व्यक्त कर सकते हैं, फिर भले ही इन्हें इसकी दरकार हो या न हो |

 

 

 

Wednesday, October 14, 2009

साईबाबा : 15 अक्टूबर

 

 

 

 

साईबाबा की दिव्यशक्ति

शिरडी के साईबाबा आज असंख्य लोगों के आराध्यदेव बन चुके है। उनकी कीर्ति दिन दोगुनी-रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। यद्यपि बाबा के द्वारा नश्वर शरीर को त्यागे हुए अनेक वर्ष बीत चुके है, परंतु वे अपने भक्तों का मार्गदर्शन करने के लिए आज भी सूक्ष्म रूप से विद्यमान है। शिरडी में बाबा की समाधि से भक्तों को अपनी शंका और समस्या का समाधान मिलता है। बाबा की दिव्य शक्ति के प्रताप से शिरडी अब महातीर्थ बन गई है।

कहा जाता है कि सन् 1854 .में पहली बार बाबा जब शिरडी में देखे गए, तब वे लगभग सोलह वर्ष के थे। शिरडी के नाना चोपदार की वृद्ध माता ने उनका वर्णन इस प्रकार किया है- एक तरुण, स्वस्थ, फुर्तीला तथा अति सुंदर बालक सर्वप्रथम नीम के वृक्ष के नीचे समाधि में लीन दिखाई पड़ा। उसे सर्दी-गर्मी की जरा भी चिंता नहीं थी। इतनी कम उम्र में उस बालयोगी को अति कठिन तपस्या करते देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। दिन में वह साधक किसी से भेंट नहीं करता था और रात में निर्भय होकर एकांत में घूमता था। गांव के लोग जिज्ञासावश उससे पूछते थे कि वह कौन है और उसका कहां से आगमन हुआ है? उस नवयुवक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग उसकी तरफ सहज ही आकर्षित हो जाते थे। वह सदा नीम के पेड़ के नीचे बैठा रहता था और किसी के भी घर नहीं जाता था। यद्यपि वह देखने में नवयुवक लगता था तथापि उसका आचरण महात्माओं के सदृश था। वह त्याग और वैराग्य का साक्षात् मूर्तिमान स्वरूप था।

कुछ समय शिरडी में रहकर वह तरुण योगी किसी से कुछ कहे बिना वहां से चला गया। कई वर्ष बाद चांद पाटिल की बारात के साथ वह योगी पुन: शिरडी पहुंचा। खंडोबा के मंदिर के पुजारी म्हालसापति ने उस फकीर का जब 'आओ साई' कहकर स्वागत किया, तब से उनका नाम 'साईबाबा' पड़ गया। शादी हो जाने के बाद वे चांद पाटिल की बारात के साथ वापस नहीं लौटे और सदा-सदा के लिए शिरडी में बस गये। वे कौन थे? उनका जन्म कहां हुआ था? उनके माता-पिता का नाम क्या था? ये सब प्रश्न अनुत्तरित ही है। बाबा ने अपना परिचय कभी दिया नहीं। अपने चमत्कारों से उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई और वे कहलाने लगे 'शिरडी के साईबाबा'

साईबाबा ने अनगिनत लोगों के कष्टों का निवारण किया। जो भी उनके पास आया, वह कभी निराश होकर नहीं लौटा। वे सबके प्रति समभाव रखते थे। उनके यहां अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, जाति-पाति, धर्म-मजहब का कोई भेदभाव नहीं था। समाज के सभी वर्ग के लोग उनके पास आते थे। बाबा ने एक हिंदू द्वारा बनवाई गई पुरानी मसजिद को अपना ठिकाना बनाया और उसको नाम दिया 'द्वारकामाई' बाबा नित्य भिक्षा लेने जाते थे और बड़ी सादगी के साथ रहते थे। भक्तों को उनमें सब देवताओं के दर्शन होते थे। कुछ दुष्ट लोग बाबा की ख्याति के कारण उनसे ईष्र्या-द्वेष रखते थे और उन्होंने कई षड्यंत्र भी रचे। बाबा सत्य, प्रेम, दया, करुणा की प्रतिमूर्ति थे। साईबाबा के बारे में अधिकांश जानकारी श्रीगोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर द्वारा लिखित 'श्री साई सच्चरित्र' से मिलती है। मराठी में लिखित इस मूल ग्रंथ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। साईनाथ के भक्त इस ग्रंथ का पाठ अनुष्ठान के रूप में करके मनोवांछित फल प्राप्त करते है।

साईबाबा के निर्वाण के कुछ समय पूर्व एक विशेष शकुन हुआ, जो उनके महासमाधि लेने की पूर्व सूचना थी। साईबाबा के पास एक ईट थी, जिसे वे हमेशा अपने साथ रखते थे। बाबा उस पर हाथ टिकाकर बैठते थे और रात में सोते समय उस ईट को तकिये की तरह अपने सिर के नीचे रखते थे। सन् 1918 .के सितंबर माह में दशहरे से कुछ दिन पूर्व मसजिद की सफाई करते समय एक भक्त के हाथ से गिरकर वह ईट टूट गई। द्वारकामाई में उपस्थित भक्तगण स्तब्ध रह गए। साईबाबा ने भिक्षा से लौटकर जब उस टूटी हुई ईट को देखा तो वे मुस्कुराकर बोले- 'यह ईट मेरी जीवनसंगिनी थी। अब यह टूट गई है तो समझ लो कि मेरा समय भी पूरा हो गया।' बाबा तब से अपनी महासमाधि की तैयारी करने लगे।

नागपुर के प्रसिद्ध धनी बाबू साहिब बूटी साईबाबा के बड़े भक्त थे। उनके मन में बाबा के आराम से निवास करने हेतु शिरडी में एक अच्छा भवन बनाने की इच्छा उत्पन्न हुई। बाबा ने बूटी साहिब को स्वप्न में एक मंदिर सहित वाड़ा बनाने का आदेश दिया तो उन्होंने तत्काल उसे बनवाना शुरू कर दिया। मंदिर में द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित करने की योजना थी।

15 अक्टूबर सन् 1918 . को विजयादशमी महापर्व के दिन जब बाबा ने सीमोल्लंघन करने की घोषणा की तब भी लोग समझ नहीं पाए कि वे अपने महाप्रयाण का संकेत कर रहे है। महासमाधि के पूर्व साईबाबा ने अपनी अनन्य भक्त श्रीमती लक्ष्मीबाई शिंदे को आशीर्वाद के साथ 9 सिक्के देने के पश्चात कहा- 'मुझे मसजिद में अब अच्छा नहीं लगता है, इसलिए तुम लोग मुझे बूटी के पत्थर वाड़े में ले चलो, जहां मैं आगे सुखपूर्वक रहूंगा।' बाबा ने महानिर्वाण से पूर्व अपने अनन्य भक्त शामा से भी कहा था- 'मैं द्वारकामाई और चावड़ी में रहते-रहते उकता गया हूं। मैं बूटी के वाड़े में जाऊंगा जहां ऊंचे लोग मेरी देखभाल करेगे।' विक्रम संवत् 1975 की विजयादशमी के दिन अपराह्न 2.30 बजे साईबाबा ने महासमाधि ले ली और तब बूटी साहिब द्वारा बनवाया गया वाड़ा (भवन) बन गया उनका समाधि-स्थल। मुरलीधर श्रीकृष्ण के विग्रह की जगह कालांतर में साईबाबा की मूर्ति स्थापित हुई।

महासमाधि लेने से पूर्व साईबाबा ने अपने भक्तों को यह आश्वासन दिया था कि पंचतत्वों से निर्मित उनका शरीर जब इस धरती पर नहीं रहेगा, तब उनकी समाधि भक्तों को संरक्षण प्रदान करेगी। आज तक सभी भक्तजन बाबा के इस कथन की सत्यता का निरंतर अनुभव करते चले रहे है। साईबाबा ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने भक्तों को सदा अपनी उपस्थिति का बोध कराया है। उनकी समाधि अत्यन्त जागृत शक्ति-स्थल है।

साईबाबा सदा यह कहते थे- 'सबका मालिक एक' उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भावना का संदेश देकर सबको प्रेम के साथ मिल-जुल कर रहने को कहा। बाबा ने अपने भक्तों को श्रद्धा और सबूरी (संयम) का पाठ सिखाया। जो भी उनकी शरण में गया उसको उन्होंने अवश्य अपनाया। विजयादशमी उनकी पुण्यतिथि बनकर हमें अपनी बुराइयों (दुर्गुणों) पर विजय पाने के लिए प्रेरित करती है। नित्यलीलालीन साईबाबा आज भी सद्गुरु के रूप में भक्तों को सही राह दिखाते है और उनके कष्टों को दूर करते है। साईनाथ के उपदेशों में संसार के सी धर्मो का सार है। अध्यात्म की ऐसी महान विभूति के बारे में जितना भी लिखा जाए, कम ही होगा। उनकी यश-पताका आज चारों तरफ फहरा रही है। बाबा का 'साई' नाम मुक्ति का महामंत्र बन गया है और शिरडी महातीर्थ।