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Thursday, October 28, 2010

शराबी युवा कैसे देंगे चीन और अमेरिका को टक्कर ?

आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,

आजकल के युवा, महाकवि हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला की इन पंक्तियों को मूर्त रूप देने में जुटे हुए हैं ये बात हम नहीं बल्कि एसोचैम द्वारा किए गए के सर्वे से साफ हुई है.

यूथ कल पर कुछ नहीं छोड़ना चाहता सब कुछ आज ही कर लेना चाहता है. मेट्रो शहरों के बारहवीं में पढ़ने वाले 45 पर्सेंट बच्चे महीने में कम से कम पांच से छह बार शराब पीते हैं. और तो और रहे पिछले 10 साल में टीनेजर्स के बीच शराब की खपत दोगुनी हो गई है.

टीनेजर्स में शराब का चलन सबसे ज्यादा दिल्ली और एनसीआर में है. इसके बाद मुंबई का नंबर है. एक स्टूडेंट साढ़े तीन से चार हजार रुपए शराब पर खर्च करता है. जबकि इतनी रकम वे सॉफ्ट ड्रिंक , चाय , दूध , जूस , कॉफी , मूवी टिकट और किताबों पर नहीं खर्च करते. 70 पर्सेंट टीनेजर्स फेयरवेल , न्यू ईयर , क्रिसमस , वैलंटाइन डे , बर्थडे और दूसरे अवसरों पर शराब पीते हैं। सर्वे के मुताबिक , एक तिहाई टीनेजर्स ने कॉलेज पहुंचने से पहले शराब पी ली थी , जबकि 16 पर्सेंट टीनेजर्स ने 15 साल से पहले ही हाला यानी शराब से दोस्ती कर ली थी.

ज्यादातर टीनेजर्स ने पहली बार शराब दोस्तों के साथ पी थी. इस मामले में लड़कियां भी पीछे नहीं हैं वो भी लड़कों को पूरी टक्कर दे रही हैं. लड़कियों में 40 पर्सेंट ने 15 साल से 17 साल की उम्र में पहली बार शराब पी थी. जिन लड़कियों को अल्कोहल का स्वाद पसंद नहीं , वे फ्रूट फ्लेवर्ड शराब पीती हैं.

आपने फीचर फिल्म कुली में आशा भोसले और शब्बीर कुमार को गाते हुए सुना होगा ….मुझे पीने का शौक नहीं पीता हूं गम भूलाने को.. ये फ़िल्मी गाना है लेकिन आजकल की युवा पीड़ी इसे सच साबित करने में दिन रात जुटी हुई है मजेदार बात है ज्यादातर टीनेजर शराब को टेंशन खत्म करने के लिए पीते हैं.

पर सवाल यह है कि क्या शराब हकीकत में टेंशन दूर भगाती है? आखिर युवा पीढ़ी में इतना दबाव क्यों है जो वो ऐसे रास्ते खोज रही है? इसके लिए कौन से बदलाव जिम्मेदार हैं? क्या हम युवा पीढ़ी को चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार नहीं कर पाए हैं? अगर नहीं तो उसे इसके लिए कैसे तैयार किया जाए? क्या युवा पीढ़ी सही दिशा में बढ रही है? या उन्हें सही दिशा में लाने के प्रयास होने चाहिए.

ये वो सवाल हैं जिनका जवाब समय रहते खोजना ज़रूरी है नहीं तो समाज के मूलभूत ढांचे को नुकसान पहुंच सकता है. जिस यूथ के दम पर हम अमेरिका और चीन जैसे शक्तिशाली देशों से टक्कर लेने का सुंदर सपना सजा रहे हैं अगर हमारा वही यूथ नशे में डूबा होगा तो हम उनसे कैसे मुकाबला करेंगे.

आप कैसे युवा हैं ?

 (जिन्हें भारत एक गड़रियों का देश था पढ़ाया गया है जिन्हें ये पढाया गया है कि हिन्दू धर्म ग्रंथों में केवल कहानिया हैं और कुछ नहीं, कैसे युवा हैं आप ? )

हमारा देश वर्तमान में युवाओं का देश माना जा रहा है । अब ये अलग बात है कि कोई पच्चीस साल का होते हुए भी युवा होने की ताल नहीं ठोक सकता, और कोई पचास साल का होने के बाद भी युवाओं से स्वयं को कम नहीं मानता । शरीर विज्ञान के अनुसार तो अस्सी साल के बुजुर्ग के सम्मुख सत्तर साल के बुजुर्ग को युवा कहेंगे । हमारे भारत में तो "साठा सो पाठा" की कहावत इसीलिए चर्चित है कि यहाँ सभी अपने को युवा कहलाना चाहते हैं ।
पर मेरा सवाल अवस्था के परिप्रेक्ष में नहीं है, मेरा सवाल विचारों के परिप्रेक्ष में है । " आप कैसे युवा हैं" ? क्योंकि हमारा देश विविधताओं वाला है । यहाँ की विविधता केवल बोली-भाषा,प्रदेश,धर्म-संस्कृतियों के आधार पर ही नहीं है अपितु वैचारिक आधार पर भी होती है । जैसे ———

एक प्रकार के युवा, अंग्रेजी पढ़े हुए ही नहीं अपितु अंग्रेजी सोच भी रखने वाले जिन्हें स्वदेशी भाषा, धर्म,संस्कृति-संस्कार, ग्रन्थ-इतिहास आदि सब बकवास लगता है क्योंकि उन्हें उस प्रकार का आदर्श बनना है जैसा अंग्रेज नीतिकार मैकाले चाहता था। वो अपने को विकास वादी या प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष कहलाना पसंद करते हैं (यदि राजनीति में हों) । महंगे बान्डेड कपडे, घडी,चैन,जूते,चश्मा, लम्बी गाड़ी, विदेशी शैक्षिक डिग्रियां,लड़की-लड़के में भेद न समझना ही इनकी पहचान है । इनमे से अधिकतर को तो इससे कोई मतलब नहीं कि देश में क्या हो रहा है क्या नहीं । इनके मां-बाप इनका खर्च चलाते हैं क्योंकि वे किसी भी तरह से अनाप-शनाप कमाते हैं । ऐसे युवा थोड़े से भी शालीन हो जाते हैं तो राजनीति में सभी दलों में दिख जायेंगे ।

इन्हीं की नक़ल करके समाज के हर तबके में अपने आर्थिक स्तर के अनुरूप , मुहं में गुटका शाम को शराब, तौर-तरीके (स्टाईल) फ़िल्मी, राजनैतिक नेताओं के पीछे लग कर अपने लिए कुछ कमाई के साधन तलाशना इनकी मज़बूरी। या सरकारी नौकरी लग गयी तो सब बातों से निश्चिन्त हो कर जिंदगी जीना खूब आराम तलब हो कर कुछ सालों में बिमारियों का घर बनकर परेशान रहना ।

इन दोनों से अलग एक युवा वो हैं जिन्हें अपनी दाल-रोटी की चिंता भी है समाज-संस्कृति की चिंता भी है, देश की चिंता, राजनीति की चिंता, शिक्षा की चिंता, मतलब सभी का ठेका उसके पास ही है । मंदिर-मस्जिद पर लम्बी बहस हो या आतंकवादियों के मामले पर नुक्ताचीनी, फिल्मों पर चर्चा हो या खेलों पर, सब पर उसकी नजर रहती है । देश के पक्ष में कोई आन्दोलन चले तो सबसे पहले वह ही आंदोलित होता है ।

अब मुझे इनकी संख्याओं का पता तो नहीं है कि अधिक कौन हैं; पर ये प्रश्न जरुर मन में उठता है कि आप कैसे युवा हैं ? अपने देश,धर्म,संस्कृति,सभ्यता-समाज, संस्कार, इतिहास,ग्रंथों,को जानने वाले और इन पर गर्व करने वाले, या पश्चात्य संस्कृति में सराबोर मैकाले के आदर्श युवा ? जिन्हें भारत एक गड़रियों का देश था पढ़ाया गया है जिन्हें ये पढाया गया है कि हिन्दू धर्म ग्रंथों में केवल कहानिया हैं और कुछ नहीं, कैसे युवा हैं आप ?

 

Tuesday, October 26, 2010

मोहब्बत और अदब की शायरा मुमताज नाजां

'हमसफर खो गये...
जिंदगी की सुहानी सी वह रहगुजर
साथ साथ आ रहे थे मेरे वो मगर
आज जाने क्या हुआ मुझे छोड़कर
हाथ मुझसे छुड़ाकर वह गुम हो गये।
मैं भटकती रही जूस्तजू में यहां
और रोती रही मेरी तन्हाइयां
पर चट्टानों से टकराकर लौट आई जब
टूटते दिल के टुकड़ों की जख्मी सदा
जिंदगी की सुहानी सी वह रहगुजर'

ये पक्तियां शायरी के आसमान पर चमकते उस सितारे की हैं, जिसे अदब की दुनिया में मशहूर फनकार मरहूम अजीज नाजां के पत्‍नी के रूप में जाना जाता है। कानपुर की रहने वाली सुशिक्षित एवं कलम की धनी मुमताज नाजां को शायरी के खास अंदाज के लिए शेरो-शायरी की दुनिया में पहचाना जाता है।

मुमताज को बचपन से ही शायरी का शौक रहा है, लेकिन वह अपनी जिंदगी में शायर काबिल अजमेरी से विशेष रूप से प्रभावित रहीं या यूं भी कहा जा सकता है वे काबिल अजमेरी को अपना आदर्श भी मानती हैं। बचपन से ही शायरी की दुनिया में कदम रखने वाली मुमताज का कहना है कि दौर कैसा भी हो, शेर और शायरी के चाहने वालों की कभी कमी नहीं हो सकती।

मुमताज कहती हैं, 'मैं खुद 14 साल की उम्र से इस क्षेत्र से जुड़ी हूं। साथ ही, मेरे पति मरहूम अजीज नाजां खुद अपने वक्त में कव्वाली जगत के एक मशहूर फनकार थे। उनसे भी बहुत कुछ सीखने को मिला। मैंने उनके लिए कई मौकों पर कलाम लिखे। नात पाक, हम्द शरीफ, गज़ल, नज्म़ सभी मैं बाकायदा लिखती हूं। मेरे लेखन को परिवार की ओर से भी पूरा सहयोग मिला, जिसकी वजह से मैं अच्छा लिखने की कोशिश करती रही हूं।'
 
हुस्नो-इश्क की कंगी चोटी वाली शायरी को ज्यादा अहमियत नहीं देने एवं जदीद लबो-लहजे में अपना दर्द कागज पर उतारने वाली जिंदगी की सच्चाई और हालात का करब, इसके अलावा आदमी के लिए एक पैगाम उनकी शायरी की रूह हुआ करती है, जो उनके कलाम में नजर आता है...

'हसरतों के सिलसिले सोजे निहान तक आ गये।
हम नजर तक चाहते थे तुम तो जान तक आ गये।
रंग आरिज में न था या जुल्फ में खुशबू न थी
आप किसकी जूस्तजू में गुलिस्तान तक आ गये।
उनकी पलकों पर सितारे अपने होठों पर हंसी
किस्सा-ए-गम कहते कहते हम यहां तक आ गये।'
 
मुमताज को बचपन से ही अदबी माहौल मिला। अच्छी तरबियत की वजह से अच्छे शेर कहने वाली मुमताज को शादी के बाद भी वही माहौल मिला, जिसकी उन्हें आरजू थी। यही वजह है कि आज उनके बेटे मुजतबा नाजां संगीतकार होने के साथ-साथ एक अच्छे फनकार भी हैं। वह भी अपनी अपनी लिखी गजलें, नज़्म, नात और हम्द को अपने प्रोग्रामों में पढ़कर महफिल से वाहीवाही लूटते हैं। मुमताज का कहना है कि वह अपने कलामों में उन सभी बातों का ध्यान रखती हैं, जो लोग चाहते हैं। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान वह सरजमीन हैं, जिसमें शेर और शायरी के एक से बढ़कर एक कलमकार पैदा हुए हैं।

वे कहती हैं, 'मैं शेरो-शायरी के अलावा पेंटिंग और गाने-गुनगुनाने में भी खासी दिलचस्पी रखती हूं। मुझे फख्र है कि मैं हिन्दुस्तान जैसे दुनिया के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष देश की निवासी हूं, जहां पर अनेक मजहब होने के बाद भी सब लोग एक सूत्र में बंधकर मुल्क की हिफाजत के लिए लड़ने-मरने को तैयार रहते हैं। इस बात को मैंने अपने देशभक्ति के कलामों में भी शामिल किया है।' जिंदगी की हकीकत को छूने वाले उनके ये अशआर लोग बहुत पसंद करते हैं...
 
'क्या क्या अजीब रंग बदलती है जिंदगी
हर लम्हे नये रूप में ढलती है जिंदगी
चलता है तू तो कदमों की आहट के साथ-साथ
पांव दबा के चुपके से चलती है जिंदगी
सांसों की धूप में जिस्म की लौ आग वफा की
एक शमां की मानिंद पिघलती है जिंदगी।'

Wednesday, October 20, 2010

Top 10 reasons why employees hate their boss

Bosses! Can't work with them, can't work without them. Everything seems to be fine when you join the job but if you are one of those fortunate ones, sooner or later your boss starts smirking in your nightmares.

A chat with employees working under tough projects and small teams who usually face tremendous work pressure will give us interesting insights about the bad bosses they have. Even in a company sans work pressure employees regularly bump into bad bosses. And their experiences are real bad [pardon me of your boss is really good] which they only share once they are in a new job. Good bosses are hard to find and employees hate their bad bosses for very many reasons. We at SiliconIndia did a survey to know why employees hate their boss. Listing the Top 10 reasons below:



1) Incompetent and unacknowledging - Employees hate bosses who doesn't have the essential competitive skills but still scorns the work they do. Whether or not the boss is competitive, the employee really longs for his good work to be acknowledged and not to be treated as a 'piece of crap'.

2) Privacy Invasion - 'He always keep guard about what I do, constantly checks out on the office phone about what I am busy at (an indirect way to know whether I am on a call with any acquaintance) and one day even peeped through the door to see what I am doing. Now I even doubt whether he is watching me once I reach home' says Anamika (name changed to protect identity). Now that's a real bad boss.

3) The narcissist boss - Employees hate bosses who acts as the 'know it all', who thinks they are second to none, hears nothing until it directly benefits him and so self obsessed to be called in the informal way 'a narcissist glory monger'.

4) Personal Insults - Bosses who torture employees with personal insults rather than choosing to reproach on the basis of their work quickly gets in the hate list. Many employees have long stories to say about bosses who frequently torture them with comments about their attitude and discriminate them deliberately.

5) The angry 'yelling' boss - You are the boss, thumbs up. But how on earth could you yell at me like that. Employees at some point or other meet the unfortunate fate of being victim to their boss' wrath. Justifiable the reason may be, but you are in my hate list boss.

6) The 'opportunist' boss - Employees obviously develops a dislike to their boss who refuses to mind them. But one day the same boss who never acknowledged your presence comes to you, smiles at you and the next thing you know, you are on an extra shift with heavy workload. Dislikes turn to hate for such opportunist bosses.

7) The 'tensed' boss - Employees tend to hate bosses who are always tensed and want them to finish of the work in a hurry. "He is so tensed and rushes things as if his head is on fire. His tension is so contagious that even we get tensed in his presence" Rahul, a software employee.

8) Stealing credits - Employees feel cheated and hate their boss when he or she steals the credit of their work but never forgets to blame them if something goes wrong.

9) Lack of clarity and feedback - Employees hate bosses who don't brief them properly and keep the employees ignorant with any real feedback on their work. And worse, employees are blamed for something which in turn would be the result of void feedback.

10) Lack of rapport - Employees hate bosses who lacks mutual respect and always play bossy without any real interest in befriending the employees.

Monday, October 18, 2010

धन का नशा सबसे खतरनाक...

धन का मोह ऐसा मोह है जिसने कई बार असंख्य लोगों की जान ली है। धन, संपत्ति के लोभ में कोई भी बहुत आसानी से फंस जाता है। धन को इसीलिए ही माया कहा जाता है। इस माया के चक्कर में जो फंसता है उसे परिवार, समाज और दुनिया से मतलब नहीं रह जाता। उसे तो बस धन ही धन दिखाई देता है।

मनुष्य धन के लालच में कई बार ऐसे कर्म कर बैठता है, जिसके लिए जीवन में उसे हमेशा पछताना पड़ता है। धन के नशे के संबंध में एक दोहा बहुत प्रचलित है:

कनक-कनक ते सौ गुनी,

मादकता अधिकाय।।

या खाये बोराय

वा पाए बोराय।।

अर्थात् यहां कनक शब्द के दो अर्थ है, कनक का मतलब सोना और धतूरा (सबसे नशीला फल) धतूरा के नशा उसे खाने के बाद ही होता है परंतु सोना पा लेने से उसका नशा हमारे सिर चढऩे लगता है।


Friday, October 15, 2010

हम नहीं वह जो करें दिल से फ़रामोश तुम्हें।

हम नहीं वह जो करें दिल से फ़रामोश तुम्हें


जानते अपना हैं हम जाने-दम-ब-होश तुम्हें


चश्मे-मस्त अपनी जो दिखलाए वो मयनोश तुम्हें
जाहिदो! होशो-ख़िरद का न रहे होश तुम्हें


कर चुके आहो-फ़ुगां जब्त तुम, ऐ हजरते-दिल
दम-ब-दम गर है मुहब्बत का यही होश तुम्हें


शब-ए-फ़ुरक़त में भी रहते हो बग़ल में मेरे
रखते हैं अपने तसव्वुर से हम-आग़ोश तुम्हें


आंखें सुरमा से हैं आलूदा तेरी, पूछ इनसे
किसके मातम ने किया है ये सियहपोश तुम्हें


शम्अ-सा गो कि सरापा हो जुबां तुम, लेकिन
देखता हूं ‘जफ़र’, इस बज्म में ख़ामोश तुम्हें



- ओम सारथी, बूंदी (राज)

Wednesday, October 13, 2010

क्या-क्या बना दिया.


सब जल चुका है आग में बाकी है अब धुआं,
धुंए को तुमने आँख का काजल बना दिया.
बुझता हुआ चिराग क्या रौशन करे जहाँ,
तुमने उसी चिराग को सूरज बना दिया.
अपने तो बीच धार में, किश्ती डुबो गए,
तुम कौन हो कि हमको किनारे पे ला दिया.
अच्छे थे या बुरे थे, जैसे थे हम मगर,
ऐसे नहीं थे आपने, जैसा बना दिया.
गर तुम बुरा न मानो तो, एक बात पूँछ लूं,
क्या-क्या बनाओगे अभी, क्या-क्या बना दिया.

Saturday, October 9, 2010

किसे याद हैं बाबा अलाउद्दीन खां!

 

 
 
अलाउद्दीन खां
अलाउद्दीन खां ने पश्चिमी शास्त्रीय संगीत भी सीखा था
मैहर दो बातों के लिए मशहूर है मां शारदा देवी के मंदिर और पद्म विभूषण उस्ताद बाबा अलाउद्दीन खां की कर्मभूमि के रूप मे. बाबा अलाउद्दीन खां का जन्म 1862 मे हुआ था पूर्वी बंगाल में जो आज बांग्लादेश है.

माना जाता है कि वो मियाँ तानसेन की शिष्य परंपरा के अंग थे. उनके कई मशहूर शिष्यों में पंडित रविशंकर और अली अक़बर ख़ान जैसे कलाकार शामिल हैं.

बाबा अलाउद्दीन खां की एक बड़ी उपलब्धि थी मैहर वाद्य वृंद का गठन जिसने न सिर्फ़ एक मुश्किल समय में मैहर के समाज को संगीत से रौशन किया बल्कि आज भी बाबा द्वारा निर्मित सैकड़ों राग रचनाओं का एक मात्र आईना है.

मैहर देखने में भारत के किसी भी क़स्बे से अलग नहीं है. लेकिन यहाँ माहौल में उस्ताद बाबा अलाउद्दीन खां की रूह बसती है. लोग उन्हें बाबा के नाम से ही पुकारते हैं, मानो एक निजी रिश्ता क़ायम करना चाहते हों, बाबा के साथ और मैहर की विरासत के साथ.

सवाल यह नहीं है कि ऐसा क्या था बाबा में, सवाल यह है कि ऐसा क्या नहीं था? बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ को भारतीय संगीत का पितामह कहा जाता है.

और यह राह चलता आदमी भी यहाँ बता देता है कि बाबा जिस भी वाद्य को छूते वो उनका ग़ुलाम बन जाता था.

कहते हैं बाबा 200 से ज़्यादा भारतीय और पश्चिमी वाद्य बजाते थे. मगर अधिक जाने जाते थे सरोद, सितार वादन और अपनी ध्रुपद गायकी के लिए.

यादें

मैहर के महाराज बृजनाथ सिंह बीसवीं सदी की शुरुआत में उन्हें मैहर लाए थे. लेकिन बाबा जितना दरबार में बजाते थे उससे कहीं अधिक नियमित रूप से मां शारदा देवी के मंदिर में गाते थे.

बाबा के बेटे अली अकबर ख़ान मशहूर सरोद वादक हैं

बाबा की यादें या कहें तो मैहर का संगीत इतिहास आज किस्सों में ज़िंदा है. डॉक्टर कैलाश जैन का परिवार बाबा के क़रीब था.

वे कहते हैं जब उनकी सगाई हो रही थी तो बाबा को नहीं बुलाया गया था. लेकिन जब रात को सगाई में भैरवी गायी जा रही थी जो बाबा को सुनाई दी क्यों कि उनका घर नज़दीक ही था.

बाबा समारोह में पहुंचे और कहा यह इस समय का राग नहीं है. इस समय का राग मैं गा कर सुनाता हूं. और फिर उन्होंने दो घंटे गाया.

आज मैहर में बाबा अलाउद्दीन खां का घर उनकी सादा जीवन शैली और सर्वधर्म सरोकार का परिचय देता है. घर के दो नाम हैं-मदीना भवन और शांति कुटीर.

बाबा के कमरे में उनके वाद्यों के साथ दीवारों पर मढ़ी हैं उनके प्रसिद्ध शिष्यों की तस्वीरें. उनके बेटे और प्रख्यात सरोद वादक अली अकबर ख़ान और पंडित रविशंकर.

बाबा के शिष्यों की सूची तो यहाँ बस शुरु होती है, इसमें जुडते जाते हैं नाम, बांसुरी वादक पन्नालाल घोष, उनकी बेटी अन्नपूर्णा देवी जिन्होंने पंडित रविशंकर से शादी ही नहीं की बल्कि उन्हें सिखाया भी और पंडित हरि प्रसाद चौरसिया.

बाबा अलाउद्दीन खां ने केवल इन महान संगीतकारों को ही नहीं संवारा बल्कि मैहर को संगीत की ऐसी परंपरा दी जो आज भी क़ायम है.

वाद्य वृंद

मैहर वाद्य वृंद अपनी तरह का अनूठा ऑर्केस्ट्रा है. इसकी स्थापना का भी क़िस्सा है. डॉक्टर कैलाश जैन बताते हैं कि 1918-19 में मैहर में प्लेग की महामारी फैलने से कई लोग मारे गए और कई बच्चे अनाथ हो गये.

बाबा ने इन बच्चों को अपने घर में इकट्ठा किया और उनके गुणों के अनुसार उन्हें किसी ना किसी वाद्य को बजाने की शिक्षा दी और इसी तरह अस्तित्व में आया मैहर वाद्य वृंद.

बाबा अलाउद्दीन खां ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ पश्चिमी शास्त्रीय संगीत भी सीखा था और क्लेरनेट, वायलिन और चेलो जैसे पश्चिमी वाद्यों को अपने वाद्यवृंद में शामिल भी किया.

उन्होंने बंदूकों की नाल से एक अनूठे वाद्य नलतरंग का आविष्कार किया. हमने मैहर वाद्द वृंद के एक सदस्य जीपी पांडे से भी मुलाक़ात की और जानना चाहा क्या ख़ूबी है इस ऑर्केस्ट्रा की.

जीपी पांडे कहते हैं कि यह ऑर्केस्ट्रा आज भी बाबा की सैंकड़ों रचनाओं को ऐसे ही बजाता है जैसे बाबा के समय में बजाया जाता था.

यानी हर वाद्य से एक साथ एक ही सुर निकलता है और शायद यह एक मात्र ऐसा ऑर्केस्ट्रा है जिसमें वादक बिना नोटेशन या स्वरलिपि के बजाते हैं.

Tuesday, October 5, 2010

मौत का सफर

यह पीपली लाइव नहीं बल्कि एक गुमनाम मौत की कहानी है। 30 मिनट तक मौत से जूझते व्यक्ति की कहानी..। पीपली लाइव का नत्था भी व्यवस्था का शिकार था और उत्तरप्रदेश के बरेली निवासी इस गुमनाम की भी दास्तां कुछ ऐसी ही है। नत्था तो बच जाता है लेकिन इस कहानी के पात्र नत्था (काल्पनिक नाम) की मौत हो गई है। प्रशासनिक अफसरों की बेफिक्री और लापरवाही.. का ही नतीजा था कि दर्जनों तमाशबीन के सामने वह पानी में समाता गया और कोई कुछ नहीं कर सका। प्रशासन से आधी-अधूरी मदद भी तब मिली, जब उसकी सांसें थम गई थीं।

मौत से बेखबर



वक्त-शाम पांच बजे। स्थान-बदायूं रोड पर करगैना रोंधी मिलक की पुलिया। आमतौर पर यहां से करीब आठ किलोमीटर दूर बहने वाली रामगंगा इलाके में कहर बरपा रही थी। लोगों की भीड़ बाढ़ के नजारे देखने के लिए जुटी थी। बदायूं रोड पूरी तरह बंद थी। सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस रोंधी मिलक पुलिया के समीप तैनात थी। इसी बीच पानी की लहरों को चीरते हुए महेशपुरा की ओर से शहर की तरफ तीन ग्रामीण आते दिखे। तीनों ही अनजान थे। 30 साल के आसपास की उम्र के नत्था केसिर पर पोटली भी थी। उन्हें देखकर पुलिया पर कुछ हलचल हुई लेकिन तब तक तीनों ही पानी के तेज बहाव से घिर चुके थे।

बचाओ.. बचाओ..


वक्त- शाम 5.05 बजे। तीनों के सामने कोई रास्ता नहीं था। लिहाजा वे खतरा भांपने के बाद भी आगे ही बढ़ते रहे और इधर पुलिया पर मौजूद लोगों की धड़कनें बढ़तीं गई। आखिर में वही हुआ, जिसकी आशंका थी। किनारे पर पहुंचने से पहले अचानक सिर पर गमछा बांधे और कंधे पर पोटली रखे नत्था का पांव फिसला और वह पानी के तेज बहाव में बहने लगा। संभवत: नत्था तैरना नहीं जानता था। उसकी आंखों के सामने मौत नाच रही थी। फिर भी उसने जिंदगी की जद्दोजहद के बीच खुद को बचाने के लिए गुहार लगाई। तेज धार की गड़गड़हाट के बीच आधा किलोमीटर दूर खड़े लोगों को उसने मदद के लिए पुकारा। बचाओ.. बचाओ.. की आवाज गूंजी। अफसोस, कोई उसकी मदद की हिम्मत नहीं जुटा सका।


चलो जल्दी करो


शाम-5.16 बजे। सूरज डूब रहा था। प्रशासन की तरफ से कोई नहीं आया। फिर मिलक गांव के कुछ युवकों ने हिम्मत जुटाई और डूबते नत्था को बचाने के लिए पानी में कूद गए।


उम्मीद की किरण


करीब पांच मिनट तक तेज धार से जूझने के बाद युवक पानी में डूब रहे नत्था के पास पहुंचे। दूर से टकटकी लगा नजारा देख रही भीड़ की सांसों में सांस आई। एक उम्मीद की किरण जागी की शायद अभी भी जिंदा हो नत्था।


बढ़ते कदम


बहादुर युवकों ने नत्था को तुरंत ट्यूब में लिटाया और बिना समय गंवाएं बढ़ चले सुरक्षित किनारे की तरफ।




आखिर निशां



..लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी..। नत्था को जिला अस्पताल ले जाया गया, लेकिन डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। इस तरह बरेली का नत्था जिंदगी की जंग हार गया और बाकी बचे रहे गए निशान। बाढ़ के पानी में बहती नत्था की चप्पल।


Sourse: दैनिक जागरण