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Friday, December 27, 2013

बस्ते का बोझ

पांच वर्ष का रोहन रोता हुआ, अनमना सा,पीठ में भारी बस्ता लिए, थोडा झुका हुआ, मम्मी के साथ ,स्कूल जाने के लिए रिक्शे वाले का इंतजार कर रहा था और शायद मन में ये कहता,                                                                            "नहीं मम्मीमुझे स्कूल नहीं जाना... मेरे बस्ते का बोझ कुछ कम करो" पर उसे तो रोज स्कूल जाना होता ही था

थोड़ी देर में रिक्शा वाला भी आ गया जो अपने रिक्शे में क्षमता से ज्यादा बच्चे पहले से ही बिठा कर लाता और यहाँ से रोहन को ले जाता। इस बात को रोज एक चाय वाला देखता और रिक्शे वाले को देख परेशान हो जाता...

         एक दिन चाय वाले ने रिक्शे वाले से पूछा की, " तुम रोज अपनी क्षमता से ज्यादा बच्चे रिक्शे में ले जाते हो, क्यों अपनी जवानी वक्त से पहले ख़राब कर रहे हो ?"

रिक्शे वाला कुछ नहीं बोल मुस्कुराया और चल दिया...

      फिर वही रोज रोहन का रोना और रिक्शा वाला आता जाता रहा ...

आखिर एक दिन चाय वाले ने जबरजस्ती करके रिक्शे वाले से फिर वही सवाल कर दिया,

"इतना बोझ क्यों उठाते हो?"

इस बात को सुन रिक्शे वाले ने लम्बी आह भरी और जवाब दिया, ...

 "जब पांच साल का बच्चा लगभग दस किलो का वजन रोज उठाता है,  तो मै इनका वजन क्यों नहीं उठा सकता, ये तो किताबो के चाबुक के बीच अपना बचपन गवां रहे है,  मै तो सिर्फ आधी जवानी ही गवाऊंगा"

नए साल में कुछ नया हो

आप सभी को नए वर्ष कि हार्दिक शुभकामनाये और ढेरो बधाइयाँ । ये बधाइयाँ नए वर्ष के आने के पहले इसलिए क्यों कि दो दिन बाद कुछ  कम्पनियां आपसे बधाई देने का भी पैसा मागेंगी, हम पहले से दे रहे है, फ्री का है ले लो कल मिले न मिले ! हब हर साल नया साल आता है, सब वही पुराना आता है और चला जाता है चलो इस बार कुछ नई कल्पना की है |

हम पिछले कई बरसों से दंगे, आगजनी, गोलीबारी, कत्ले-आम झेलते आ रहे है । कम से कम इस बरस तो ऐसा न हो और अगर कोई करता भी है तो पहले उनका बीमा कराए जो इनकी चपेट में आते हैं जिससे सरकार पर मुवावजे का बोझ न बढे !

प्रभु करे  सभी आतंकी मुख्य धारा में लौट आएँ। (मैं भारत सरकार से प्रार्थना करूँगा कि उन्हें नागरिकता दे और चुनाव लड़ने का अधिकार भी।) बड़े और दबंग देश कम से कम इस वर्ष तो दूसरों के मामले में टाँग अड़ाना बंद कर दें और दूर-दराज के छोटे-छोटे देशों को उनके हाल पर छोड़ दें। सबको अपने-अपने तरीके से जीने का हक है। इस साल से लोग भारतीय पेय ही सर उठा कर पियेंगे जिससे पेप्सी और कोला भारत से लौट जाएंगे । अब बाकी क्या बचा है। ग्लोबल कंपनियाँ कुछ उत्पाद और रोज़ी-रोटी कमाने के मौके तो स्थानीय बाबा या उत्पादकों के लिए भी छोड़ दें।चीन ने अब सब कुछ सुई से लेकर जहाज तक नकली और सस्ता बना और बेच कर दिखा दिया। कुछ दिन वे लोग आराम भी कर लें। (फुर्सत में इंडियन फ़िल्में देखें।) भारत को अब और डंपिंग ग्राउंड बनाने से बख़्शा जाए।

अमिताभ बच्चन और सचिन तेंडुलकर एक आध विज्ञापन दूसरों के लिए भी छोड़ दें। क्रिकेट को कम से कम एक वर्ष के लिए भारत में बैन कर दिया जाए ताकि हम दूसरे ज़रूरी काम भी निपटा सकें।अनिवासी भारतीय देश की संस्कृति, परंपरा और मिट्टी के लिए घड़ियाली आँसू बहाना बंद कर दें और बदले में अपने ज्ञान, अनुभव और हुनर का सिर्फ़ एक प्रतिशत भारत को लौटाने की सोचें। हमारा ज़्यादा भला होगा। (उन्हें भी ज़्यादा मानसिक और आत्मिक शांति मिलेगी।)

हर पैर को जूता मिले, हर जूते को पालिश मिले और हर पालिश वाले को काम मिले।
लोकल ट्रेन समय पर आए, उसमें घुसने भर को जगह मिल जाए, खिड़की वाली सीट मिले। (झगड़ा न हो, जेब न कटे) वेतन मान बढ़ें, एरियर्स मिलें। (बीवी को पता न चले)
राम को घर मिले और हर लड़की को बिना दहेज वर मिले।हर हाथ को काम मिले और हर काम का दाम मिले।दहेज और रिश्वत लेने वालों के हृदय परिवर्तन हों। (लेकिन देने वाले पहले की तरह देते रहें) ।एस. एम. एस. करने वाले भी सीखें कि जीवन के सारे कारोबार एस. एम. एस. से नहीं निपटाए जा सकते।

हालाँकि पहले से तय है कि इस साल भी हमारी किस्मत में वही कुछ बदा है जिसके हम बरसों से आदी रहे हैं। अख़बारों में (जीवन में भी) वही बलात्कार, भ्रष्टाचार, चोरी, हत्याओं और कुकर्मों की ख़बरें रहेंगी, घोटाले होते रहेंगे, अपराधों की जाँच करने वाले वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ही अपराधों के दोषी पाए जाते रहेंगे, लेकिन आँच किसी भी दोषी के चेहरे पर नहीं आएगी। अख़बार वाले चाहे जितने पन्ने काले कर लें, कालिख किसी भी दोषी के चेहरे तक नहीं पहुँच पाएगी।

इस देश में ग़रीब की भी सुनवाई हो और उसे भी इंसान का दर्जा दिया जाए।
जीवन जीने लायक लगे।कुछ तो अच्छा लगे, कुछ तो प्यारा लगे।जीवन में कुछ तो रस बचा रहे।
देश अपना-सा लगे और यह वर्ष, यह वर्ष भी ठीक-ठाक गुज़र जाए।

Wednesday, December 18, 2013

अंजन कौन सजाएगा

 

राह घायल से सब कतरा के निकलते रहे,

उन्हें सलामत अस्पताल कौन पहुचाएगा.

 

तुमने गरीबी की रेखा खींच तो ली है,

फुटपाथ वालो  को इसमे कौन लाएगा.

 

यह गूंगों- बहरों की बस्ती हो चुकी है,

घात में बैठे दरिंदो से कौन  बचाएगा.

 

कोख से बच निकली बच्ची खुश तो है,

पर दहेज़ के जालिमो से कौन छुड़ाएगा.

 

ये घोटालो का मुल्क हो चूका है, मेरे यारो,

उजले कपड़ो में सयानो से कौन बचाएगा.

 

 

रह-रह कर नम हो जाती है, सभी की आँखे,

आँखों में अब अपने, 'अंजन' कौन सजाएगा.

 

Tuesday, December 17, 2013

कोई नाज हो जैसे


अब जिंदगी ऐसे ठिठुरने लगी, पूस की रात हो जैसे

वो याद आया तो आँखे नम लगी, कल की बात हो जैसे

गुम था, उसकी यादो की तपन में सारी रात बिताया मैने

ना बताया रिश्ता लिबास सा क्यों उतारा, कोई राज हो जैसे

अक्सर खुला रहता है, सुबह-शाम दरवाजा उस बदनाम का

उसके लिए हिन्दू-मुस्लिम, जात-पात कोई बकवास हो जैसे

इन गरीबो की दीवारों में, पलस्तर कब लगाएगी जिंदगी

हर शाम हवाए दीवारों ऐसे घुसती है, की कोई खास हो जैसे


       





आँखों के फूल खिलकर, खुद-ब-खुद शाख से गिर जाते है
तुमको गए हुए दिन हो गए, लगता है, की आज हो जैस
मेरे जाने के बाद भी खुदा हमेशा सलामत रखे, तुझे ए बेवफा
बेवफाई में अंजन आज भी जिन्दा है,  की कोई नाज हो जैसे



Friday, November 29, 2013

-: मुझे उस ज़माने में ले चलो :-


जब ,
दहेज न मिलने पर भी लोग ...
बहुओं को जलाते नहीं थे 
बच्चे  स्कूलों के नतीजे आने पर 
आत्महत्या नहीं करते थे 
बच्चे चौदह-पन्द्रह साल तक
बच्चे ही रहा करते थे 

जब
गांव में खुशहाल खलिहान, हुआ करते थे 
मशीनें कम,  इंसान ज्यादा हुआ करते थे 
खुले बदन को टैटू, से छुपा रहे है लोग
बंगलो से ज्यादा संस्कार हुआ करते थे

जब 
सयुंक्त परिवार में सब एक साथ रहा करते थे 
आर्थिक उदारीकरण, को कम लोग पहचानते थे
तब मानवाधिकार, को कम लोग ही जानते थे

अब
मुझे उस ज़माने में ले चलो, जहा
समय के साथ जमाना बदला न हो

सधन्यवाद ! 
विवेक अंजन श्रीवास्तव

बरसात :एक लघुकथा

श्यामलाल को पत्थरों से नहर की दिशा बदलते देख एक राहगीर ने आश्चर्य से पूंछा, "अरे भईया ये नहर तो सीधी है, फिर आप इसकी दिशा क्यों बदल रहे हो"
राहगीर की तरफ देखकर,थोडा नाराजगी भरे स्वर में श्याम लाल ने उत्तर दिया,…
       "भैया आंगे बढ़ो, तुम न समझोगे।ये कच्ची नहर है ,बांध का पानी भी खतरे के निशान से ऊपर है, अगर कही लगातार बारिस होने से बांध का पानी छोड़ा गया तो सबसे पहले ये नहर टूटेगी और मेरा मकान बहेगा "
राहगीर, "पर भैया आपका मकान तो ऊपर है, इस तरह से आपके पडोसी का मकान बह गया तो"
        "बहने दो अपने को क्या ?.. अपना तो बचा रहेगा ! "
ये बात सुनकर चिंतित राहगीर ने बस इतना कहा, "पडोसी के दर्द को अपना दर्द समझो, मुसीबत आप पर भी पड़ सकती है" और आंगे बढ़ गया
अगले दो तीन दिनों तक बारिश होती रही...    फिर एक दिन श्याम लाल का लड़का, माँ से पडोसी के बच्चे के साथ रात में पढ़ने को जिद करने लगा और मां भी बच्चे की जिद को मान गई,  बोली अपने पापा को बोलो छोड़ आये | 
ये बात सुनकर पहले तो श्याम लाल कुछ  घबराया फिर अपने लडके को छाता लेकर पडोसी के घर छोड़ आया |
       संयोगवस रात भर बारिस होती रही और सुबह बांध का पानी छोडा गया
चारो तरफ चीख पुकार और भगदड़ मच गई बाहर निकल कर श्यामलाल ने देखा तो उसके पडोसी का मकान पानी में बह रहा था,  लडके के बारे में सोच कर उसके पैरो से जैसे जमीन  खिसक गई वो इधर उधर भागा पर अपने लडके को नहीं पाकर रोने चिल्लाने लगा...
कुछ देर बाद प्रसाशन के कुछ लोग आये और बताया की थोड़ी दूरी पर ही कुछ लोग पेढ़ में फस गए थे, बचा लिए गए है ।
दौड़ता हुआ श्यामलाल उस जगह गया और अपने लडके को देख अति प्रसन्न हुआ ।
अपने लडके को गले लगाते ही उसे राहगीर की बात याद आ गई और सोचने लगा, 'अपनी सुविधा हेतु कोई काम करने से पहले अपने पडोसी को होने वाली परेशानी का ध्यान रखना चाहिये'
एक ओर बादल बरस रहे थे, वही दूसरी तरफ श्यामलाल के आंखो से पश्चाताप की बरसात हो रही थी ।    
           
सधन्यवाद :
विवेक अंजन श्रीवास्तव
सरलानगर,मैहर सतना (म.प्र.)

  

Monday, July 8, 2013

हम बिखर क्यों रहे हैं?



              ये सवाल बहुत दिनों  से उभर रहा था कि हम बिखर क्यों रहे हैं? हम चित्रगुप्त की संतान और अपने बारह  भाइयों के परिवार को तोड़कर क्यों अलग अलग गुट बना रहे हैं? क्या हम भी राजनीति का शिकार हो रहे हैं? ऐसा कोई पिता तो नहीं चाहता है कि हमारे ही बच्चे अपने परिवार से टूट कर अलग अलग बिखर जाएँ.
                 
रोज ही कहीं न कहीं कुछ देखने को मिल जाता है --
"
सक्सेना समाज" की मीटिंग.
"
माथुर समाज" के सांस्कृतिक कार्यक्रम.
"
निगम समाज" के कार्यों पर प्रकाश.  
             
इसी तरह से और भी बन्धु अपने समूह को एकत्र करके कुछ किया करते हैं. क्या इससे हमारे बीच की दरार नहीं दिख  रही है. जब हम आज से दो पीढ़ी पहले कट्टरता की हद से गुजर रहे थे. अपने ही बड़ों को कहते सुना था कि श्रीवास्तव के शादी श्रीवास्तव में ही होनी चाहिए , ये हमसे  नीचे होते हैं और हम ऊँचे होते हैं. वह मानसिकता अब जब बदल चुकी है तब हम क्यों इधर उधर बिखर रहे हैं. अब हम सभी भाइयों को एक स्तर पर रख कर बात करते हैं और सबको बराबर सम्मान देते हैं. अब तो शादी में भी ऐसा कोई व्यवधान हम नहीं देख रहे हैं फिर क्यों हम अलग अलग समाज की बात कर रहे हैं. 
            
ये शिकायत हम कहाँ करने जायेंगे? ये कायस्थ परिवार पत्रिका है और इसमें ही हम अपनों के एक साथ चलने और सोचने का आग्रह कर सकते  हैं और अगर हम कहीं बिखर रहे हैं तो उनको एक साथ लेकर चलने की बात कर सकते हैं.

Wednesday, May 22, 2013

कभी साहिल रही .

शुक्र है, हिम्मत मेरी , इस काबिल रही
वजूद की लड़ाई में, हमेशा शामिल रही  
अक्सर,मेरे साथ कमजोरियों,पे तनकीत है 
जिंदगी कभी मझदार, तो कभी साहिल रही  .

अंजन कुछ दिल से 

--

 

Tuesday, April 9, 2013

साहित्यिक पत्रिका : शब्द शिल्पी में प्रकाशित मेरा एक व्यंग लेख

अतिक्रमण का  अधिकार

व्यंग लेख

हमारे संविधान के तीसरे भाग के अनुच्छेद 12 से 35 तक में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है,  जैसे  समानता का अधिकार ,शोषण से रक्षा का अधिकार और विचारो की अभिव्यक्ति का अधिकार  आदि| कुछ और भी मन चाहे अधिकार है ,जिन्हें संविधान में जगह नही मिल पाई है जबकि हम उनका भरपूर उपयोग कर रहे है जैसे पान थूकने का अधिकार,गाली देकर बात करने का अधिकार ,सरकार को  गाहे  बगाहे कोसने का अधिकार आदि लेकिन इन सब अधिकारों के बीच एक और अधिकार है " अतिक्रमण का  अधिकार " | हमारे यहाँ के कल्लू हलवाई,गोलू चाय वाले से लेकर बड़े बड़े मंत्री,व्यापारी, संस्थानों को ये अधिकार प्राप्त है  और इसका उपयोग हमारे बजरंगी पान वाले से लेकर  पटना में गाँधी मार्ग के बब्बन सेठ तक को ये अधिकार प्राप्त है | कई बड़े जिले में तो इसका इतना उपयोग हो गया है कि विकास कार्य ही ठप हो गया है.जाम की समस्या से निजात पाने के लिए बनाये जाने वाले उड़न-पुल , ऊपरी पुल या उनके लिए बनाये जाने वाले बगली-रस्ते के लिए जगह ही नहीं मिल रही है|जगह-जगह ,अतिक्रमण की नीयत से मंदिर या मस्जिद और मजार बना दिए गए हैं|

तो फिर  इस अधिकार की ज्यादा जानकारी के लिए चलते है अपने  "कहीं भी पान थूको शहर" में| यहाँ हर वर्ग को यह अधिकार प्राप्त है  जिस भी व्यक्ति के पास अपना मकान या दुकान है वो उसके आगे खाली पड़ी जमीन जो की सरकारी है,  को अपनी अब्बा की जमीन  समझकर  कर उपयोग में लेने लगता है | किसी स्थान या अन्य रोजगार के आभाव में ठेले या खोमचे लगाये सुबह से ही  बाजारों और चौराहों में अतिक्रमण के अधिकार के प्रयोग करने लोग जुटने लगते है, जैसे मुन्ना मोची,पप्पू पानवाला,मिश्रा जी ढूध वाले आदि | कोई कही भी कैसे भी दुकान लगा ले, सब राम राज्य ही है ! आम-जन भी कम नही है अपने इस अधिकार का उपयोग करते हुये कही भी अपने दो पहिया ,चार पहिया खड़े कर गर्व महसूस करते है और व्यवस्था को गाली देते है | ये अधिकार कुछ लोग कम समय के लिए करते है और कुछ खानदानी है, अब रामू समोसे वाले की ही बात कर लो इनको बब्बा के ज़माने से ये अधिकार प्राप्त है | इसी दुकान से लडके की छठी तक पढाई,शादी और अब मकान निर्माण भी हो चुका है, पहले रामू समोसा वाला था अब रामू सेठ हो चूका है | लेकिन हमारे  कल्लू भाई ठहरे साधारण आदमी क्या करे ? तो इस अधिकार के प्रयोग के लिए अपनी और मोहल्ले की गायभैंसे सुबह  मुख्य मार्ग तक छोड़ आते है और शाम होते ही ले आते है ,इस तरह मन का संतोष हो जाता है कि  हम भी किसी से कम नही | हर तरफ जहां देखो, जिसे देखो वो  अतिक्रमण के  अधिकार  का  

 

 

फायदा ले रहा है परन्तु ये एक अनैतिक अधिकार है, जो की सबको मालूम है | इसका प्रयोग अब बीमारी की तरह हो चला है जिसका इलाज कभी कभी नगर-निगम या नगर-पालिका,पुलिस,जन-बल के साथ अभियान चला कर करती है ,पर ये उपचार कभी कभी होता है क्यों की इस बीमारी में सबका हाथ होता है नीचे से लेकर ऊपर वाले तक का | अब मान लो कभी कुछ काम ना मिला तो कभी कभी सरकारी अमला  ये भी कर लेते है 'अतिक्रमण हटाओ अभियान' वो भी  एक दिन में  पूरे शहर में तबाही मचा कर, पूरी बीमारी ठीक  | चारो तरफ शोर,कोहराम मच जाता है | जो नेता, मंत्री एवं समाजसेवी, कभी मंदिर-मस्जिद झांकने नही जाते  वो सभी एक साथ पुर जोर विरोध में लग जाते है , कि मंदिर नही हटेगा जबकि उस मंदिर के पीछे ही अनैतिक दुकाने चल रही होती है  | और….. फिर कुछ दिन बाद वही जहा का तहां

अतिक्रमण रूपी अधिकार एक महामारी की शक्ल ले चुका है इससे पहले की ये लाइलाज बीमारी बन जाए इसके लिए सरकार व आम नागरिक को अपना कर्त्तव्य समझकर इस आदत का परित्याग कर देना चाहिएअन्यथा जब सरकारी अमला डंडे की भाषा में समझाएगा तो विरोध भी काम नहीं आएगा.और सरकारनगर पालिका तथा नगर निगम को भी इस तरह की गतिविधियों पर समय रहते अंकुश लगाना चाहिए.. इसके साथ ही सरकार को सोये नहीं रहना चाहिए बल्कि जहाँ भी अतिक्रमण हो रहा हो उसे समय रहते रोके और समय समय पर सरकारी जमीन का निरिक्षण व आकलन करते रहे  ,  अभी मै निकलता  हूं , शायद मेरी कार भी बीच  रोड़ में खड़ी है 

 

विवेक अंजन श्रीवास्तव 

सरलानगर, मैहर 

9424351452

 

 

Sunday, March 10, 2013

चलो हम भी गंगा नहा आयें

चलो हम भी गंगा नहा आयें

व्यंग लेख

कल शाम रेलवे स्टेशन के बाहर महाराज जी मिल गए हमने पूछा महाराज कहाँ ? वो  बड़े  गर्व  से  बोले गंगा स्नान को जा रहे है !हमने अचरज से फिर एक प्रश्न दाग दिया ये क्या है ? जवाब आया बहुत ही काम की चीज है,जीवन धन्य हो जाएगा ! हम भी ठहरे UP के ठेठ ,हमारे मन में भी आतुरता जगी और हमने हाथ जोड़कर कहा .. श्री महाराज जी हमें गंगा स्नान के बारे में विस्तार से बताये ये कब किया जाता है? और इसके करने से क्या लाभ प्राप्त होता है? क्या इस स्नान की कोई विशेष पूजन विधि भी है? इस स्नान को करने कौन-कौन जाता है इस तरह के नम्र निवेदन के बाद महाराज जी बोले अरे आपको इतना नहीं मालूम हिंदू मान्यताओं के मुताबिक कुंभ के पवित्र स्नान से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं। यह भी कहते हैं कि कुंभ में नहाने से सौ गंगा स्नान का पुण्य मिलता है। फिर कुंभ अगर 144 साल बाद वाला खास हो तो उसके तो कहने ही क्या। निश्चित रूप से उसमें तो हर किस्म के पाप धुल ही जाते होंगे।तीर्थराज प्रयाग में स्नान, दान और यज्ञ का बड़ा महत्व है। पुराणों में कहा गया है कि गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर किया गया दान परलोक में या जन्म-जन्मांतर तक कई गुना होकर दानकर्ता को प्राप्त होता है। रही बात आने जाने की तो,हमारे नेता और अभिनेता, सारे के सारे अचानक जाग गए हैं। कुंभ जा रहे हैं। गंगा में नहा रहे हैं और पाप बहा रहे हैं। सास जैसे पवित्र रिश्ते को खलनायिका के अवतार में परोसनेवाली फिल्म निर्माता एकता कपूर कुंभ नहा आई। लगातार सत्ताइस किस करने के बावजूद एक सांस तक न लेनेवाले अभिनेता भी नहा आये  । इसको करने की कोई पूजन विधि तो नहीं है, आप भी लाभ उठाइए इस बार इलाहाबाद  में गंगा किनारे  महाकुंभ  मेला लगा हुआ है ,देश विदेश से लाखो करोडो लोग पहुच रहे है,सरकार ने भी काफी व्यवस्था की है, इतना कहते ही वहा पर कई लोकल भक्त जमा हो गए और गंगा स्नान का विवरण सुनने लगे.... और फिर हमने एक प्रश्न पूछा की महाराज किस तरह के पाप धुलते है इसको करने से....फिर वो थोडा दिमाक में जोर डालते हुए बोले मान्यवर..आप सुबह से शाम तक जो भी कृत्य करते है वो सभी कही न कही इसकी श्रेणी में आते है जैसे जैसे उदाहरण के लिए पराये धन-तन से प्रेम,दूसरो को परेशानी में देख मलाई खाना ,किसी अधिनस्थ के पैसो से मौज किया आदि इस तरह से मनुष्य जाने अनजाने में कई गलतियाँ और पाप करता है, जो की गंगा स्नान करने से प्रभावित नहीं करते |

अचानक एक टपोरी महराज को धक्का देकर आंगे बढ़ गया,उपरांत महाराज ने विस्वामित्री मुद्रा में लोकल और बिहारी भाषा के ह्रदय विदारक शब्दों का प्रयोग किया,और कहा गंगा मैया हमें माफ़ करना..फिर चाय वाले कि आवाज आई महराज पिछला और आज का बिल मिलाकर कुल 25  रुपये हुए.इतना सुनकर महाराज बोल पड़े अरे पिछला कब का हम तो सिर्फ आज का ही देंगे पता नहीं किसका किसका जोड़ लेते हो डरो भगवान से।      

अचानक एक सुकोमल आवाज सुनाई दी 'इटारसी से चलकर इलाहबाद को जाने वाली मेला स्पेसल गाड़ी प्लेटफॉर्म 2 पर आ रही है,तभी महाराज ने हमें अलविदा कहकर आंगे बढ़ गए..उन्हें खाली हाथ देखकर हम उत्सुकतावस बढे और पूछे महराज टिकट न लेंगे ,वो मुस्कान फेरते बोले अरे आप भी न !  अब इतने पाप धोने जा ही रहे है तो ये भी सही| हमारा दिमाक भी घूमा,गंगा स्नान का जितना जोरदार प्रचार करके उसका राजनीतिक और व्यापारिक लाभ लेने की कोशिश की जा रही है, उससे साफ लगता है कि मंशा उनकी पुण्य कमाने की तो कतई नहीं है। महाराज जी के बारे में अपन कतई नहीं जानते कि उन्होंने क्या पाप किए, सो कुंभ नहाने जाये। पाप अपने से भी हुए होंगे, पर कुंभ नहाने आज तक कभी नहीं गए। जाने में भी डर है कि नेताओ और चुम्बन गुरु के नहाए पानी में नहाने से कहीं उनके पाप अपने पर न चढ़ जाएं,लेकिन जब पूरा देश ही एक ओर कु-व्यवस्था में भेड़ चाल चल रहा है,मजे ले रहा है,तो फिर गंगा स्नान तो पुन्य का काम है क्यों  न करे ? चलो हम भी गंगा नहा आयें।  

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विवेक अंजन श्रीवास्तव 

सरलानगर, मैहर