Pages

Friday, July 29, 2011

चित्रकूट दर्शन

एक ऐसी तपस्थली जहां की मिटृी पहाडों , वनों और झरनों की खुशबू देश विदेश के योगियों ,़ऋषियों और श्रद्वालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती रही है । विचित्रत्राओं के परिवेश में पल्लवित होती धरा का नाम पुराने जमान में ही चित्रकूट दे दिया गया था । इस धरा पर आने वाला सैलानी यहां देखे जाने वाले नयनाभिराम द्श्यों को देखकर आनंदित हो उठता है । विचित्रताओ और विभिन्नताओं वाले इस क्षेत्र पर कही कल-कल करती मंदाकिनी का सुन्दर जल है तो कही विध्य पर्वत श्रंखलाओं का उन्मुक्त यौवन विखेरती पहाडियां हैं तों कही सुन्दर गुफाओं में मौजूद नायाव नमूने हैं तो कही किलोमीटरों में फैले विशालकाय जंगल हैं । पर्यटक उन्हें देखकर अपनी सद्द बुध विसरा देता है । देश में मौजूद अन्य पर्यटन केंन्द्रो की तरफ जाने वाले लोगों में जहां सिर्फ तफरीह और सुन्दर दृश्यों को देखने की प्रवृत्ति होती है वही यहां आने वाले के मूल में धार्मिकता के दर्शन होते है। प्रकृति की अनमोल धरोहरों से आनंदित होता व्यक्ति जब सुबह उठते ही साथ बम-बम भोले और जयश्रीराम के उदघोष घंटा घटियालों के साथ सुनता है तो वह रोमाचित होकर धर्म की इस नगरी में आकर अपने आपको पुष्य का सबसे बड़ा भागी मानता है।

चित्रकूट की यात्रा प्रारंभ होती है मंदाकिनी और पयस्वनी के संगम स्थल रामघाट से यहां श्रीराम ने अपने पिता दशरथ का पिण्ड तर्पण यिका था। स्नान करने के बाद चित्रकूट के महाराजा धिराज 1008 मतगजेन्द्र नाथ जी स्वामी के रूद्रभिषेक पर जल चढाकर यात्रा की शुरूआत की जाती है। मंदिर में चार रूद्रवतार भगवान शंकर की मूर्तियां प्रतिष्थपित हैं। आदिकाल की मूर्ति स्वंय सृष्टि रचयिता बृहमा जी द्वारा स्थापित की गई थी उन्होंने भगवान शंकर शापित होने पर 


श्री वाल्मीकि आश्रम
यह स्थान चित्रकूट से कर्वी इलाहाबाद मार्ग पर 32 कि0मी0 पूर्व स्थित है। यहाँ श्री वाल्मीकि जी का आश्रम है। कहा जाता है कि श्री वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना यहीं पर की थी, जो कि संस्कृत भाषा का आदि काव्य माना जाता है।

वनवास के समय भगवान श्रीराम यहाँ आकर श्री वाल्मीकि जी से अपने निवास के लिए स्थान पूॅछा, तो श्री महर्षि जी ने चित्रकूट में रहने के लिए निर्देश किया था- जैसे श्री तुलसीदास जी मानस में कहा है-

चित्रकूट गिरी करहु निवासू।
जहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू।।

यहाँ पर एक छोटी सी पहाड़ी है, जिसमें देवी जी की मूर्ति है। यहाँ भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए संस्कृत विद्यालय भी है।

गणेश बाग
चित्रकूट धाम कर्वी से लगभग 3 कि. मी. दूर दक्षिण की ओर गणेशबाग स्थित है। यह स्थान श्री वाजीराव पेशवा के शासन काल निर्मित हुआ था, और उन्हीं के पारिवारिक लोगों के मनोरंजन का साधन रहा। इसके स्थापत्य कला को अवलोकन करके यह मालुम पड़ता है कि पेशवा के काल में स्थापत्य कला अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुकी थी।

इसमें खजुराहो शैली पर आधरित काम कला का विस्तृत चित्राकंन है। यह तत्कालीन पेशवा नरेशों की मानसिकता की देन है, संभवतः पेशवा नरेशों ने अपने आमोद-प्रमोद के लिए निर्माण कराया हो। पंच मंजिलें के समूह को पंचायतन कहते है। इस पंच मंजिले मन्दिर के शिखर पर काम कला के बहुत से भितिं चित्र खोदे गये है। कुछ स्वतन्त्र मैथुन मुद्रा में हैं, तथा कुछ पुराणों एवं रामायण पर आधारित हैं। यहाँ काम, योग तथा भक्ति का अद्भुत सामन्नजस्य देखने को मिलता है।

मन्दिर के ठीक सामने एक सरोबर है, जिसके ऊपर मन्दिर की ओर स्नान के लिए एक हौज है, जिसमें दो छिद्रों से पानी आता है, मन्दिर में फानूस में लगे हुए लोहे के हुक आज भी कला-कृति एवं साज-सजावट की दस्तान बताते हैं। मन्दिर से कुछ हटकर पंचखंड की वावली है, जिसके चार खण्ड भूमि-गत हैं। ग्रीष्म ऋतु में जलस्तर कम होने पर तीन खंडों के लिए रास्ता जाता है।

"कर्वी" पेशवाकालीन राजमहल (वर्तमान कोतवाली) से गणेश बाग तक गुप्त रास्ता है, जो पेशवाओं के पारिवारिक सदस्यों के आने-जाने के लिए प्रयुक्त किया जाता था। यदि इसे छोटा खजुराहो कहा जाय तो अतियोक्ति न होगी।

कोटि तीर्थ
यह स्थान रामघाट से पूर्व 6 मील दूर सड़क पर्वत पर स्थित है। यहाँ पर एक कोटि मुनीश्वर श्रीराम जी के दर्शनार्थ तप करते थे, उनके ऊपर प्रसन्न होकर श्रीराम जी ने सबको एक साथ दर्शन दिये। यहाँ पर एक शिवजी का मन्दिर है। इस स्थल को सिद्धश्रम कहते हैं। अग्नि, वरूण, सूर्य, चन्द्र, वायु आदि अनेक तीर्थी के होने से इसे कोटि तीर्थ कहते हैं।

देवांगना
कोटि तीर्थ से लगभग 1 कि0मी0 दक्षिण की ओर पर्वतीय मार्ग पर यह स्थान है। यहाँ देवकन्या ने अपार तप किया था। भगवान राम जी उसे दर्शेन दिये थे, इसके सम्बन्ध में कई तरह ी जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। यह देवकन्या जयन्त की पत्नी श्री, जयन्त का चरित्र स्फटिक शिला के परिचय में दिया गया है। देवकन्या की स्मृति में निर्मित यह स्थान आज भी अपना आलोक विखेर रहा है। यहाँ लाखो नर-नारी दर्शन के लिए आते हैं और अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं।

सीता रसोई
यह स्थान विन्ध्य पर्वत पर हनुमान धारा के ऊपर स्थित है। इसका पुराना नाम जमदग्नि तीर्थ है। भगवान राम एवं लखनलाल जी के लिए माँ जानकी जी ने इस स्थान पर फलाहार तैयार किया था, ऐसी किंवदन्ती है, अतः इस स्थान को सीता रसोई के नाम से जाना जाता है।

हनुमान धारा
यह स्थान मन्दकिनी गंगा से पूर्व 3 मील दूरी पर विन्याचल की श्रेणी में स्थित है। कहा जाता है कि लंका को जलाते समय अग्नि की लपटों से सन्तप्त श्री मारूति नन्दन समुद्र में कूद पड़े थे, फिर भी की लपटों से सन्तपत श्री मारूति नन्दन समुद्र में कूद पड़े थे फिर भी उनका दाह दूर नहीं हुआ। अस्तु रामराज्य होने के बाद भगवान राघवेन्द्र की सेवा में रहकर श्री हनुमंत लाल जी ने अपनी जलन की वेदना को शान्त करने के लिए भगवान श्रीराम से प्रार्थना की और भगवान राम ने उन्हें चित्रकूट में स्थित विन्ध्य गिरी पर निवास करने के लिए कहा, जहाँ पर पर्वत से निकली हुई जलधारा अनावरत आज भी श्री हनुमंत लाल जी के पावन देह की प्लावित करती है। अतः यह स्थान हनुमान धारा के नाम से प्रसिद्ध है।

राघव प्रयाग

यह स्थान मन्दाकिनी गंगा के पश्चिम तट पर स्थित है। यहाँ पर मन्दकिनी पयश्रवणी एवं सरयू गंगा का संगम है। इन तीनों नदियों के उद्गम स्थान पृथक-पृथक है। मन्दकिनी अति मुनि के आश्रम से निकली है। पौराणिक गाथा के अनुसार श्री अति मुनि की पत्नी अनुसुइया जी ने अपने तपोवल से प्रकट किया है। पयश्रवणी गंगा का उद्गम ब्रह्यकुण्ड है, जो श्री कामद्गिरी के दक्षिण तट पर स्थित है।

कामद्गिरी के उत्तरी तट से श्री सरयू जी का उद्गम है। यही तीनों नदियाँ मिल करके प्रयाग के रूप में परिवर्तित हो जाती है। रघुकुलभूषण श्री रामजी ने अपने पूज्य पिता के लिए यहीं पर पिण्ड दान दिया था, इसलिए उक्त स्थान को राघव प्रयाग कहा जाता है।

रामघाट
मन्दकिनी के पश्चिम तट पर बने हुए घाटों के मध्य में स्थित घाट को रामघाट कहते हैं। इसका यह नाम पूज्यपाद गोस्वामी जी द्वारा भगवान राम के मस्तक में चन्दन लगाने की घटना से सम्बद्ध है। पूज्य पाद गोस्वामी जी को श्रीराम के दर्शन श्री हनुमान जी की प्रेरणा से इसी घाट में हुये थे। जिसका उल्लेख हनुमान जी के द्वारा कहे हुए दोहे से स्पष्ट होता है।

चित्रकूट के घाट पर, भइ संतन की भीर।
तुलसीदास चन्दन घिसै, तिलक देत रघुवीर।।

तोतामुखी श्री हनुमान जी द्वारा इस दोहे का निर्देश किये जाने से यहाँ पर एक तोतामुखी हनुमान जी की प्रतिमा आज भी पायी जाती है।
दूसरी प्रसिद्धि श्री रामचरित मानस के अनुसार श्री राम का यह निर्देश कि-

रघुवर कहो लखन भल घाट।
करहु कतहु अब ठाहर ठाटु।।

ये भी रामघाट की ओर संकेत कर रहा है।

इस घाट के पश्चिम की ओर यज्ञवेदी एवं पर्ण कुटी नामक स्थान आज भी स्थित है। जो कि भगवान राम के निवास की स्मृति को आज भी ताजी बना रहे हैं।

श्री कामद्गिरी
पूर्वोक्त श्री कामद्गिरी पर्वत के सम्बन्ध में कहा जाता है, कि यह चित्रकूट का प्रधान अंग है। इसके सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि पर्वत कई तरह की धातुआंे, मणियों से अलंकृत है। प्रमाण में इस श्लोक को प्रस्तुत करते हैं।

सुवर्ण कूटं रजताभिकूटं, माणिकयकूटं मणिरत्नकूट्म।
अनके कूटं बहुवर्ण कूटं, श्री चित्रकूटं शरणं प्रपद्य।।

इस पर्वत में रघुकूल भूषण श्रीराम ने अपने वनवास के काल में जीवन के साढे ग्यारह वर्ष व्यतीत किये। उनके रहने से यह पर्वत ऋतु में प्रत्येक प्रकार के फलों, पुष्पों आदि से भरा पूरा रहता था। एवं श्री राम की ही कृपा से यह मनुष्यों की सम्पूर्ण कामनाओं का पूर्ण करने वाला है-जैसे कि राम चरित मानस में लिखा है।

कामद्गिरी में राम प्रसादा।
अवलोकत अपहरत विषादा।।

श्रद्धपूर्वक नर-नारी इस पर्वत की परिक्रमा लगाते रहते है।

मुख्यद्वार
चित्रकूट का सबसे महत्वपूर्ण स्थान श्री कामद्गिरी है। इसको भगवान का ही स्वरूप माना जाता है। इसमें प्रवेश के चार द्वार हैं। जिसमें श्रीकामद्गिरी का उत्तरी द्वार मुख्यद्वार के नाम से जाना जाता है। श्री रामघाट से स्नान करके अधिकतर लोग श्री कामद्गिरी के मुख्य दरवाजे पर आते तथा यहीं से प्रदक्षिणा आरम्भा करते हैं।

इस स्थान में वैष्णव सन्तों के आश्रम बने हुये हैं, जिनमें संतों दीन, हीन, अपग्ग अपाहिज व्यत्तियों की सेवा होती है। वर्तमान काल में श्री श्री 108 श्री प्रेम पुजारी दास नाम के सन्त इन आश्रमों के संचालक हैं, जिनकी अथक परीश्रम एवं व्यक्तित्व से यहाँ अनेकों परमार्थ कार्य चल रहे हैं।

भरत मिलाप
कैकेयी के द्वारा श्रीराम को वनवास दे दिये जाने पर जब श्री भरत अपने ननिहाल से अयोध्या पहुंचे, तथा उन्हें श्रीराम के वनवास की खबर मिली, तब वह अपने छोटे भाई शत्रुधन सहित, गुरू वशिष्ठ एवं तीनों माताओं, मंत्रियों तथा राज्य के असंख्य नर-नारियों को लेकर भगवान राम को मनाने चित्रकूट आये, और श्री कामद्गिरी के दक्षिण किनारे पर भगवान राम से उनका मिलाप हुआ। उनके मिलाप काल में पर्वत का जड़ पाषाण भी द्रवित हो उठा, जिसके कारण पाषाण शिला में उनके चरण चिन्ह अंकित हो गये हैं। बन्धुओं का यह मिलान भारतीय संस्कृति में स्नेह का जीता जागता स्वरूप है। पूज्यपाद गोस्वामी जी ने श्री रामचरित मानस में दिखाया है कि सारा विश्व इनके मिलन को मिलन को अपलक नेत्रों से देखता रह गया था। जैसे-

बरबस लिए उठाइ उर, लाए कृपानिधान।
भरतराम की मिलनि लखि, बिसरे सबहि अपान।।

लखमण पहाडी
श्री कामद्गिरी के दक्षिण में लक्ष्मण पहाड़ी नाम की छोटी पहाड़ी है, जिसमें श्री लक्ष्मण जी का मन्दिर है। कहा जाता हे कि भगवान राम और अम्बा जानकी रात्रि में अब शयन स्थान से कुछ दूर, हाथ में धनुष वाण ले करके उनकी रक्षा में जागरण किया करते थे- जैसे कि मानस में उल्लेख है कि-

कछुकि दूरि धरि वान सरासन।
जागन लगे बेठि बीरासन।।

यहाँ पर एक कूप है, जो धरातल के स्तर से काफी ऊँचाई में स्थित है, किन्तु इसमें हमेशा जल माजूद रहता हैं। मन्दिर से सम्बन्धित एक दलान है, जिसमें कुछ स्तम्भ हैं, जिन्हें लोग सप्रेम भेंट करते हैं। और श्री लक्ष्मण जी से भेंट का आनन्द करते हैं।

जानकी कुण्ड
यह स्थान प्रमोदन बन से दक्षिण 2 फलांग दूर पर श्री मन्दकिनी के पश्चिम तट पर स्थित है। यहाँ पर एक कुण्ड है। कहा जाता है कि इसी कुण्ड में जगत जननी जानकी जी ने स्नान किया था, इसी कारण इसको जानकी कुण्ड कहते है।

यहाँ पर आज भी पाषाण शिला में श्री जानकी जी के चरण-चिन्ह अंकित हैं। जो उनकी स्मृति को इतने समय बीतने पर भी ताजी बनाये हुये हैं। यहाँ बहुत से ऋषिगण फलाहार करके श्रीराम जी की आराधना करते हैं।

यहा श्री जानकी मन्दिर, हनुमान मन्दिर तथा रामानन्दाश्रम आदि प्रसिद्ध मन्दिर हैं।

रघुवीर मन्दिर
यह स्थान मन्दाकिनी गंगा के पश्चिम तट पर जानकी कुण्ड में स्थित है।
इसका निर्माण बीत राग महान तपस्वी परमार्थ भूषण संत शिरोमणि श्री रणछोड़वास महाराज से विशेष आग्रह करके, उनके प्रियशिष्य श्री भीम जी भाई मानसाटाा कलकत्ता वालों ने विक्रम संवत् 2009 में कराया। यहाॅ पर भगवान श्री राम अम्बा जानकी जी की मूर्ति विराजमान हैं। इस मनिदर के समीप उत्तर की ओर परम पूज्य श्री रड़छोड़दास जी का मन्दिर है, जिसमें उनकी मूर्ति विराजमान है। पूज्य महाराज श्री की तपस्या का प्रभाव दिगदिगन्त में व्याप्त था। इनका सबसे बड़ा उद्देश्य परोपकार था। दीन-हीन व्यक्तियों की सेवा करने में इन्हें परमानन्द की प्राप्ति होती थी। वे अपने शिष्यों को यही उपदेश देने थे, कि दूसरों की सेवा करो। सेवा ही भजन हैं, धन की सर्वश्रेष्ठ गति परोपकार है। इस सम्बन्ध में उनका एक बहुत प्रिय दोहा उद्धृत है-

पानी पीने से, घटै न सरिता नीर।
धर्म किये धन न घटै, सहाय करै रघुवीर।।

अतः श्री महाराज जी ने सन्तों की सेवा के लिए सदाव्रत एवं भारतीय संस्कृति के रक्षा के लिए संस्कृत विद्यालय की स्थापना की थी। यह सेवा अनावरत चलती रहे इसलिए श्री रघुवीर मन्दिर ट्रस्ट की स्थापना श्री महाराज जी ने 1968 में की थी, जो आज भी विद्यमान है।

स्फटिक शिला
यह जानकी कुण्ड से 1 कि0 मी0 दक्षिण मन्दाकिनी किनारे पर स्थित है। श्रीराम चरित मानस के अनुसार श्रीराम जी ने इसी शिला पर माँ जानकी का श्रृंगार किया था। जैसे-

एक बार चुनि कुसुम सुहाए।
निसकर भूषन राम बनाए।।
सीतहि पहिराए प्रभु सादर।
बैठे स्फटिक शिला पर सुन्दर।।

देदाडना तीर्थ में श्रीराम जी तथा लखन सहित मा जानकी के दर्शन कर देवकन्या स्वर्ग लोक गई। स्वर्ग लोक जाकर अपने पति जयन्त से श्रीराम सीता जी के दर्शन के लिए कहा, तो जयन्त ने कहा कि स्वर्ग लोक का वासी मृत्यु लोक में दर्शन नहीं करेगा। फिर भी जब देवकन्या नहीं मानी, तब जयन्त आकर कौवे का रूप धारण किया तथा सीता जी के चरण में चोच मार के भागा। उसी क्षण जयन्त की दुष्टता पर श्रीराम ने ब्रह्य कण का प्रयोग किया था, अन्त में जयन्त दुष्टता पर क्षमा माँगी।

वर्तमान में श्रीराम जानकी एवं जयन्त चिन्ह अंकित है। यह शिला स्फटिक मणि के सदृश उज्जवल है, जिससे इसे स्फटिक शिला कहते हैं। इसके पश्चिम लक्ष्मण शिला तथा श्रीराम जी का मन्दिर स्थित है।

सती अनुसुइया
यह स्थान स्फटिक शिला से लगभग 10 कि0मी0 दूर मन्दकिनी के तट पर स्थित है, यहाँ पर महर्षि अति का आश्रम है। महर्षि जी की परम सती तपस्विनी पति परायण पत्नी श्रीमति अनुसुइया देवी के सतीत्व के प्रताप से यहीं से मन्दाकिनी गंगा का उद्गम हुआ है। सती अनुसुइया ने अपनी सतीत्व की परीक्षा में आये हुये ब्रह्य, विष्णु और शंकर को बालक के रूप में परिवर्तित कर दिया था। जिससे उनकी सतीत्व की प्रशंसा त्रैलोक्य ने की थी। और सब उनके चरणों में सिर झुकाये थे। यही करण है कि यह स्थान सती अनुसुइया के नाम से प्रसि0 है।


Wednesday, July 20, 2011

वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे


मंदी के दौर में अगर वाक़ई कुछ ज़्यादा है, तो वो है काम।

कमबख़्त इतना काम है कि इस काम के चक्कर में सारे काम ठप्प पड़े हैं।

 

 

वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया
कुछ काम किया
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया

यहां अधूरा छोड़ने की नौबत भर नहीं आई है। आसार पूरे हैं। दुआ कीजिए ऐसे आसार और सिर उठाएं। आमीन।

Friday, July 1, 2011

बूँद-बूँद.

बूँदें... 
जल निर्मल करता है
धरती को भरता है.
कोमल. आक्रामक. पैना.
उज्जवलित दमक सा बहता है.
सूक्ष्म हो तो निर्बल
और विशाल हो पर्वत पलटता है,
प्रखर शिखरों को
धूल-धूसरित करता है.
 image.png

शास्त्र कहते हैं कि जल से अधिक दुर्बल कुछ नहीं है. फिर भी संगठित होने पर इसकी शक्ति का कोई तोड़ नहीं है. यह सब बंधन तोड़ देता है. प्रचंड ज्वार और सुनामी बनकर सर्वनाश करता है. वेगवती नदियों में बहकर पर्वतों को गहरे तक छील देता है. यह दुर्दम शत्रुओं को भी नतमस्तक कर देता है.

इस को हम दूसरी दृष्टि से देखें तो... जल की विजय इसमें नहीं है कि यह सबको झुका देता है. यह जीतता है क्योंकि यह अनवरत है, कठोर है. यह डटा रहता है, हार नहीं मानता. यह सनातन, सतत, अचर, अचल, नित्य, और निरंतर है. चट्टानें इसका मार्ग रोक सकतीं हैं. यह जलाशयों में शिलाओं के भीतर शताब्दियों तक परिरक्षित रहता है. तब यह उन शिलाओं को क्यों नहीं तोड़ पाता? क्योंकि तब यह थिर रहता है. गतिहीन जल अपनी निर्ममता खो देता है.

जिस तरह जल निर्बाध और कठोर होकर स्वयं की शक्ति को व्यक्त करता है उसी तरह हमें भी जीवन में सफलता पाने के लिए स्वयं को सर्वश्रेष्ठ एवं सशक्त रूप में व्यक्त करना चाहिए. यदि ऐसा न हो तो हम भी स्वयं को वास्तविकताओं की सघन दीवारों से घिरा पायेंगे और उनसे बाहर निकलने के लिए हमेशा छटपटाते रहेंगे.

परंतु ऐसी दृढ़ता हममें कैसे आयेगी? 

हम छोटे से शुरुआत करेंगे.

बूँद-बूँद.