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Friday, July 1, 2011

बूँद-बूँद.

बूँदें... 
जल निर्मल करता है
धरती को भरता है.
कोमल. आक्रामक. पैना.
उज्जवलित दमक सा बहता है.
सूक्ष्म हो तो निर्बल
और विशाल हो पर्वत पलटता है,
प्रखर शिखरों को
धूल-धूसरित करता है.
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शास्त्र कहते हैं कि जल से अधिक दुर्बल कुछ नहीं है. फिर भी संगठित होने पर इसकी शक्ति का कोई तोड़ नहीं है. यह सब बंधन तोड़ देता है. प्रचंड ज्वार और सुनामी बनकर सर्वनाश करता है. वेगवती नदियों में बहकर पर्वतों को गहरे तक छील देता है. यह दुर्दम शत्रुओं को भी नतमस्तक कर देता है.

इस को हम दूसरी दृष्टि से देखें तो... जल की विजय इसमें नहीं है कि यह सबको झुका देता है. यह जीतता है क्योंकि यह अनवरत है, कठोर है. यह डटा रहता है, हार नहीं मानता. यह सनातन, सतत, अचर, अचल, नित्य, और निरंतर है. चट्टानें इसका मार्ग रोक सकतीं हैं. यह जलाशयों में शिलाओं के भीतर शताब्दियों तक परिरक्षित रहता है. तब यह उन शिलाओं को क्यों नहीं तोड़ पाता? क्योंकि तब यह थिर रहता है. गतिहीन जल अपनी निर्ममता खो देता है.

जिस तरह जल निर्बाध और कठोर होकर स्वयं की शक्ति को व्यक्त करता है उसी तरह हमें भी जीवन में सफलता पाने के लिए स्वयं को सर्वश्रेष्ठ एवं सशक्त रूप में व्यक्त करना चाहिए. यदि ऐसा न हो तो हम भी स्वयं को वास्तविकताओं की सघन दीवारों से घिरा पायेंगे और उनसे बाहर निकलने के लिए हमेशा छटपटाते रहेंगे.

परंतु ऐसी दृढ़ता हममें कैसे आयेगी? 

हम छोटे से शुरुआत करेंगे.

बूँद-बूँद.

 


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