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Monday, August 1, 2022

नागपंचमी

 बचपन में नागपंचमी

' चंदन चाचा के बाड़े में' :नाग-पंचमी और बचपन की एक कविता की विकल याद।

हम दुनिया के किसी भी कोने में पहुंच जायें, उम्र के किसी भी पड़ाव पर, लेकिन बचपन की कुछ यादें कभी भी कहीं भी आपको अचानक आईना चमकाती नज़र आती हैं।

सुधीर त्यागी जी की लिखी एक कविता 

नागपंचमी


सूरज के आते भोर हुआ

लाठी लेझिम का शोर हुआ

यह नागपंचमी झम्मक-झम

यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम

मल्लों की जब टोली निकली

यह चर्चा फैली गली-गली

दंगल हो रहा अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में।।


सुन समाचार दुनिया धाई,

थी रेलपेल आवाजाई।

यह पहलवान अम्बाले का,

यह पहलवान पटियाले का।

ये दोनों दूर विदेशों में,

लड़ आए हैं परदेशों में।


देखो ये ठठ के ठठ धाए

अटपट चलते उद्भट आए

थी भारी भीड़ अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में


वे गौर सलोने रंग लिये,

अरमान विजय का संग लिये।

कुछ हंसते से मुसकाते से,

मूछों पर ताव जमाते से।

जब मांसपेशियां बल खातीं,

तन पर मछलियां उछल आतीं।

थी भारी भीड़ अखाड़े में,

चंदन चाचा के बाड़े में॥


यह कुश्ती एक अजब रंग की,

यह कुश्ती एक गजब ढंग की।

देखो देखो ये मचा शोर,

ये उठा पटक ये लगा जोर।

यह दांव लगाया जब डट कर,

वह साफ बचा तिरछा कट कर।

जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,

बज गई वहां घन-घन घंटी।

भगदड़ सी मची अखाड़े में,

चंदन चाचा के बाड़े में॥



वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष

वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष

जब मांसपेशियां बल खातीं

तन पर मछलियां उछल जातीं

कुछ हंसते-से मुसकाते-से

मस्ती का मान घटाते-से

मूंछों पर ताव जमाते-से

अलबेले भाव जगाते-से

वे गौर, सलोने रंग लिये

अरमान विजय का संग लिये

दो उतरे मल्ल अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में


यहां शायद कुछ भूल रहा हूं।


तालें ठोकीं, हुंकार उठी

अजगर जैसी फुंकार उठी

लिपटे भुज से भुज अचल-अटल

दो बबर शेर जुट गए सबल

बजता ज्यों ढोल-ढमाका था

भिड़ता बांके से बांका था

यों बल से बल था टकराता

था लगता दांव, उखड़ जाता

जब मारा कलाजंघ कस कर

सब दंग कि वह निकला बच कर

बगली उसने मारी डट कर

वह साफ बचा तिरछा कट कर

दंगल हो रहा अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में


शुक्र है कि अभी वो लोग बाक़ी हैं जिन्‍हें बचपन की कविताओं की परवाह है। आपको अपने बचपन की कौन सी कविता याद आ रही है।


शुभकामनाएं



Saturday, March 13, 2021

निष्ठा से वो कर्म किये जा।

 कर्म तेरे अधिकार में केवल, कर्म किये जा तू कर्म किये जा,

फल की इच्छा त्याग के अर्जुन पालन अपना धर्म किये जा।

किस स्थिति में क्या धर्म है तेरा, ज्ञात तू इसका मर्म किये जा,

तेरे लिए जो धर्म है निश्चित निष्ठा से वो कर्म किये जा।

हे पार्थ! तुम कर्म कर सकते हो, कर्म करने का संकल्प कर सकते हो, परन्तु इसका फल पाना तुम्हारे हाथों में नहीं है।
अर्जुन पूछते हैं- हे मधुसूदन! मैं जिस काम का संकल्प करूँगा वो काम तो मैं करूँगा ही। जब भोजन करने का निश्चय करके बैठूंगा तो निवाला उठाकर मुँह में रखूँगा ही। तभी तो उसे खाऊँगा?
कृष्ण कहते हैं- यदि वो खाने का निवाला तुम्हारे प्रारब्ध में नहीं है, तो उसे तुम मुँह तक तो ले जाओगे, परन्तु उस ग्रास का एक दाना भी अपने मुँह में नहीं रख सकोगे। हे अर्जुन! केवल कर्म का संकल्प ही प्राणी के अधिकार में है। उसका फल प्राणी के अधिकार में नहीं है।
अर्जुन पूछता है- वो कैसे?
कृष्ण कहते हैं- पार्थ! तनिक उस दृश्य की कल्पना करो की नगर धनवान के सामने बड़े स्वादिष्ट भोजन की थाली परोसी गई है। थाली सोने की है। गरमा-गर्म व्यंजन भरे हुए हैं। जिन्हें देखकर वो बहुत प्रसन्न हो रहा है। वो बड़ी प्रसन्नता से पहला निवाला उठाता है, लेकिन जैसे ही वह खाने लगता है उसकी सेविका का पैर फिसल जाता है और वह उस भोजन पर गिर जाती है और राजा को चोट लग जाती है। तब कृष्ण कहते हैं- अर्जुन देख लिया, कि प्रारब्ध में ना हो तो मुँह तक पहुंचकर भी निवाला तक छिन जाता है। परन्तु हे अर्जुन! इस उदाहरण का ये अर्थ भी नहीं है कि तुम सब कुछ प्रारब्ध पर छोड़कर स्वयं अकर्मण्य हो जाओ। याद रखो मैंने कहा है
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥

Friday, June 19, 2020

जिंदगी के तजुर्बे

मेरे तजुर्बे, मेरे उम्र से, ज्यादा हैं बहुत
वक्त के थपेड़े, वक्त से पहले खाए हैं बहुत

वक्त के साथ बदल जाती है, अक्सर दुनिया
वक्त के साथ रिश्ते, बदलते देखे हैं बहुत
हम तो किसी की आँखों में, मदहोश रहे
नशे में मदहोश, घर बर्बाद देखे हैं बहुत

उगते सूरज को सलाम करते है, सब लोग
ढलते सूरज को पीठ दिखाते देखे हैं, बहुत
बिस्तरों में सोते होंगे कुत्ते आपके यहाँ,
फुटपात  में सोते आदमी देखे हैं बहुत

शायद मशीनों का पानी उसे रास ना आये
स्टेशनों की बाटले ढोते बच्चे, देखे हैं बहुत
कहने से किसी के कैसे  बेच दू,  गॉव का घर
किसी याद के साये अब भी देखे हैं बहुत

चाचा चुपके से कान में कुछ कहने लगे
बंदूक लेकर जाना गॉव, ड़कैत देखे हैं बहुत

बढ़ने लगे है,शहरों में जमीनों के धनवान
अंजन थोडा ठहर, दिल के गरीब देखे हैं बहुत




Friday, September 13, 2019

हिंदी भाषा के विकास में साहित्यकारों की भूमिका

किसी भी भाषा समाज व संस्कृति का ज्ञान उसके साहित्य से होता है। साहित्य व साहित्यकार भाषा, संस्कृति व समाज को आगे बढाते हैं। राष्ट्रभाषा के गौरव को समृद्ध करते है, पहचान दिलाते है हालांकि राष्ट्रभाषा को राष्ट्रभाषा घोषित किये जाने के पीछे उस भाषा का साहित्य नही बल्कि यह देखा जाता है कि उस भाषा को कितने विशाल  स्तर पर जन मानस द्वारा बोला, लिखा व समझा जा रहा है परन्तु उस भाषा को विकसित व लोकप्रिय बनाने में साहित्य कारो  की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

भाषा विचारों की अभिव्यकित का साधन है, बिना भाषा के किसी भी प्रकार की अभिव्यकित असम्भव है। समय के परिवर्तन के साथ-साथ भाषा में भी परिवर्तन अवश्यम्भावी है और भाषा की जीवन्तता का प्रमुख आधार  भी यही है। आदिकाल से आधुनिक काल तक हिन्दी भाषा के इतिहास पर दृषिटपात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि समय के साथ उसके रूप एवं विन्यास में परिवर्तन हुए हैं। आज हिन्दी जिस रूप में हमारे समक्ष है अपने प्रारमिभक दौर में उसका वही रूप नहीं था। इस स्तर तक पहुँचने के लिए साहित्यकारों ने  निरन्तर संघर्ष किया।
आदिकाल में पध ही प्रधान था। गध की भी कोई भाषा होती है इस ओर उनका ध्यान  ही नहीं था। भकितकाल में आदर्श चरित्राों की अवतारणा हुई , मानवीय मूल्यों की महत्ता निर्धरित की गई , भक्ति  के मानदंड स्थापित किये गये। गध की भाषा विकसित करने की ओर इस काल के कवियों का ध्यान  भी नहीं गया। रीतिकाल जीवन की विलासिता से पूर्ण युग था, गध के अनुकूल वातावरण का अभाव वहाँ था। सम्पूर्ण रचनाएँ पध में ही हुई ।

उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों और अंग्रेज़ी भाषा के सम्पर्क में आने पर भाषा के स्तर में परिवर्तन हुआ और बौधिक्ता  का समावेश हुआ। वैचारिक-विमर्श के लिए खड़ी बोली हिन्दी का चयन किया गया क्योंकि देश की दयनीय सिथति की अभिव्यकित में ब्रजभाषा या अन्य भाषा तुच्छ जान पड़ी। अत: नवीन चेतना के जागरण के लिए खड़ी बोली हिन्दी का गध रूप विकसित हुआ।
विस्तृत अर्थ में अगर हिन्दी का अर्थ देखे तो इस भाषा की पांचो उपभाषाएं अर्थात सहायक भाषाओं को भी सम्मिलित माना जाता है व इन सह भाषाओं के अन्तर्गत आने वाली 17 बोलियों को भी। इस प्रकार देखा जाये तो हिन्दी के विकास में इन सहायक भाषाओं का व बोलियों का भी भरपूर योगदान है। ठीक इसी प्रकार साहित्यकारो का भी हिन्दी भाषा को विकसित व समृद्ध बनाने में विषेष योगदान है। साहित्यकारो ने राष्ट्रभाषा में विपुल साहित्य रचकर आम लोगो की व गैर हिन्दी भाषी लोगो की रूचि को इसमें बढाया व इसे रोचक व रसयुक्त बना दिया। हिन्दी में रचे गये उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह, छंद, दोहा, सोरठा, छप्पय, आलेख, शोध पत्र, निबन्ध यहां तक विदेषी भाषाओं के समग्र साहित्य के अनुवाद ने भी राष्ट्रभाषा को जीवन्त बनाया व इसकी जमीन व आसमान को विस्तार दिया। अमीर खुसरो, रासो काव्य, कबीर सूर तुलसी से आधुनिक कविता के प्रारम्भ तक आते आते हिन्दी भाषा एक व्यापक रूप धारण कर लेती है। हालांकि हिन्दी का यह रूप अनेका अनेक उतार चढाव के बावजूद तैयार होता है परन्तु आजादी की लडाई से लेकर आज तक साहित्यकारों, व पत्र पत्रिकाओं ने हिन्दी के विकास में निरन्तर अपना योगदान दिया है।
स्वतंत्रता के साथ साथ हिन्दी के विकास के योगदान में उदंत मार्तडं, वंग दूत, सुधारक समाचार, सुधा दर्पण पत्र पत्रिकाओं के संपादक व लेखको की हिन्दी को भारत व्यापी जनमन की भाषा बनाने में सक्रिय भूमिका रही। भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा इसके युगीन साहित्यकारो की जो विशिष्ट भूमिका रही वो वंदनीय हैं। पीढी दर पीढी साहित्यकार हिन्दी भाषा के विकास एवं उत्थान में अपना योगदान देते आ रहे हैं। न केवल भारत में रहने वाले साहित्यकार बल्कि दुनियाभर में बसे प्रवासी साहित्यकार भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपना उत्तरदायित्व बखुबी निभा रहे हैं
साहित्यकार हिन्दी साहित्य की सेवा में प्रण-प्राण से जुटे हुए है और ये सभी साधु वाद के पात्र है जो मातृ भाषा के प्रति अपने कर्तव्यो का निर्वहन कर रहे हैं।

सप्रेम
विवेक अंजन 

Sunday, December 18, 2016

क्‍या भूलूं क्‍या याद करूं

जीवन निर्झर में बहते किन
अरमानों की बात करूं
तुम्‍हीं बता तो प्रियवर मेरे
क्‍या भूलूं क्‍या याद करूं

भाव निचोड़ में कड़वाहट से
या हृदय शेष की अकुलाहट से
किस राग करूण का गान करूं
क्‍या भूलूं क्‍या याद करूं

भ्रमित पंथ के मधुकर के संग
या दिनकर की आभा के संग
किस सौरभ का पान करूं
क्‍या भूलूं क्‍या याद करूं

उजड़े उपवन के माली से
प्रस्‍तुत पतझड़ की लाली से
किस हरियाली की बात करूं

क्‍या भूलूं क्‍या याद करूं

Monday, June 8, 2015

अंततः FLIPKART तक पहुंच ही गए

http://www.flipkart.com/vidhwaan-kaviyon-ka-antarman/p/itmdy8m9tgvdbayn?pid=9789384236205&ref=L%3A1156165615059355101&srno=p_15&query=utkarsh+prakashan&otracker=from-search

Friday, December 19, 2014

‘लालबहादुर शास्त्री’


किसी गाँव में रहने वाला एक छोटा लड़का अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गया। शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुंचे तो लड़के ने नाव के किराये के लिए जेब में हाथ डाला। जेब में एक पाई भी नहीं थी। लड़का वहीं ठहर गया। उसने अपने दोस्तों से कहा कि वह और थोड़ी देर मेला देखेगा। वह नहीं चाहता था कि उसे अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े। उसका स्वाभिमान उसे इसकी अनुमति नहीं दे रहा था।

उसके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए। जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लड़के ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गया। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पास खड़े मल्लाहों ने भी लड़के को रोकने की कोशिश की।

उस लड़के ने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए वह नदी में तैरने लगा। पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह लड़का रुका नहीं, तैरता गया। कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गया।

उस लड़के का नाम था 'लालबहादुर शास्त्री'