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Thursday, October 22, 2009

भारत कभी गाँव और ग्रामीण संस्कृति का देश था।

भारत कभी गाँव और ग्रामीण संस्कृति का देश था। गाय तब 'काऊ' नहीं, गौमाता हुआ करती थी। जीवन में गाय के दूध की ही नहीं, उसके गोबर और मूत्र तक की प्रतिष्ठा थी। दीपावली के दूसरे दिन गोबर के गोवर्धन बनाकर पूजे जाते थे। गाय-बैल की पूजा होती थी। त्योहार का उत्साह घर की चौखट से आँगन-ओटले को छूता हुआ पूरे गाँव, कस्बे, शहर में फैल जाता था।
तब आज की तरह त्योहार का आनंद तलाशने कोई घर से बाहर नहीं जाता था, न ही उत्सव-आनंद का सुख बाहर से खरीदकर घर में ही लाया जाता था। सारे मिष्ठान्न और पकवान घर के चूल्हे पर माँ के हाथों बनते थे। घर का रोम-रोम केसर, इलायची की खुशबू से गमक उठता था। बाजार की मिठाइयों का रसोई की देहरी पर वार-प्रहार नहीं हुआ था। माँ गोबर और पीली मिट्टी के लेप से पूरा घर, घर की दीवारें तक लीपती थीं। माँ के हाथ का स्पर्श जैसे घर के जर्रे-जर्रे में स्वर्ग का-सा सौंदर्य, खुशी और आनंद उड़ेल देता था।

खड़िया के घोल से बनाए माँडने बच्चों और महिलाओं के आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे। चौक इतनी खूबसूरती से पुरे जाते थे कि चौक पूरने वाले की कला ही नहीं, उसकी आत्मा का सौंदर्य भी जैसे उसमें उतर आता था। देखने वाले की दृष्टि में, तुलना या ईर्ष्या का भाव नहीं, जो सम्मुख है उसमें प्रच्छन्न आनंद के अनुभव की छवि होती थी।

ऐसा हर घर, हर परिवार में होता था। मैं जो उम्र के सत्तरवें दरवाजे पर खड़ा हूँ और जो इसे पार कर आगे निकल चुके हैं, वे सब जब मुड़कर पीछे देखते हैं तो स्वयं के किसी स्वर्ग में होने के सुख से भर उठते हैं। हमारे पास अपने अतीत को लेकर कितनी संपन्नता है। अपने घर-परिवार, आँगन, तुलसी चौरा, बेला, चमेली, नीबू, नीम को लेकर कितनी स्मृतियाँ, कितने राग और रागिनियाँ हैं।

दादा-दादी और माँ की कितनी-कितनी सुखद भंगिमाएँ और यादें हैं। जब सोचते हैं तो हमें लगता है कि हम न अपने बीते कल में कंगाल थे न अपने आज में ही कंगाल हैं। किंतु आज, हमारे बाद की पीढ़ी के पास न वैसा अतीत है न वर्तमान ही। न वैसा घर-परिवार, न वैसे तीज-त्योहार, न वैसे राग-फाग। अतीत की संपन्नता क्या होती है, वे नहीं जानते और जानना भी नहीं चाहते, क्योंकि उनकी दृष्टि में अतीत में झाँकना पिछड़ा और दकियानूस होना है।

माँ, इस नई पीढ़ी के लिए घर की देखभाल करने वाली परिचारिका भर है। दादा-दादी यदि कहीं जीवित हैं और वृद्धाश्रम नहीं भेजे गए हैं तो वे व्यर्थ की रोक-टोक करने वाले नितांत गैरजरूरी व्यक्ति हैं। वे घर में जगह घेरने के साथ, नई पीढ़ी के लिए, उसकी सुख-सुविधा और स्वतंत्रता के लिए, अनावश्यक बोझ और बाधा हैं। ऐसी सोच के साथ पल-बढ़ रही पीढ़ी का भावी संसार कैसा होगा, सोचकर बेचैनी और भय होने लगता है।

आज वे भी जो मुझसे कुछ आगे या पीछे चल रहे हैं, इन परिस्थितियों में बेचैनी और घुटन का अनुभव जरूर करते होंगे। किंतु अतीत के स्मृति-वैभव और वर्तमान के जीवन-सौंदर्य से रहित केवल अपने आज में जीने वाली इस पीढ़ी के लिए हम कुछ भी कर सकने लायक कहाँ हैं। हाँ, अपनी विवशता में इनके लिए हम शुभकामना ही व्यक्त कर सकते हैं, फिर भले ही इन्हें इसकी दरकार हो या न हो |

 

 

 

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