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Friday, July 27, 2012

श्रमिकों का दुखड़ा कौन सुनेगा


अश्विनी महाजन (: साभार अमर उजाला ) 
Story Update : Friday, July 27, 2012    9:52 PM
देश की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी में हाल ही के विवाद और हिंसा के कारण पूरा देश सकते में आ गया है। मारुति के महानिदेशक की बर्बतापूर्ण हत्या के कारण उद्योग जगत में चिंता स्वाभाविक है। श्रमिकों की शिकायतें चाहे कितनी भी जायज क्यों न हों, उनके इस तरह से हिंसक होने का समर्थन नहीं किया जा सकता। श्रमिकों और प्रबंधन के बीच हिंसक वारदात का मारुति एकमात्र उदाहरण नहीं है। हालांकि उदारीकरण के दौर में हड़ताल सुनने में नहीं आ रही थी। जबकि एक समय हड़ताल और तालाबंदी एक सामान्य-सी बात थी। इसका अर्थ क्या यह लगाया जाए कि श्रम विवाद पहले से कम हो गए अथवा मजदूरों और प्रबंधन के बीच संबंध बहुत मधुर हो गए?

पिछले लगभग एक वर्ष से भी अधिक समय से मारुति में श्रमिकों की हड़ताल खासी चर्चा में रही है। श्रमिकों और प्रबंधन के बीच चल रहे इस संघर्ष से मारुति का उत्पादन और उसकी आमदनी तो प्रभावित हो ही रही है, उसका बाजार छिनने का भी खतरा मंडरा रहा है। माना जाता है कि इस हड़ताल के दौरान मारुति को 2,500 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। श्रमिकों ने यह हड़ताल अधिक मजदूरी के लिए नहीं, बल्कि बर्खास्त श्रमिकों की बहाली और स्वतंत्र श्रमिक संघ को मान्यता देने की मांग को लेकर शुरू की थी। प्रबंधन और श्रमिकों के बीच में हुआ कथित समझौता भी विवाद का विषय बना रहा, क्योंकि इसके माध्यम से प्रबंधन द्वारा श्रमिकों से सही आचरण की शर्त जबर्दस्ती मनवाई गई।

हाल के दशकों में हुए श्रमिक असंतोष के कई कारण हैं, जिसे समझना जरूरी है। भूमंडलीकरण के इस दौर में कंपनियों में ठेके पर मजदूर रखने की परंपरा शुरू हो चुकी है। नियमित कर्मचारी जैसे-जैसे रिटायर होते जाते हैं, नई भरतियां ठेके के कामगारों की ही हो रही हैं। ये कामगार सामान्यतः किसी प्रकार के श्रम कानूनों के अंतर्गत नहीं आते। ऐसे में प्रबंधन के साथ किसी भी प्रकार का विवाद उनकी नौकरी ही समाप्त कर देता है।

मारुति उद्योग भी इसका अपवाद नहीं। इसमें 10,000 स्थायी कर्मचारी हैं, और लगभग इतनी ही संख्या में ठेके पर मजदूर रखे जाते हैं। स्थायी कामगारों को औसत 18,000 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं, जबकि अस्थायी कार्मिकों को 6,000 रुपये ही मिलते हैं। कंपनी का कहना है कि अब वह ठेके पर कर्मचारी रखना बंद करेगी। सिर्फ यही नहीं कि मारुति और अन्य उद्योग ठेके पर कर्मचारी रखकर श्रम के शोषण को बढ़ावा देते रहे हैं, बल्कि छंटनी का डर दिखाकर कर्मचारियों की मजदूरी कम रखने का भी प्रयास होता है। 

भूमंडलीकरण के इस दौर में श्रमिकों के शोषण में वृद्धि हुई है। आंकड़े बताते हैं कि उद्योगपतियों को मुनाफा 1989-90 में कुल उत्पादन का मात्र 19 प्रतिशत ही होता था, वह 2009-10 में बढ़कर 56.2 प्रतिशत हो गया। श्रमिकों और अन्य कार्मिकों का हिस्सा इस दौरान 78.4 फीसदी से घटता हुआ मात्र 41 प्रतिशत रह गया। उद्योगों में प्रति श्रमिक सालाना मजदूरी वर्ष 2009-10 में 75,281 रूपये ही रही, जबकि अन्य कार्मिकों की मजदूरी 1,25,404 रुपये तक पहुंच गई। यानी श्रमिकों की मजदूरी में इस दौरान चार गुने की ही वृद्धि हुई, जबकि उन्हीं उद्योगों में लगे दूसरे कार्मिकों के वेतन पांच गुना से भी ज्यादा बढ़ गए। केंद्र व राज्य सरकारों और उनके द्वारा संचालित संस्थानों में जहां वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होती हैं, वहीं अर्थव्यवस्था के विविध क्षेत्रों में श्रमिकों को महंगाई भत्ता तक नसीब नहीं है। 

कुछ विशेष प्रकार के कार्यों को छोड़ शेष श्रमिक नितांत कम वेतन पर काम करने के लिए बाध्य हैं। ऐसे में निजी क्षेत्र की कंपनियां तो मोटा लाभ कमा ही रही हैं, सार्वजनिक क्षेत्र के ज्यादातर प्रतिष्ठान भी भारी लाभ कमा रहे हैं। वर्ष 1990-91 में केंद्र सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों का कर पूर्व लाभ जहां मात्र 3,820 करोड़ रुपये था, वहीं 2009-10 में वह बढ़कर लगभग 1,24,126 करोड़ रुपये हो गया। ऐसे में श्रमिकों के हितों की रक्षा हेतु श्रम कानूनों में बदलाव बहुत जरूरी है। तभी श्रमिकों का कंपनी के प्रति नजरिया बदलेगा और वह उत्पादन में अधिक वफादारी से लगेगा।

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