Wednesday, June 17, 2009

दोनों की चाह मिलन की है, पर फ़र्क सबल का, निर्बल का

 

कछार के दीये

 

दो दीये सुदूर कछारों पर, जलते हैं उनको जलना है

लौ उठती है ऊपर रह-रह, इसलिए कि उनको मिलना है ।

 

लेकिन यह बेगवती धारा कितनी निर्मम, कितनी निष्ठुर

क्या पीर किसी की समझेगी जो अपनेआप बहुत आतुर

है सागर से मिलना उसको, निश्चित है, मिल जायेगी ही

फिर क्यों दो प्राणों में बाधक, बनती यह कैसी, छलना है ?

 

जाने कितने अरमानों को ले गयी बहाकर यह धारा

चुपचाप सिसक कर रह जाता जग में पीड़ाओं का मारा

झंझा के झोंको से लड़ती, लौ काँप-काँप रह जाती है

जब तक बाती है स्नेह-सिक्त, बुझने तक उन्हें मचलना है ।

 

दोनों की चाह बराबर है, आधार अलग है संबल का

दोनों की चाह मिलन की है, पर फ़र्क सबल का, निर्बल का

है इसी विवशता में जीता, यह विडंबना ही दुनिया है

उष्मा पा वर्फ़ पिछल जाती, पत्थर को कभी न गलना है ।

 

जो दे सकते बलिदान उन्हें बाधाएँ रोक नहीं सकती,

बादल बनते जल वाष्पों को यह धारा रोक नहीं सकती

यह धारा सीमित धरती तक, अम्बर के कूल-कछार नहीं

इसलिए धुआँ लौ का असीम की ओर चला, तो चलना है ।

 Thanks to   योगेन्द्रनाथ शर्मा  

   

 

 

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