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Wednesday, June 24, 2009

कैसा बन रहा है हमारा भारत

नारे 21 वीं सदी को भारत की सदी बनाने के हैं, लेकिन हमारी प्राथमिक शिक्षा की बदहाली तो यही कहती है कि यह सपना कहीं सपना ही न रह जाए। जिस तरह से इस बार परीक्षा परिणाम आए हैं वे चौंकाते हैं, सरकारी स्कूलों में पढ़ रही नई पीढ़ी का हम कैसा भविष्य गढ़ रहे हैं इस पर सवाल खड़े हो गए हैं।

परीक्षा के बिगड़े परिणामों से सरकार हैरत में है और अब इसकी समीक्षा की जा रही है। पर देखना होगा कि क्या इसके हालात सरकारी तंत्र ने ही ऐसे नहीं बना दिए हैं। आज हालत यह है कि थोड़ी सी बेहतर आर्थिक स्थिति वाले लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजना चाहते।

यहाँ ठहरकर सोचना होगा कि आजादी के छः दशक में ऐसा क्या हुआ कि हमारे सरकारी स्कूल जहाँ देश का भविष्य गढ़ा जाना था वे एक अराजकता के केंद्र में तब्दील हो गए। सरकारी शिक्षकों को ऐसा क्या हुआ है कि वे सरकारी नौकरी में आकर एक ऐसे व्यक्ति में तब्दील हो जाते हैं जिसमें काम का जूनून प्रायः नहीं दिखता। सरकारी तंत्र में ऐसा क्या है कि वह व्यक्ति को अपने कर्तव्य के प्रति ही उदासीन बना देता है।

मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, उप्र, बिहार जैसे तमाम राज्य जहाँ आज भी एक बड़ी आबादी सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर है हमें अपनी प्राथमिक शिक्षा के ढाँचे पर विचार करना होगा। हमें यह मान लेना चाहिए कि हमारे स्कूल स्लम में तब्दील हो रहे हैं, जहाँ एक बड़ी आबादी के सपने दफन किए जा रहे हैं।


चमकीली प्रगति कई तरह का भारत रचकर नहीं हो सकती है। लेकिन सचाई यह है कि हम भारत और इंडिया के बीच की खाई और चौड़ी करते जा रहे हैं। सरकारी स्कूलों से पढ़कर निकली पीढ़ी, अंग्रेजी और हिंदी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों से निकली पीढ़ी के अलावा एक बहुत हाई-फाई पीढ़ी भी हम तैयार कर रहे हैं जो आधुनिकतम सुविधाओं से लैस स्कूलों में तैयार हो रही है और लाखों रूपए सालाना फीस देकर पढ़ रही है।

यह तीन तरह का भारत हम एक साथ तैयार कर रहे हैं। जिसमें पहला भारत सेवा के लिए, दूसरा बाबू बनने के लिए और तीसरा शासक बनने के लिए तैयार किया जा रहा है। इससे भारत में सामाजिक-आर्थिक परिवेश में बहुत गहरे
विभेद पैदा हो रहे हैं जिसके नकारात्मक फलितार्थ हमें दिखाई देने लगे हैं।
समाज में इस तरह के विभाजन के अपने खतरे हैं जिसे उठाने के लिए देश तैयार नहीं है। अपने सरकारी स्कूलों को इस हाल में जाता देखने के लिए सरकारें विवश हैं क्योंकि इनकी उपेक्षा के चलते ही ये स्कूल इन हालात में पहुँचे है। सरकार की शिक्षा के प्रति उदासीनता के चलते ही प्राथमिक शिक्षा का बाजार पनपा है और अब उसके हाथ उच्च शिक्षा तक भी पहुँच रहे हैं।

क्या कारण है कि ये सरकारी स्कूल बदहाली के शिकार हैं। क्या कारण है कि इनमें काम करने वाले अध्यापक आज शिक्षाकर्मी के नाम से भर्ती किए जा रहे हैं जिन्हें चपरासी से भी कम वेतन दिया जा रहा है। इसके अलावा तमाम सरकारी काम भी इसी अमले के भरोसे डाल दिए जाते हैं। मतदाता सूची के सर्वेक्षण, मतदान कराने से लेकर, सरकार की तमाम योजनाओं में इन्हीं शिक्षकों का इस्तेमाल किया जाता है।

जाहिर तौर पर हमारी प्राथमिक शिक्षा इन्हीं स्थितियों में दम तोड़ रही है। हमें देखना होगा कि हम कैसे इस खोखली होती नींव को बचा सकते हैं। एक बहुत व्यावहारिक सुझाव यह है कि सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के बच्चे भी इन स्कूलों में नहीं जाते, क्या ही अच्छा होता कि यह अनिर्वायता होती कि हर सरकारी कर्मचारी का बच्चे अब सरकारी स्कूल में जाएँगें।

इससे सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार तो कम होगा ही सरकारी स्कूलों के हालात सुधर जाएँगें। क्योंकि प्राथमिक एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था आज तक हम लागू नहीं कर पाए, इससे हमारा लोकतंत्र बेमानी बनकर रह गया है। तमाम कमेटियों की रिपोर्ट धूल फाँक रही है। बच्चे एक प्रयोग का विषय बनकर रह गए हैं। यशपाल कमेटी कहती है कि उन्हें उनकी मातृभाषा में शिक्षा दीजिए,हम उनपर सारे विषय अंग्रेजी में पढ़ने का दबाव बनाए हुए हैं।



यह शिक्षा की विसंगतियाँ हमारे देश के भविष्य पर ग्रहण की तरह खड़ी हैं। बच्चों के परीक्षा परिणाम बिगड़ रहे हैं। शिक्षक मनमानी कर रहे हैं क्योंकि उन्हें सुविधाएँ नहीं हैं। सीमित क्षमताओं के साथ ज्यादा अपेक्षाएँ पाली जा रही हैं। पाठ्यक्रमों पर भी विचार का सही समय आ गया है।

किताबों का बोझ और रटने वाली विद्या से तैयार हो रही पीढ़ी आज के दौर की चुनौतियों से जूझने के लिए कितनी सक्षम है यह भी देखना होगा। हालात बिगड़ने पर ही जागने वाले हम हिंदुस्तानियों ने अपनी प्राथमिक शिक्षा की विसंगतियों पर आज गौर नहीं किया तो कल बहुत देर हो जाएगी। एक लाचार और नाराज पीढ़ी का निर्माण करके हम अपने देश के सुखद भविष्य की कामना तो नहीं कर सकते।

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