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Thursday, June 25, 2009

बचपन के खुराफाती शौंक

माचिस की डिब्बियों के कवर

जी हाँ जैसे बच्चे डाकटिकट संग्रह करते है, हम माचिस की डिब्बियों के कवर संग्रह करने लगे थे। इसके दो कारण थे, अव्वल इसमे कोई इन्वेस्टमेंट नही था, कवर सड़कों पर पड़े मिल जाते थे। दूसरा इसमे फर्स्ट डे कार्ड का झंझट  भी नही था। बस जनाब नाई से लेकर पहरेदार, फेरीवाले से लेकर ड्राइवर। हर वो व्यक्ति जो धूम्रपान करता था, हमारा शिकार था। हम माचिस की डिब्बी के ऊपर का कवर बड़ी सफाई से गायब कर देते थे। किसी को कोई शिकायत भी नही थी, लोगों को माचिस की डिब्बी से काम था, ना कि उसके कवर से। हमारी देखा देखी मे मोहल्ले के बाकी सभी बच्चों ने भी ये शौंक अपनाया।

वो कहते है ना, बिना मेहनत के प्रसिद्दि नही मिलती।  हम बड़ी शान से नयी नयी माचिस डिब्बी के कवर दिखाते, अपना कॉलर (जो अक्सर नही होता था) बड़े गर्व से ऊपर करते। अलबत्ता इसके लिए मोहल्ले के हर कूड़ेदान की खाक छानी गयी थी।  इस संग्रह मे एक ही परेशानी हुआ करती थी शहर मे माचिस के  लिमिटेड ब्रांड ही मिला करते, इसलिए हमलोगो ने इसका इलाज ढूंढ लिया, हम चुन्नीगंज बस अड्डे जाते थे, वहाँ पर दूसरे शहरों से आयी बसों के आसपास कई नये नये माचिस के
कवर मिल जाते। लेकिन ये शौंक भी ज्यादा दिन नही चला। अगले शौंक मे बारी थी कन्चों की।

कंचे खेलने का शौंक
ये शौंक भी अजीब था। कंचे खरीदने और जीतने का जुनून इस कदर सवार था कि समय का पता ही नही चलता था। कंचे भी अलग अलग साइजों मे आते थे, टिइयां, सफेदा, डम्पोला और ना जाने क्या क्या देसी नाम रखे गए थे। अक्सर कोई एक कंचा लकी कंचा हुआ करता था। लेकिन अजीब बात ये थी कि ये लकी कंचा रोज बदल जाता था। गर्मिया शुरु होते ही इस शौंक को पर लग जाते। हम अपनी झोले जैसी निक्कर, बहती नाक के साथ कंचे खेलने निकल पड़ते। इस खेल मे लड़ाई बहुत होती थी, क्योंकि अक्सर लोग बेईमानी पर उतर आते थे। हाथापाई तो बहुत कॉमन बात हुआ करती थी। हमने इस शौंक के द्वारा अपना जुकाम सभी साथी खिलाड़ियों को ट्रांसफर किया था। इस शौंक ने हमे मोहल्ले की कई नालियों मे हाथ डालने के लिए प्रेरित किया था। हमारे मोहल्ले के मेनहोल की सफाई वाले कर्मचारी महीने महीने आते थे, वे जब भी मेनहोल की सफाई करते तो हमारे लिए ढेरों कंचे निकालते। लेकिन ये शौंक भी ज्यादा दिन नही टिक सका।

शतरंज खेलने का शौंक
जब हम सभी बच्चे कंचो मे कुछ अधिक ही इन्वाल्व होने लगे तो बड़े बूढो ने हमे शतरंज मे उलझाया। वैसे तो शतरंज बूढो का खेल था, वे लोग चबूतरों पर अक्सर ये खेलते रहते। लेकिन जिस दिन हमे इसकी लत लगी, उस दिन सब कुछ बदल गया। गर्मिया शुरु होते ही चबूतरों पर शतरंज की बाजिया बिछने लगती। आपस मे लोग शर्त लगाकर खेलने लगे। शतरंज खेलने का शौंक काफी दिन तक चला। ये शौंक इतना परवान चढा कि हम मोहल्ला, डिस्ट्रिक्ट, यूनीवर्सिटी लेवेल तक खेले। पहले हम इंडियन स्टाइल मे खेलते थे, इसमे नियम कायदे कानून सब देसी हुआ करते थे, ये करो, वो ना करो, वगैरहा वगैरहा। लेकिन बाद मे हम इंटरनैशनल स्टाइल पर शिफ्ट हो गए। एक दिन के के शुक्ला जी, जो ज्वालादेवी स्कूल के पास रहते थे, और चैस क्लब चलाते थे, एक दिन हमे खेलते हुए देखे, बोले तुम हमारे क्लब मे खेलो। उन्होने मुझे शतरंज के इतने गुर सिखाए कि हम चैम्पियन बन गए, शहर मे हमारी रैंकिग तीसरे नम्बर तक पहुँची। आज भी हम शतरंज खेलते है, ये अलग बात है कि अब हम टूर्नामेंट नही खेलते। क्या कहा, मेरे से शतरंज खेलना है, तो आओ ना आईबिबो (Ibibo) पर खेलो, हम अक्सर उधर खेलते है।

 

2 comments:

Ram Narayan said...

तो भाई ये तो रहे हमारे खुराफाती शौंक, आपके भी बचपन के कुछ शौंक रहे होंगे। तो आप टिप्पणी के माध्यम से अपने शौंकों के बारे मे बताओ।

Anonymous said...

काहे भइया,कौनो लिमिट तो बन्धवाय नही हमऊ, सो छोड़ने दिया जाये.जहाँ ना झिले ऊहाँ टोका जाय.

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