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Sunday, June 7, 2009

एक सपना मुझमें दाख़िल


जिन दरख़्तों पर कोई पत्ता हरा मिलता नहीं
चहचहाते पंछियों का घोंसला मिलता नहीं ।

दर्द और ख़ुश्बू का नाता ज़िंदगी का मर्म है
जिसने कांटों को न समझा, कुछ मज़ा मिलता नहीं ।

आदमी को दर्द से जो दूर ले जाए कहीं
आदमी को उम्रभर वो काफ़िला मिलता नहीं ।

दूरियाँ बढ़ती चली जाती हैं अपने-आप से
चाहने वालों को जब अपना ख़ुदा मिलता नहीं ।

एक सपना मुझमें दाख़िल मुद्दतों पहले हुआ
अब भटकता फिर रहा है रास्ता मिलता नहीं ।

रास्ते लंबे हैं लेकिन मुख़्तसर-सी जिंदगी
आदमी को उम्रभर चाहा हुआ मिलता नहीं ।

हो नहीं पाएगा मुमकिन लौटना ख़ुद में, अगर
तू ज़रा ख़ुद से कभी होकर तन्हा मिलता नहीं ।

खो न दे पहचान इक दिन वह हमेशा के लिए
जिसको सारी उम्र कोई आइना मिलता नहीं ।

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