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Tuesday, July 14, 2009

संकल्प से सफलता

 

 

शुरुआत बहुत से लोग करते है लेकिन लक्ष्य तक कुछ ही लोग पहुंच पाते है। सफलता के शिखर पर कभी भीड़ नहीं होती। विश्वास, उत्साह और साहस जीवन है। जीवन के भीतर से ही जीवन उद्बोधित होता है। किसी ने कहा है 'जिस पेड़ की जड़ कट जाती है उसे सूर्य का प्रकाश सुखा देता है, वर्षा का जल सड़ा देता है।' धरती से जुड़े पेड़ को सूरज का प्रकाश पल पल सहलाता है, उसकी किरणों से वह आकाश की ओर बढ़ता है, वारिश की फुहार उसमें फूल खिलाती है, सुगंध भरती है। पर धरती से कटते ही सारी ऊर्जा नष्ट हो जाती है। प्राणों का संचार करने वाले देवता उसका अस्तित्व मिटाने को बेताब हो उठते हैं। आस्था और विश्वास ही जीवन में विकास की जड़ है। आत्म विश्वास, उत्साह और साहस से आगे बढ़ने वाले सीजर की नाव कभी डूबती नहीं हैं।
हर व्यक्ति सफलता पाना चाहता है पर गति के प्रथम चरण में ही कई कदम ठिठक जाते हैं। शंका, भय, निराशा के कई रोड़े अजाने में उन्हें असफल कर देते हैं। जटिल प्रतीत होने वाली सभी गुत्थियां सुलझ भी सकती हैं - इनती सी बात जिसे समझ जाती है वह जीवन पथ की कई ग्रंथियों को आसानी से सुलझाता हुआ आगे बढ़ सकता है। आंखें तो सभी के पास हो सकती हैं पर यथार्थ को सझने की दृष्टि भी सबके पास हो, जरुरी नहीं। और इस दृष्टि के अभाव में अनेक भ्रम, संशय के नाग पनप जाते हैं।
दुनिया में सबसे बड़ी शक्ति है विचार की शक्ति। सारी विकास यात्रा के मूल में विचार यात्रा ही है। संपर्क के जगत में शब्द का बहुत महत्व है। शब्द से संकल्प संपोषित होता है। समय, परिस्थिति, मन:-स्थिति की खिड़कियों से शब्द उभर कर आता है। जिस परिस्थिति एवं मन:स्थिति से शब्द उभरा है, उसी परिस्थिति, मन:स्थिति से उसे ग्रहण किया जा सके, यह आसान नहीं। व्यवहार के धरातल से जुड़कर व्यक्ति मात्र दूसरों के प्रति ही नहीं, बाहर से प्रभावित हो अपने बारें में, अपने सामर्थ्य के बारे में भी कई चाही-अनचाही शंकाएं पाल लेता है जो समय के साथ विकास पथ में अवरोधक गांठें बन जाती हैं। समझ का भ्रम यथार्थ पर परदा डाल गलतफहमियों का हेतु बन जाता है।
विश्वास आशा के पथ से गुजर कर सफलता तक जाता है। संशय निराशा के पथ से गुजर कर असफलता को पुष्ट करता है। जैन दर्शन के सम्यक् दर्शन को आचार की मूल भित्ति स्वीकार किया गया। सम्यक् दर्शन को पोषण देने वाली प्रवृत्ति को आचार और बाधा उपस्थित करने वाली प्रवृत्ति को अनाचार कहा गया। शंका-संशय-भ्रम-भय से मुक्त मन-स्थिति को आचार का प्रथम अंग स्वीकार किया गया।
लेकिन, किन्तु, परन्तु या शायद आदि ऐसे शब्द हैं जो संकल्प पथ में आते ही अवरोध का सकेत दे देते हैं। इन अवरोधक शब्दों से मुक्त होकर ही कोई सफलता के सम्राज्य में प्रवेश पा सकता है। संकल्प से सृष्टि का निर्माण होता है। जहां संशय होगा, विनाश को स्वत: आमंत्रण मिल जाएगा। दृष्टांत प्रधान जैन आगम-ज्ञान धर्मकथा में उसे स्पष्ट किया गया है। शंकास्पद शंकारहित मन:स्थिति के प्रभाव को वहां अंडए दृष्टांत से व्यक्त किया गया। जिनवत्तपुत्र सागरदत्त पुत्र जंगल से वनमयूरी के अंडे ले जाते हैं। सागरदत्त पुत्र का शंकाशील मन बार बार सोचता है इस अंडे से मयूर उत्पन्न होगा या नहीं। होगा या नहीं इस शंकाशील मन:स्थिति से वह बार बार अंडों के पास जाता, हिलाता, डुलाता, देखता। शंका के स्पंदन अंडे को प्रभावित करते हैं और अंडा नि:सत्व हो जाता है, समाप्त हो जाता है। जिनदत्न पुत्र दृढ विश्वास के साथ बिना किसी तरह की शंका किए अंडे के परिपाक योग्य उचित व्यवस्था कर देता है। समय आने पर वह मयूर को प्राप्त करता है, उसके नृत्य आदि से भावविभोर हो आनन्द को प्राप्त करता है।
सफलता और असफलता आशा और निराशा का स्रोत विचार ही है। विचार जागता है तो व्यक्ति जाग जाता है। जागते रहने का संदेश ही असल में संभावनाओं की आहट का संवाहक है। धूप से आंख मिलाना अपने मन के अंदर नई कोपलों को उगते हुए महसूस करना है। जब संकल्प शिथिल हो जाता है तो सफलता कोसों दूर चली जाती है। रामायण का एक प्रसंग है - लंका से सीता के संवाद कौन लाए? राम के सामने प्रश्न था। सुग्रीव आदि मौन थे। वय:प्राप्त जाम्बवान का एक संकेत हनुमान को मिला- 'कवनहु काज उडिन जग मांहि, जो नहि होहि तात तुम पाही।' ऐसा कौन सा काम है जिसे तुम नहीं कर सकते और इस एक वाक्य से हनुमान का जोश जाग जाता है। केवल वे सीता के संवाद ही लेकर आए अपितु अंतत: सीता को मुक्त कराने में भी समर्थ हो गए।
संकल्प से सफलता, असफलता को स्पष्ट करते हुए ज्ञातधर्मकथा में एक प्रसंग बताया गया कि द्रोपदी का हरण राजा पद्नाभ कर लेता है। वह धातकीखण्ड के अमरकंका नगरी का राजा है। द्रोपदी को वह वहीं ले जाता है। द्रोपदी को वापस लाने पांडव श्री कृष्ण के साथ वहां जाते हैं। संग्राम का प्रसंग सामने था। पांडवों ने सोचा, पहले हम ही संग्राम में जाते हैं। श्री कृष्ण से अनुमति लेकर वे युद्ध क्षेत्र में जाते हैं। जाते समय उनके मन में विचार था, युद्ध क्षेत्र में विजयी हम होंगे या पद्मनाभ? अम्हे वा पउमणाभे यह संदेहास्पद भाव जैसे ही बीच में आया, स्थिति भी प्रभावित हो गई। बहुत शीघ्र ही वे युद्ध में पराजित हो श्री कृष्ण के पास पहुंच गए। अत: श्री कृष्ण को युद्ध क्षेत्र की ओर अभिमुख होना था। समय के साथ ही संकल्प जाग उठा - अम्हे, णो पउमणाभे। हम ही विजयी होंगे, कि पद्नाभ। और शीघ्र ही यह संकल्प सिद्धि श्री में परिणत हो गया, सफलता मिल गई। यदि संकल्प स्थिर हो जाए, व्यक्ति हिले तो वह दुनिया को हिला सकता है।

 

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