Friday, December 21, 2018

भारत आईटी क्षेत्र में अव्वल?

इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, या आईटी, या सूचना प्रौद्योगिकी के संसार का एक जाना-माना ब्रांड है- भारत। आईटी पेशेवरों की संख्या के हिसाब से दुनिया में भारत दूसरे नंबर पर आता है। भारत से अधिक आईटी पेशेवर केवल अमेरिका में हैं।

साथ ही भारत इंजीनियरों की संख्या के हिसाब से दुनिया में पहले नंबर पर आता है। भारत में हर साल पाँच-साढ़े पाँच लाख इंजीनियर बन रहे हैं। और दूसरी शाखाओं के भी बहुत सारे इंजीनियर आईटी के बढ़ते प्रभाव और बढ़ती माँग को देखते हुए आईटी क्षेत्र से जुड़ते जा रहे हैं और वो भी भारत के आईटी पेशेवरों की फौज का हिस्सा बनते जा रहे हैं।

आईटी क्षेत्र में भारतीय इंजीनियरों के दबदबे का आलम ये है कि आज जहाँ भारत के आईटी पेशेवर दुनिया के कोने-कोने में नजर आते हैं, वहीं दुनिया के कोने-कोने से लोग आईटी सेवाओं के लिए भारतीय कंपनियों से आस लगाए रहते हैं।

मगर क्यों है भारत आईटी क्षेत्र में अव्वल? सिर्फ संयोग ने सफलता दिलाई भारत को या भारतीयों ने सचमुच कुछ खास परिश्रम और प्रयास करके ये नाम और मुकाम अर्जित किया है?

कारण कई हैं, कारक कई हैं- भारतीय पेशेवर इंजीनियरों की सफलता की इस यात्रा में कुछ रास्तों को बनाना पड़ा, तो कहीं कुछ राहें खुद निकलती चली गईं।

 
शुरुआत : भारत की इस आईटी यात्रा की शुरुआत हुई चार-पाँच दशक पहले। ऐसे समय, जब भारत में योग्य इंजीनियर तो बन गए मगर उनकी योग्यता को परखने या उनके निखरने के लिए तब देश में कोई अवसर नहीं थे।

ऐसे में भारतीय इंजीनियरों ने विदेशों की ओर कदम बढ़ाए, खासतौर पर अमेरिका में जहाँ योग्यता की परख भी होती थी, निखरने का मौक़ा भी मिलता था। आहिस्ता-आहिस्ता भारतीय इंजीनियरों ने वहाँ अपनी योग्यता और परिश्रम से स्थान बनाना शुरू किया और धीरे-धीरे वे स्थापित होने लगे।

अमेरिका में एक सॉफ्टवेयर डेवलपर के तौर पर शुरुआत करने के बाद दो टेक्नोलॉजी कंपनियाँ शुरू करने वाले, ड्यूक विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग विभाग में प्राध्यापक प्रोफेसर विवेक वधवा बताते हैं कि भारतीयों ने एक-दूसरे की सहायता के साथ-साथ नेटवर्क बनाना शुरू किया और फिर वो आगे निकलते चले गए।

विवेक वधवा कहते हैं, 'डॉटकॉम क्रांति के समय सिलिकन वैली में 16 प्रतिशत नई कंपनियाँ भारतीयों ने खोली जो बहुत बड़ी बात है क्योंकि आबादी के हिसाब से भारतीय लोग अमेरिकी आबादी का केवल एक प्रतिशत हिस्सा थे।'

भारतीय पेशेवर इंजीनियरों ने आहिस्ता-आहिस्ता अमेरिका में जड़ें जमा लीं, फिर समय के साथ-साथ तकनीकें बदली, सोच बदली समीकरण बदले। अमेरिका गए भारतीय पेशेवरों का आत्मविश्वास बढ़ा, वो लोग जो नौकरियाँ करने गए थे, अब दूसरों को नौकरियाँ देने और दिलाने की भूमिका में उतर आए, ऐसे में उन्हें याद आईं- अपनी पुरानी जड़ें।

 
जड़ से जुड़ाव : वे इंजीनियर जो अमेरिका में पाँव जमा चुके थे और जिनका भारत से नाता बना हुआ था उन्होंने पाया कि एक ओर जहाँ भारत में योग्य इंजीनियरों के लिए रास्ते सीमित हैं, वहीं अमेरिका में काम का अंबार लगा है, और लोग नहीं हैं।

पिछले दो दशक से सिलिकन वैली में काम कर रहे आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्र मनीष चंद्रा कहते हैं, '80 के दशक के अंत तक ऐसे भारतीय इंजीनियर जो अमेरिका में जम चुके थे उन्होंने भारत के ऐसे इंजीनियरों के बारे में सोचना किया जिनके लिए भारत में नौकरियाँ नहीं थीं।'

मनीष बताते हैं कि भारतीय पेशेवरों के अमेरिका में दबदबा बनने की शुरुआत इसतरह से हुई कि पहले-पहले भारतीय इंजीनियरों ने अस्थई वीजा पर अमेरिका जाकर काम करना शुरू किया।

अस्सी-नब्बे के दशक का ये वो समय था जब दुनिया तेजी से बदल रही थी और जैसे-जैसे वर्ष 2000 करीब आया, वाई-टू-के नामक एक घटना ने आईटी क्षेत्र में अचानक जबरदस्त अवसर पैदा कर दिए।

मनीष कहते हैं, '80 के दशक से 2000 तक तकनीक काफी बदली और भारतीय उसका हिस्सा थे। ऐसे में वाई-टू-के घटना के समय जब वर्ष 2000 में ये हुआ कि सारे कंप्यूटर बदले जाएँगे तो आईटी का काम अचानक बढ़ गया।'

 
इंग्लिश-क्वालिटि-क्वांटिटि : मगर सवाल ये उठता है कि ऐसे समय में जब तकनीक की दुनिया बदल रही थी तो बाकी देश क्यों पीछे रह गए और भारत क्यों आगे निकल गया?

आईआईटी कानपुर के पूर्व प्राध्यापक और वर्तमान में बंगलोर स्थित इंटरनेशनल इंस्टीच्युट ऑफ इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के निदेशक प्रोफेसर एस सदगोपन इसके तीन कारण गिनाते हैं और इसका नाम उन्होंने दिया है- 'इक्यूक्यू एडवांटेज' यानी इंग्लिश क्वालिटि क्वांटिटि।

प्रोफेसर सदगोपन कहते हैं, 'आज भारत हर साल साढ़े पाँच लाख इंजीनियर बना रहा है, दुनिया में और कहीं इतनी बड़ी संख्या में इंजीनियर नहीं बनते, फिर भारत में अंग्रेजी का भी अच्छा-खासा चलन है- तो क्वालिटि-क्वांटिटि और इंग्लिश- तीनों मिलकर भारत को लाभ पहुँचा रहे हैं।'

प्रोफेसर सदगोपन के अनुसार इ-क्यू-क्यू ऐडवांटेज के कारण ही भारत दूसरे देशों जैसे चीन, फिलीपींस, ऑयरलैंड और इसराइल जैसे देशों से आगे निकल जाता है।

प्रोफेसर सदगोपन कहते हैं, 'चीन क्वांटिटि और क्वालिटि के मामले में भारत से बेहतर है मगर उनकी समस्या अभी तक अंग्रेजी की है; फिलीपींस क्वालिटि में पिछड़ता है और ऑयरलैंड-इसराइल क्वांटिटि में भारत की बराबरी नहीं कर पाते।'

ऑउटसोर्सिंग का फायदा : भारत के आईटी क्षेत्र की एक अलग पहचान ये रही है कि ऑउटसोर्सिंग ने उसे विश्व में एक अलग स्थान दिलाया है। ऑउटसोर्सिंग- यानी दूसरे देशों के काम को ऐसे देशों में करवाना जहाँ लागत कम हो- भारत इसका आदर्श केंद्र बना।

आईआईटी दिल्ली में प्राध्यापक रहे और वर्तमान में दिल्ली स्थित इंद्रप्र्स्थ इंस्टिच्यूट ऑफ इन्‍फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के निदेशक प्रोफेसर पंकज जलोटे कहते हैं कि भारत को पहल करने का लाभ हुआ।

प्रोफेसर जलोटे कहते हैं, '25 साल पहले भारत में जब ऑउटसोर्सिंग शुरू हुई तो तब किसी और देश की निगाह इसपर नहीं थी, तो भारत को पहल करने का निश्चित रूप से फायदा हुआ।'

प्रोफेसर जलोटे के अनुसार बाद के वर्षों जब टेलीकॉम की सुविधा सस्ती हुई तो ऑउटसोर्सिंग का काम और आसान हो गया और भारत आगे निकलता चला गया।

मिला-जुलाकर आईटी क्षेत्र में पूरे विश्वपटल पर दबदबा रखनेवाली भारत की प्रतिष्ठा का श्रेय निश्चित रूप से उन पेशेवर इंजीनियरों को जाता है जिन्होंने अपने पुरुषार्थ और परिश्रम के बल-बूते सात समुंदर पार जाकर अवसरों को तलाशा।

आज वही भारतीय दुनिया के लिए अवसर बना रहे हैं।

Thursday, November 15, 2018

तुम्हारे लिए, तुम्हारे बिना।

कविता बेहद भावुक, कोमल और स्मृतियों से भरी हुई हैजैसे किसी अधूरे मिलन की खुशबू हवा में तैर रही हो। मैंने आपकी मूल भावना को सहेजते हुए इसे थोड़ा तराशा है ताकि प्रवाह और सौंदर्य और भी निखर सके:

 


खिले थे गुलाबी, नीले,
हरे और जामुनी फूल
हर उस जगह
जहाँ छुआ था तुमने मुझे।

महक उठी थी केसर
जहाँ चूमा था तुमने,
और बहने लगी थी
मेरे भीतर कोई नशीली बयार
जब मुस्कुराए थे तुम।

भीग गई थी मेरे मन की तमन्ना
जब उठकर चुपचाप चल दिए थे तुम।
मैं अब भी उड़ रही हूँ
यादों के भँवर में
एक अकेले पीपल के पत्ते की तरह।

तुम रहे हो ना?
थामने आज मुझे ख्वाबों में?
मेरे दिल का उदास कोना
नींद में खो जाना चाहता है,
और मन
कहीं तुम्हारे बिना,
बस तुम्हारे लिए भटक जाना चाहता है।

 

 

Wednesday, October 3, 2018

प्यार-प्यार सा मिल जाना।

कविता बेहद कोमल, भावनाओं से भरी और लयात्मक हैजैसे प्रेम की हर छोटी-छोटी अनुभूति को शब्दों में पिरो दिया गया हो। मैंने आपकी मूल भावनाओं को सहेजते हुए इसे थोड़ा तराशा है ताकि प्रवाह और सौंदर्य और भी निखर सके:

 

हल्के-हल्के हाथों से तुम्हारा
हल्का-हल्का वो सहलाना,
बहके-बहके मौसम में हमारा
धीरे-धीरे बहक जाना।

ठंडी-ठंडी साँसों में तुम्हारा
ठंडा-ठंडा वो जादू,
भीगी-भीगी बातों में मेरा
भीगा-भीगा अफ़साना।

प्यारे-प्यारे जज़्बातों में तुम्हारा
प्यारा-प्यारा खिल जाना,
ख्वाब-ख्वाब सी चाँदनी में
ख्वाब-सा हो जाना।

रात-रात की तन्हाई में हमारा
रात-रात भर ना सोना,
कली-कली की ख़ुशबू में मेरा
कली-कली सा बिखर जाना।

प्यार-प्यार की बातों में हमारा
प्यार-प्यार सा मिल जाना।

 

Friday, September 14, 2018

प्रेम की अनुगूँज है।

प्रेम एक अनुभूति है
शाश्वत रिश्तों के मर्म की
सुर्ख जोड़े में लिपटे गर्व की
विरक्ति से उपजे दर्द की
प्रेम अनुभूति है।

प्रेम एक रिश्ता है
दिलों के इकरार का
ममत्व के दुलार का
मानवता की पुकार का
प्रेम एक रिश्ता है।

प्रेम दिखता है
किसी मासूम-सी मुस्कान में
नवविवाहिता की माँग में
वीरों की आन-बान में
प्रेम दिखता है।

प्रेम की अनुगूँज है
दिल के झंकृ‍त तारों में
बागों में बहारों में
फागुन की मस्त फुहारों में
प्रेम की अनुगूँज है।

sabhar- विनीता मोटलानी

Thursday, August 9, 2018

सबसे पहली चिड़िया की कहानी


सबसे पहली कहानी मैंने चिड़िया की सुनी थी जो दाल का दाना चुगकर लाती है और चावल का दाना चुगकर लाए कौवे के साथ मिलकर खिचड़ी बनाती है। कौआ चिड़िया को नहाने भेज देता है और अपने हिस्से की खिचड़ी खाने के बाद चिड़िया के हिस्से की खिचड़ी भी चट कर जाता है।

इस कहानी ने सहज ही चिड़िया के प्रति एक आत्मीयता जगा दी। सुबह से शाम तक घर में उसकी चहचहाट मोहक लगती थी। घर में ही उसका घोंसला था। चिड़िया और शायद उसका चिड़ा जब अपने नन्हे बच्चे के लिए चोंच में भरकर कुछ लाते थे और वात्सल्य और ममता से उसे खिलाते थे तो एक अजब विस्मय रचते थे। वे उसे उड़ना सिखाते थे। उससे अपनी भाषा में शायद बात करते थे और थोड़े-थोड़े अंतराल पर हमारे घर में चिड़िया के साथ-साथ एक मोहक चहचहाट उतरा करती थी। आज सोचता हूँ तो लगता है कि वह सब कितना सुंदर था।

चिड़िया हमारे करीब रखे दाने चुगती थी लेकिन हमारे जरा से हिलने से भी घबरा उठती थी और फुदककर कपड़े सुखाने के तार पर जा बैठती थी। घर में कोई एक दो नहीं बीसियों चिड़ियाँ उतर आती थीं। फुदकती थीं। चुगती थीं और उड़ जाती थीं।

दुनिया में मनुष्यों के अलावा तमाम पशु-पक्षियों का दिन भोजन की तलाश में ही बीतता है। नन्ही गौरेया के साथ भी ऐसा ही होता होगा। लेकिन पता नहीं क्यों उनके भोजन इकट्ठा करने, सहज आवेग के साथ घोंसला बनाने के लिए तिनका लाने के लिए उड़ने और फिर तेजी से लौटकर उसे दूसरे तिनकों के साथ जोड़कर रख देने में हमें एक आत्मीय खेल नजर आता रहा है पर जब हम नन्ही गौरेया की मेहनत का हिसाब लगाते हैं तो उसके नन्हे सामर्थ्य को देखकर द्रवित हो जाते हैं

उसका फुदकना, नृत्य करना, गर्दन घुमाकर और उठाकर देखना, फुर्ती और चौकन्नापन हमारे बचपन के घरों में चहक और खुशी भरता रहा है।

आज गौरेया हमारे घरों से गायब होती जा रही हैं। जैसे बड़े शहरों में तो उनकी संख्या तेजी से घट रही है। यही हालात रहे तो हो सकता है चिड़िया कविताओं और चित्रों में ही सीमित होकर रह जाए और आने वाली पीढ़ियाँ चिड़ियों के चित्रों को देखकर उस तरह विस्मित हों जैसे हम डायनासोरों के चित्रों को देखकर आश्चर्य से भर उठते हैं।

क्या पता? लेकिन यह एक सच्चाई है जिसे महानगरों में रहने वाले हम लोग जानते हैं। दुनिया भर में गौरेया कम हो रही हैं। विदेशों में लोग जानते हैं कि कितने वर्षों में कितनी चिड़िया कम हुई हैं लेकिन हमारे देश में इसका कोई अध्ययन नहीं हुआ है।

संतोष की बात है कि सरकार का ध्यान अब इस ओर गया है और उसने शानिवार 20 मार्च को दिल्ली में गौरेया दिवस मनाने का फैसला किया। नेचर फॉरएवर सोसायटी ने कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सहयोग से इस दिवस को शहर में गौरेया की संख्या में तेजी से आ रही कमी पर केंद्रित कर दिया है और लोगों से कहा है कि वे सोचें कि यह घरेलू नन्ही चिड़िया आखिर क्यों गायब होती जा रही है और हम सब मिलकर क्या करें कि हमारे शहरों में गौरेया और उसकी मासूम चहचहाट बनी रहे।

ऐसे ही गिद्ध भी तेजी से गायब हो रहे हैं और आज उनकी इतनी कम संख्या बची है कि मरे हुए जानवरों के सड़े हुए माँस को सफाचट कर हमारे पर्यावरण को साफ और संतुलित रखने की समस्या बनी हुई है।

बढ़ता औद्योगिकीरण, शहरीकरण और फसलों में कीटनाशकों का अंधाधुँध प्रयोग गिद्धों की मौत और उनके गायब होने के कारण रहे हैं। शुक्र है कि पिछले सालों में गिद्धों की एक ऐसी प्रजाति जिसे विलुप्त मान लिया गया था, फिर से देखने में आई और पर्यावरण प्रेमी इस बात से खुश हुए कि प्रकृति ने मरे हुए ढोर-डंगरों आदि को खाने का जो काम एक तरह के सफाईकर्मी पक्षी गिद्ध को सौंपा है, वह अभी बचा हुआ है।

Thursday, July 19, 2018

प्रिय, तुम मेरे संग एक क्षण बाँट लो....

 
 
 

कविता बेहद कोमल, भावनात्मक और कल्पनाओं से सजी हुई हैजैसे किसी प्रिय को याद करते हुए हर स्मृति को सहेजने की कोशिश हो। मैंने आपकी मूल भावना को बनाए रखते हुए इसे थोड़ा तराशा है ताकि प्रवाह और भाव और भी गहराई से उभर सकें:

प्रिय, तुम मेरे संग एक क्षण बाँट लो
वो क्षण आधा मेरा होगा,
और आधा तुम्हारी गठरी में
नटखट बन जो खेलेगा मुझ संग,
तुम्हारे स्पर्श की गंध लिए।

प्रिय, तुम ऐसा एक स्वप्न हार लो
जो कह जाए बात तुम्हारे मन की,
मेरे पास आकर चुपके से
जब तुम सोते होगे भोले बन,
सपना खेलता होगा मेरे नयनों में।

प्रिय, तुम वो रंग आज ला दो
जो उस दिन तोड़ा था तुमने,
और छल से दिखाया था मुझे
बादलों के झुरमुट के पीछे
झलकते इन्द्रधनुष के : रंग।

प्रिय, तुम वो बूँद रख लो सँभाल कर
जो मेरे नयनों के भ्रम में
बस गई थी तुम्हारी आँखों में
उस खारी बूँद में ढूँढ लेना
कुछ चंचल, सुंदर क्षण स्मृतियों के।

प्रिय, तुम...

 

Wednesday, May 9, 2018

स्वीकृति- कविता,

कविता एक गहरी आत्मीयता और समर्पण की भावना से भरी हुई हैजैसे किसी आत्मा ने दूसरी आत्मा को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया हो। मैंने आपकी मूल भावना को बनाए रखते हुए इसे थोड़ा तराशा है ताकि प्रवाह और भाव और भी स्पष्ट हो सकें:

 

स्वीकृति दी मैंने आज
तुम्हारे हृदय को
मेरे हृदय-स्वर में
थिरकने की स्वीकृति दी मैंने आज।

तुम्हारी स्मृति को
मेरे रक्तिम स्वर्ण-गंगा में
बहने की स्वीकृति दी मैंने आज।

तुम्हारी आत्मा को
मेरे अंत:करण की गहराइयों में
उतरने की स्वीकृति दी मैंने आज।

तुम्हारे स्वर को
मेरे अपूर्ण रचित राग की
अंतिम श्रुति बनने की स्वीकृति दी मैंने आज।

तुम्हारे मन को
मेरे व्यथित मन की पीड़ा
हरने की स्वीकृति दी मैंने आज।

यह मेरे जीवन का
एक अनमोल क्षण है
कि स्वीकृति दी मैंने आज
अपने आपको
तुम्हें अर्पण करने की।

 



Wednesday, May 2, 2018

घर और कहीं था


वो राह कोई और सफ़र और कहीं था
ख्वाबों में जो देखा था वो घर और कहीं था

मैं हो न सका शहर का इस शहर में रह के
मैं था तो तेरे शहर में पर और कहीं था

कुछ ऐसे दुआएं थीं मेरे साथ किसी की
साया था कहीं और शज़र और कहीं था

बिस्तर पे सिमट आये थे सहमे हुए बच्चे
माँ-बाप में झगड़ा था असर और कहीं था

इस डर से कलम कर गया कुछ हाथ शहंशाह
गो ताज उसी का था हुनर और कहीं था

था रात मेरे साथ 'रवि' देर तलक चाँद
कमबख्त मगर वक़्त ए सहर और कहीं था

Thanks- रवीन्द्र शर्मा 'रवि' पंजाब के गुरदासपुर जिले के पस्नावाल गाँव में जन्मे किन्तु राजधानी दिल्ली में पले बढे रवींद्र शर्मा 'रवि 'प्रकृति को अपना पहला प्रेम मानते हैं। शहरी जीवन को बहुत नज़दीक से देखा और भोगा, किन्तु यहाँ के बनावटीपन के प्रति घृणा कभी गयी नहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेज श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कामर्स से बी॰ कॉम॰ (आनर्स ) करने के उपरांत एक राष्ट्रीय कृत बैंक में उप प्रबंधक के पद पर कार्यरत।
Details- http://kavita.hindyugm.com/2009/12/result-35th-unikavi-and-unipathak.html


  

Wednesday, April 18, 2018

शक्ति तो ब्रजबाला है-भजन



सुनी देवो की जो करुण पुकार
हुई कृष्ण की दृष्टि भी अपार
जब देखी उग्र रूप राधा
कान्हा ने यह निर्णय साधा
किसी तरह राधा को मनाऊँ मैं
अपना स्वरूप बताऊँ मैं
कान्हा ने मन में विचार किया
चतुर्भुज रूप साकार किया

राधा ने देखा जो सम्मुख
कान्हा को देख के हुई चकित
गिर कर के राधा चरणों पर
रो-रो कर कहती, हे नटवर
राधा की सौंगंध है तुमको
मथुरा न जाओ तजकर हमको
बिन तेरे जी न पाएँगे
तुम्हे बिन देखे मर जाएँगे
अधूरी है तुम बिन यह राधा
इस लिए मैंने निर्णय साधा
जो मधुपुरी को तुम जाओगे
जिंदा न मुझे फिर पाओगे
मैं प्राण त्याग दूँगी कान्हा
रहेगा तुम पर यह उलाहना

इक प्रेम दीवानी मौन हुई
कहो प्रेम में ग़लती कौन हुई?
गिरा ब्रजरानी का अश्रुजल

धुल गये कान्हा के चरण-कमल
हाथों से उसे उठाते हैं
फिर प्यार से गले लगाते हैं
राधा के पोंछते हुए नयन
बोले कान्हा यह मधुर वचन

तुम क्यों अधीर हो रही प्रिय
अब ध्यान से मेरी सुनो विनय
तुम प्रेम की देवी हो राधे
सब प्रेम से ही कारज साधे
फिर रूठी है क्यों मेरी प्रिया
कहो, तुम बिन मैंने किया क्या?
राधे तुम मेरी शक्ति हो

तुम ही मेरी भक्ति हो
अधूरा है तेरे बिना कृष्ण
तुम बिन नहीं माने मेरा मन
दो शरीर और एक प्राण
करते हुए ऐसा आलिंगन

गिर रहे राधा के अश्रुकन
भावुक हो गया कान्हा का मन
कहने को नहीं कोई शब्द रहे
कोई क्या कहे? और कैसे कहे?
प्रिया-प्रियतम दोनों हुए मौन

दोनों को समझाएगा कौन
?
फिर कान्हा ने तोड़ते हुए मौन

लेकर राधा का मधुर चुंबन
मैंने तेरी हर बात मानी
शक्ति हो तुम मेरी आह्लादिनी
राधा और कृष्ण कहाँ हैं भिन्न
मोहन राधा, राधा मोहन
दिखने में तो हम दो हैं तन
पर एक है हम दोनों का मन

प्रिया-प्रियतम मिलकर हुए एक
कहो किसकी है ऐसी भाग्य रेख?
वो जगत-पिता, वो जग-माता

करुणा से हृदय भर जाता
दोनों कोमल दोनों सुंदर
बस समझे उसको मन-मंदिर
इक पीत वरण, इक श्याम-गात
छवि देख के मनुजनमा लजात
एक टेक दोनों रहे देख
कुदरत ने भी खोया विवेक
थम गई सारी चंचलता
रुक गया सूर्य का रथ चलता
दोनों हैं बस आलिंगनबद्ध
प्रकृति भी हो गई स्तब्ध
वो करुण हृदय,वो भावुक मन
नयनों में भरे हुए अश्रुकन
नहीं अलग हो रहे उनके तन
जल रहे ज्वाला में शीत बदन
बस प्रेम है उनके नयनों में
उनके तन में, उनके मन में
हृदय की हर धड़कन में
और बार-बार आलिंगन में
सब कहने की है उनकी आशा
पर प्यार की होती है कब भाषा
भाषा है प्यार की आँखों में
बस प्रेमी ही समझें लाखों में
मूक है आँखों की भाषा
कह देती मन की अभिलाषा
प्यार की भाषा के अश्रुकन
पढ़ सकते जिसको प्रेमीजन
देख के उन आँखों की चमक
हो जाते उनमें मग्न प्रियतम
बस आँसू उनको ख़टकते हैं
निशी दिन जो बरसते रहते हैं
मुँह से बोला नहीं शब्द एक
प्रिय-प्रिया फिर भी हो गये एक
कह दी उन्होंने बातें अनेक
कोई भी समझ पाया न नेक
घायल हो जाते हैं दो दिल
बिन बोले कैसे जाएँ मिल?
बिन बोले हो न सके अपने

लेकर के आँखों में सपने
प्रिया-प्रियतम फिर अलग हुए
और प्यार से ही कुछ शब्द कहे
हो गये दोनों के नेत्र सजल
जैसे खिले हों कोई नील कमल
नहीं प्यार के उनके कोई सीमा
हो रहे भावुक प्रिय-प्रियतमा
राधा फिर धीरे से बोली
और प्यार भारी अखियाँ खोली

कान्हा, राधा हो न जाए ख़त्म
न जाओ मधुपुरी, तुम्हें मेरी कसम
जो तुम चले जाओगे मथुरा
कैसे जी पाएगी राधा?
जीवन भर साथ निभाने का

किया था तुमने मुझसे वादा
छू कर राधा गिरधर के चरण
न भूलो अपना दिया वचन
दिखा कर मुझको सुंदर सपने
क्या भूलोगे वायदे अपने?
जब पकड़ा तुमने मेरा हाथ

अब छोड़ चले क्यों मेरा साथ
मुझे याद है तेरा पहला स्पर्श
भर दिया था मन मेरे में हर्ष
तुम भूल भी जाओ पर नटवर
मैं भूल न पाऊँगी मरकर
यह प्यार था तुम्हीं ने शुरू किया
जब पहली बार तूने मुझे छुआ
तेरी प्यार चिंगारी अब गिरधर
बन गई ज्वाला मेरे अंदर
दिन-रात ये मुझे जलाती है
आँखों से नीर पिलाती है
जब प्रेम निभा ही नहीं सकते
फिर प्रेम दिखाते हो क्यों मोहन?
जब प्यार भरा दिल नहीं रखते

करते हो फिर क्यों आलिंगन?
मैं थी जब जल भरने आई

तूने लेते हुए अंगड़ाई
पूछा था मुझे इशारे से
कब बजेगी तेरी शहनाई?
मैंने भी कहा इशारे से

तू माँग मेरी को अभी भर दे
तब तूने अपनी माँ से कहा
माँ मेरी भी शादी करदे
लिखी फिर तूने प्रेम-पाती
हम भी होंगे जीवन-साथी
नहीं मिलेंगे फिर हम छिप-छिपकर
हो जाएँगे एक, अति सुंदर
फिर जब मैं जाने लगी घर
ले गये तुम मुझको पकड़ भीतर
ले जा के मुझे इक कोने में
मेरे नयना थे रोने में
कहे थे तुमने बस इतने शब्द
तुम रोओगी मुझको होगा दर्द
लिए झट से मैंने आँसू पोंछ
सुध-बुध भूली, नहीं रहा होश
मुझे जब भी तूने दी आवाज़
मैं भूल गई सब काम-काज
और चली आई तज लोक-लाज
फिर छोड़ चले तुम मुझको आज
क्यों तुमने मुझे सताया था?
सखियों के मध्य बुलाया था

ले-ले कर तुमने मेरा नाम
कर दिया मुझको सब में बदनाम
मैं रोक सकी न चाह कर भी
तुम छेड़ते थे मुझे राह पर भी
मैं लोगों में थी सकुचाती
पर मन ही मन खुश हो जाती
जब मिले थे मुझको कुंज गली
मैं दधि की मटकी ले के चली
साथ थी मेरे सब सखियाँ
फिर भी न रुकीं तेरी अखियाँ
आँखों से मुझे बुला ही लिया
नयनों से तीर चला ही दिया
वह तीर लगा मेरे सीने में
फिर कहाँ थी राधा जीने में?
सुध-बुध खोकर मैं गिर ही गई

सब सखियों से मैं घिर ही गई
फिर आए थे तुम जल्दी-ल्दी
और उठा लिया अपनी गोदी
हृदय में ज्वाला रही धधक
इक टेक बाँध गई अपनी पलक
उस भावना में हम बह ही गये
इक दूजे के बस हो ही गये
तब भूल गई हमको सखियाँ
मुस्का रहीं थी उनकी अखियाँ
तुम यमुना तट पर आ करके
और वंशी मधुर बजा करके
जब तुमने पुकारा था राधा
तब तोड़ दी मैंने सब बाधा
मैं आई थी तब भाग-भाग
और लगा था किस्मत गई जाग
तुम मीठी-मीठी बातों से
सताते थे मुझको रातों में
बस साथ है तेरा सुखदाई
हर रात मैं तुझे मिलने आई
मुझसे लिपटी मानस पीड़ा
जब कर रहे थे हम जलक्रीड़ा
जल रहे थे हम यमुना जल में
और आग थी पानी की हलचल में
प्रकृति ने छेड़ा था संगीत
थी गीत बन गई अपनी प्रीत

बस-बस राधे न हो भावुक
न छेड़ो वह बातें नाज़ुक
क्यों भूल रही हो तुम राधा?
कान्हा है तेरे बिन आधा

नारी नहीं हो तुम साधारण
फिर क्यों विचलित है तेरा मन
राधा से भिन्न कहाँ कान्हा
फिर कैसा तेरा उलाहना?
दो देह मगर इक प्राण हैं हम

क्योंकि भू पर इंसान हैं हम
करने पुर कुछ सत्य कर्म
लिया है हमने यह मानव जन्म
उस कर्म को पूरा करना है
फिर क्यों कंस से डरना है
ऐसा नहीं कर सकती राधा
नहीं कर्म में बन सकती बाधा
तुम याद वह अपना रूप करो
और धैर्य धरो बस धैर्य धरो
मेरा वादा है यह तुमसे
तुम भिन्न नहीं होगी मुझसे
पहले तुम स्वयम् को पहिचानो
शक्ति हो मेरी यह मानो
बिन शक्ति के क्या मैं लड़ सकता?
क्या प्यार को रुसवा कर सकता?

सुन राधा ने नेत्र किए बंद
देखा तो पाया वह आनंद
राधा तो कृष्ण में समा ही गई
परछाई अपनी छोड़ चली
छाया भी न रह सकी बिन कान्हा
दिया उसने भी एक उलाहना

विचलित है छाया का भी मन
ले लिया उसने भी एक वचन
जो मुझे छोड़ कर जाओगे
तुम मुरली नहीं बजाओगे
मुझको अपनी मुरली दे दो
तुम जाके कर्म पूरा करदो
अब मुरली तुम जो बजाओगे
मुझे नहीं अलग कर पाओगे
मुरली सुन मैं आ जाऊँगी
और कर्म में बाधा बन जाऊँगी
अब तुम बिन मैं ब्रज में रहकर
मुरली से हर सुख-दुख कहकर
मानव का कर्म निभाऊँगी
जाओ तुम मैं रह जाऊँगी

मुरली को सौंप गये कान्हा
क्या लीला हुई? कोई न जाना
कान्हा का खेल निराला है
कहाँ कोई समझने वाला है
उसका यह रूप निराला है
पर शक्ति तो ब्रजबाला है