सबसे पहली कहानी मैंने चिड़िया की सुनी थी जो दाल का दाना चुगकर लाती है और चावल का दाना चुगकर लाए कौवे के साथ मिलकर खिचड़ी बनाती है। कौआ चिड़िया को नहाने भेज देता है और अपने हिस्से की खिचड़ी खाने के बाद चिड़िया के हिस्से की खिचड़ी भी चट कर जाता है।
चिड़िया हमारे करीब रखे दाने चुगती थी लेकिन हमारे जरा से हिलने से भी घबरा उठती थी और फुदककर कपड़े सुखाने के तार पर जा बैठती थी। घर में कोई एक दो नहीं बीसियों चिड़ियाँ उतर आती थीं। फुदकती थीं। चुगती थीं और उड़ जाती थीं।
दुनिया में मनुष्यों के अलावा तमाम पशु-पक्षियों का दिन भोजन की तलाश में ही बीतता है। नन्ही गौरेया के साथ भी ऐसा ही होता होगा। लेकिन पता नहीं क्यों उनके भोजन इकट्ठा करने, सहज आवेग के साथ घोंसला बनाने के लिए तिनका लाने के लिए उड़ने और फिर तेजी से लौटकर उसे दूसरे तिनकों के साथ जोड़कर रख देने में हमें एक आत्मीय खेल नजर आता रहा है पर जब हम नन्ही गौरेया की मेहनत का हिसाब लगाते हैं तो उसके नन्हे सामर्थ्य को देखकर द्रवित हो जाते हैं।
उसका फुदकना, नृत्य करना, गर्दन घुमाकर और उठाकर देखना, फुर्ती और चौकन्नापन हमारे बचपन के घरों में चहक और खुशी भरता रहा है।
आज गौरेया हमारे घरों से गायब होती जा रही हैं। जैसे बड़े शहरों में तो उनकी संख्या तेजी से घट रही है। यही हालात रहे तो हो सकता है चिड़िया कविताओं और चित्रों में ही सीमित होकर रह जाए और आने वाली पीढ़ियाँ चिड़ियों के चित्रों को देखकर उस तरह विस्मित हों जैसे हम डायनासोरों के चित्रों को देखकर आश्चर्य से भर उठते हैं।
क्या पता? लेकिन यह एक सच्चाई है जिसे महानगरों में रहने वाले हम लोग जानते हैं। दुनिया भर में गौरेया कम हो रही हैं। विदेशों में लोग जानते हैं कि कितने वर्षों में कितनी चिड़िया कम हुई हैं लेकिन हमारे देश में इसका कोई अध्ययन नहीं हुआ है।
संतोष की बात है कि सरकार का ध्यान अब इस ओर गया है और उसने शानिवार 20 मार्च को दिल्ली में गौरेया दिवस मनाने का फैसला किया। नेचर फॉरएवर सोसायटी ने कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सहयोग से इस दिवस को शहर में गौरेया की संख्या में तेजी से आ रही कमी पर केंद्रित कर दिया है और लोगों से कहा है कि वे सोचें कि यह घरेलू नन्ही चिड़िया आखिर क्यों गायब होती जा रही है और हम सब मिलकर क्या करें कि हमारे शहरों में गौरेया और उसकी मासूम चहचहाट बनी रहे।
ऐसे ही गिद्ध भी तेजी से गायब हो रहे हैं और आज उनकी इतनी कम संख्या बची है कि मरे हुए जानवरों के सड़े हुए माँस को सफाचट कर हमारे पर्यावरण को साफ और संतुलित रखने की समस्या बनी हुई है।
बढ़ता औद्योगिकीरण, शहरीकरण और फसलों में कीटनाशकों का अंधाधुँध प्रयोग गिद्धों की मौत और उनके गायब होने के कारण रहे हैं। शुक्र है कि पिछले सालों में गिद्धों की एक ऐसी प्रजाति जिसे विलुप्त मान लिया गया था, फिर से देखने में आई और पर्यावरण प्रेमी इस बात से खुश हुए कि प्रकृति ने मरे हुए ढोर-डंगरों आदि को खाने का जो काम एक तरह के सफाईकर्मी पक्षी गिद्ध को सौंपा है, वह अभी बचा हुआ है।
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