काव्य-संग्रह समीक्षा: साझे की बेटियाँ
लेखक: सुनीता करोथवाल
संग्रह: साझे की बेटियाँ
विधा: कविता
सुनीता करोथवाल का चौथा काव्य संग्रह 'साझे की बेटियाँ' समकालीन हिंदी कविता में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है। यह संग्रह केवल कविताओं का संकलन मात्र नहीं है, बल्कि स्त्री-जीवन के उन जटिल, अनकहे और साझा अनुभवों का दर्पण है, जिन्हें समाज अक्सर अनदेखा कर देता है। संग्रह का शीर्षक ही विचारोत्तेजक है: बेटियाँ किसी एक घर या व्यक्ति की नहीं, बल्कि समाज के सुख-दुःख की साझा उत्तराधिकारी हैं।
करोथवाल जी अपनी कविताओं में घरेलू और सामाजिक यथार्थ के बीच एक सहज संवाद स्थापित करती हैं। उनकी कविताएँ बेटियों के जन्म से लेकर उनके पालन-पोषण, शिक्षा, विवाह और फिर एक माँ या गृहणी के रूप में उनके अस्तित्व के द्वंद्व को बड़ी संवेदनशीलता से चित्रित करती हैं।
"बेटियाँ जब घर से विदा होती हैं,
वे सिर्फ़ एक कमरा ख़ाली नहीं करतीं,
वे अपने साथ ले जाती हैं
पूरे घर की अनकही मुस्कानें।"
भाषा और शिल्प
कवयित्री की सबसे बड़ी शक्ति उनकी भाषा की सरलता और सपाटबयानी है। उनकी शैली आडंबर से मुक्त है, जो पाठक को सीधे कविता के मर्म तक पहुँचाती है। वे रोज़मर्रा के बिम्बों (इमेजरी) का प्रयोग इतनी कुशलता से करती हैं कि पाठक को लगता है जैसे वह अपने ही जीवन के किसी दृश्य को देख रहा हो। उनकी कविताएँ कथात्मक प्रवाह रखती हैं, जहाँ भावनाएँ बिना किसी लाग-लपेट के व्यक्त होती हैं।
संग्रह में नारी-विमर्श की चेतना मुखर है, लेकिन वह आक्रोशित या उग्र नहीं, बल्कि शांत और चिंतनशील है। यह विमर्श सवाल पूछता है, संघर्ष की बात करता है, पर अंततः आत्म-शक्ति और लचीलेपन (resilience) पर ज़ोर देता है। वे उन अनगिनत स्त्रियों की आवाज़ बनती हैं जो अपने हिस्से के आसमान की तलाश में हैं।
मुख्य आकर्षण
साझा अनुभव: संग्रह का केंद्रीय विचार यह है कि हर स्त्री का संघर्ष दूसरी स्त्री के संघर्ष से जुड़ा हुआ है। यह 'साझेदारी' दुख में सहानुभूति और सुख में सामूहिक उत्सव का भाव पैदा करती है।
दार्शनिक गहराई: सामान्य लगने वाले विषयों के भीतर भी कवयित्री जीवन के गहरे दार्शनिक पहलुओं को छूती हैं, जैसे समय का बहाव, रिश्तों की नश्वरता और प्रेम की चिरंतनता।
संबंधों की जटिलता: माँ और बेटी, सास और बहू, दो बहनों के बीच के रिश्ते—इन सभी संबंधों की परतें कविता में खोली गई हैं।
निष्कर्ष
'साझे की बेटियाँ' समकालीन हिंदी कविता के पाठकों के लिए एक ज़रूरी संग्रह है। यह हमें न केवल स्त्री-जीवन के प्रति संवेदनशील बनाता है, बल्कि यह भी सोचने पर मजबूर करता है कि हम सब कैसे 'साझे' की दुनिया में रहते हैं। यह संग्रह सुनीता करोथवाल की परिपक्व काव्य-यात्रा का प्रमाण है और निश्चित रूप से पाठकों के हृदय में एक अमिट छाप छोड़ेगा।

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