अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और जीवन-कर्म के बीच की दूरी को निरंतर कम करने की कोशिश का संघर्ष....
Friday, November 19, 2010
A person in power and responsibility
Monday, November 15, 2010
स्वाभिमानी बालक
उसके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए। जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लड़के ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गया। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पास खड़े मल्लाहों ने भी लड़के को रोकने की कोशिश की।
उस लड़के ने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए वह नदी में तैरने लगा। पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह लड़का रुका नहीं, तैरता गया। कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गया।
उस लड़के का नाम था 'लालबहादुर शास्त्री'।
Thursday, November 11, 2010
छठ पूजा आज से शुरू
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आस्था का महा पर्व छठ आज से .
वर्ष भर इंतजार के बाद छठ पूजा का पर्व बुधवार (आज) से शुरू हो रहा है। श्रद्धालु और व्रती छठ मैया को मनाने में जुट जाएंगे। चार दिन तक पर्व चलेगा। मुख्य रूप से यह भोजपुर क्षेत्र का त्योहार माना जाता है, लेकिन धीरे-धीरे पूरे देश के साथ विदेशों में भी यह पर्व मनाया जाने लगा है। बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली समेत देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को पूरे भक्तिमय वातावरण में सूर्य की उपासना का पर्व छठ मनाया जाता है, जिसकी शुरुआत द्वापर काल से होने का उल्लेख है। छठ पूजा के इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो इसका प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है। प्राचीन काल में इसे बिहार और उत्तर प्रदेश में ही मनाया जाता था। लेकिन आज इस प्रान्त के लोग विश्व में जहाँ भी रहते हैं वहाँ इस पर्व को उसी श्रद्धा और भक्ति से मनाते हैं। | |
छठ का पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी ( पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है। तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी करती हैं इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धो कर ही जाते हैं यही नही तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं। पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ ( बिहार में इसे खजूर कहते हैं। यह बाजरे के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा होता है), नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/ पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हो गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ अपने बाल धो कर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं। छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत ( उपवास) रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की बखीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा ( मिट्टी के बर्तन) में बखीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में बखीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बाँटा जाता है। तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं, में पूजा का सभी सामान डाल कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक, तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल, पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं। पुरूष, महिलाएँ, बच्चों की टोली एक सैलाब की तरह दिन ढलने से पहले नदी के किनारे सोहर गाते हुए जाते हैं :- सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएँ हाथ में सामान से भरा सूप ले कर सूर्य देव की आराधना व पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएँ अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ देते हैं लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान ले कर घर आ जाते हैं। घर पहुँच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएँ प्रसाद ले कर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है। छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छ: दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है कि कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है। छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश के हर कोने में किया जाता है दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई चेन्न्ई जैसे महानगरों में भी समुद्र किनारे जन सैलाब दिखाई देता है पिछले कई वर्षों से प्रशासन को इसके आयोजन के लिए विशेष प्रबंध करने पड़ते हैं। इस पर्व की महत्ता इतनी है कि अगर घर का कोई सदस्य बाहर है तो इस दिन घर पहुँचने का पूरा प्रयास करता है। मात्र दिल्ली से इस वर्ष 6 लाख लोग छठ के अवसर पर बिहार की तरफ गए। देश के साथ-साथ अब विदेशों में रहने वाले लोग अपने -अपने स्थान पर इस पर्व को धूम धाम से मनाते हैं। पटना में इस बार कई लोगों ने नए प्रयोग किए जिसमें अपने छत पर छोटे स्वीमिंग पूल में खड़े हो कर यह पूजा की। उनका कहना था कि गंगा घाट पर इतनी भीड़ होती है कि आने जाने में कठिनाई होती है और सुचिता का पूरा ध्यान नहीं रखा जा सकता। लोगों का मानना है कि अपने घर में सफाई का ध्यान रख कर इस पर्व को बेहतर तरीके से मनाया जा सकता है। छठ माता का एक लोकप्रिय गीत है-- केरवा जे फरेला गवद से ओह पर सुगा मंडराय |
कहते हैं कि लोग उगते हुए सूर्य को प्रणाम करते हैं लेकिन यह ऐसा अनोखा पर्व है, जिसकी शुरुआत डूबते हुए सूर्य की अराधना से होती है। इस साल हालांकि महंगाई के जोर पकड़ने के बावजूद लोगों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई है। जानी मानी भोजपुरी लोक गायिका प्रो. शारदा सिन्हा छठ की महिमा एवं महंगाई को गीतों के माध्यम से व्यक्त करते हुए कहती हैं, 'नाही छोड़ब हो भइया छठिया बरतिया, लेले अइहा हो भइया छठ के मोटरिया। अबकी त बहिनी महंग भइल गेहूंआ..छोड़ी देहु ए बहिनी छठ के बरतिया।'
श्रीमती सिन्हा ने कहा कि भक्ति एवं शुद्धता को विशेष रूप से महत्व देने वाले छठ पर्व के प्रारंभ का उल्लेख द्वापर काल में मिलता है। कहा जाता है कि सूर्य पुत्र अंगराज कर्ण सूर्य के बड़े उपासक थे और वह नदी के जल में खड़े होकर भगवान सूर्य की पूजा करते थे। पूजा के पश्चात कर्ण किसी याचक को कभी खाली हाथ नहीं लौटाते थे। उन्होंने कहा कि छठ पर्व की शुरुआत कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को नहाय-खाय से शुरू हो जाती है जब छठव्रती स्नान एवं पूजा पाठ के बाद शुद्ध अरवा चावल, चने की दाल और कद्दू की सब्जी ग्रहण करते हैं।
इस वर्ष छठ पर्व में संध्या अर्घ्य 12 नवंबर को और प्रात: काल का अर्ध्य 13 नवंबर को है। बीते कल यानी बुधवार को नहाय खाय के तौर पर व्रतियों के साथ-साथ आम श्रद्धालुओं व लोगों ने छठ पूजा की विधिवत शुरुआत की। बृहस्पतिवार को खरना के तौर पर पूजा की जाएगी। व्रतियों के लिए आज से ही व्रत करने की शुरुआत होगी।
पंचमी को दिनभर खरना का व्रत रखकर व्रती शाम को गुड़ से बनी खीर, रोटी और फल का सेवन करते हैं। इसके बाद शुरू होता है 36 घंटे का निर्जला व्रत। महापर्व के तीसरे दिन शाम को व्रती डूबते सूर्य की अराधना करते हैं जब व्रती अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देते हैं। पूजा के चौथे दिन व्रतधारी उदयीमान सूर्य को दूसरा अर्घ्य समर्पित करते हैं। इसके पश्चात 36 घंटे का व्रत समाप्त होता है और व्रती अन्न जल ग्रहण करते हैं। इस अर्ध्य में फल, नारियल के अतिरिक्त ठेकुआ का काफी महत्व होता है।
नहाय-खाय की तैयारी के दौरान महिलाओं के एक ओर जहां गेहूं धोने और सुखाने में व्यस्त देखा जा सकता है वहीं महिलाओं के एक हुजूम को बाजारों में चूड़ी, लहठी, अलता और अन्य सुहाग की वस्तुएं खरीदते देखा जा सकता है। बिहार के औरंगाबाद जिले के पौराणिक देव स्थल में लोकपर्व कार्तिक छठ पर्व पर चार दिवसीय छठ मेले की भी शुरुआत हो गई। यहां त्रेतायुग में स्थापित प्रचीन सूर्य मंदिर में वृदह सूर्य मेले का आयोजन किया जाता है।
Tuesday, November 9, 2010
दबंग करते है
Thursday, November 4, 2010
नवंबर महीने में जन्म
आप सबके बीच सामंजस्य बैठाने का काम बखूबी निभाते हैं। अक्सर दोस्तों के पैचअप करवाने की जिम्मेदारी आपकी होती है। यूँ तो दुनिया आपको बड़े ही शांत और सौम्य रूप में जानती है लेकिन जिसने आपका गुस्सा देखा है वही जानता है कि आपके भीतर कितना तूफान भरा है। इसकी वजह से आप कम उम्र में ही ब्लड प्रेशर जैसी बीमारी का शिकार हो सकते हैं।
आप दोस्तों के लिए कुछ करें या ना करें दोस्त आप पर जान लुटाने के लिए तैयार खड़े रहते हैं क्योंकि आपके भोलेपन के वे कायल होते हैं। आपकी तरक्की से जलने वालों के लिए चेतावनी है कि नवंबर वालों के दुश्मन सीधे मुँह की खाते हैं अत: सावधान। नवंबर माह में जन्में युवाओं में प्यार का अथाह सागर होता है। जिसे प्यार करेंगे वह अगर ना मिल पाए तो भी उसे भूल नहीं पाएँगे। और जो अगर प्यार मिल जाए तो उसकी खुशी के लिए खुद को मिटाकर भी तृप्त नहीं होते। फिर वही बात कि अत्याधिक दयालु जो होते हैं।
कुछ युवा जो नवंबर में जन्मे हैं और जिनकी राशि वृश्चिक या मेष है उन पर कंजूस होने का आरोप लग सकता है अन्यथा सामान्यत: नवंबर के युवा दिल के इतने उदार होते हैं कि सामने वाले के चेहरे पर मुस्कान देखने के लिए खुद की जेब खाली करके भी खुश रहते हैं।
पैसा इनके पास जितना भी आए, सेविंग के तरीके खोज ही लेते हैं। पूरी तरह से खाली ये कभी नहीं होते। इनके किसी ना किसी पर्स या पेंट की जेब से पैसे निकल ही आएँगे। थोड़ी व्यग्रता पर कंट्रोल कर ले तो इनके जैसा करीने से रहने वाला मिलना मुश्किल है। हर काम सुव्यवस्थित और साफ-सुथरा। इनके बचपन से लेकर अबतक के छोटे से छोटे डॉक्यूमेंट भी किसी फाइल में सुरक्षित रखे मिल जाएँगे। यहाँ हम आपको थोड़ा सा सनकी कह सकते हैं। कुछ-कुछ कन्फ्यूज्ड और कुछ-कुछ क्रिएटिव।
अतीत से इन्हें गहरा लगाव होता है। अपनी हर पहली बात या पहली चीज अपनी स्मृति में संजोकर रखते है। अक्सर इस माह में जन्मे लोग संवेदनशील लेखक, पुलिस, पत्रकार, कलाकार, सर्जन या गुप्तचर विभाग में होते हैं। मन इनका बच्चों की तरह होता है इसीलिए बच्चों से इन्हें बेहद प्यार होता है।
इनका इंटि्यूशन पॉवर तो माशाअल्लाह होता है। किसी बात का पूर्वाभास होना या सूरत देखकर आदमी की फितरत पहचानना इनके लिए आसान होता है। आकर्षक मुखाकृति और मासूमियत के कारण नौकरी हो या घर, प्यार हो या दोस्ती, इनके सौ गुनाह माफ कर दिए जाते हैं। अपने बालों का इन्हें विशेष ख्याल रखना चाहिए वरना गंजे हो सकते हैं। बड़ी-बड़ी हाँकने की प्रवृत्ति से भी थोड़ा बचें तो सही वक्त पर सही जीवनसाथी मिल जाएगा।
यही वजह है कि अपने दुख के लिए कभी दूसरों का कंधा इस्तेमाल नहीं करती। बेमिसाल सहनशक्ति के कारण जीवन की हर जंग जीत लेती है। अभिव्यक्ति थोड़ी सी कमजोर होती है इसलिए उम्मीद करती है कि इनके आसपास के लोग इनकी बात स्वयं समझ लें। लोग जब इन्हें समझ नहीं पाते हैं तो ये झल्ला पड़ती हैं।
नवंबर माह वालों के लिए सलाह है कि वे अपनी कम्युनिकेशन स्किल सुधारें क्योंकि इसकी वजह से अक्सर लोग आपको गलत समझ लेते हैं। अपने सौम्य स्वरूप का गलत फायदा ना उठाएँ बल्कि सच्चाई और ईमानदारी आपकी ताकत है उसका इस्तेमाल करें।
कल्पना लोक से बाहर आएँ जिंदगी के कई रंग बस आप ही के लिए खिले हैं आप को उन्हें समय पर पहचानना है। हमारी शुभकामनाएँ।
लकी नंबर : 3, 1, 7
लकी कलर : पिंक, सफेद और चॉकलेटी
लकी डे : गुरुवार और मंगलवार
लकी स्टोन : पर्ल और मून स्टोन
सुझाव : तेल में अपना चेहरा देखकर मंदिर में दान करें रूकावटें दूर होंगी।
तुम बिन सब अधूरा होगा
वो ही सितारों का कारवां होगा
फिर वो ही बहारें होगी
वो ही फूलों का नजारा होगा
सब कुछ होगा मगर फिर भी
तुम बिन सब अधूरा होगा
फिर वो ही गाँव और चौबारा होगा
वो ही पनघट का नजारा होगा
फिर वो ही आपस में बतियाती सहेलीयां होगी
वो खिलखिलाहट और मुस्कानें होगी
सब कुछ होगा मगर फिर भी
एक चेहरा वहाँ नहीं होगा
फिर वो ही पीपल की छाँव होगी
वो ही इंतज़ार होगा
फिर वो ही दोपहर की धूप होगी
वो ही तेरी यादें होगी
सब कुछ होगा मगर फिर भी
जब तू नहीं होगा तो कुछ नहीं होगा
फिर वो ही डायरी होगी
वो ही तेरा नाम होगा
मगर हाथ ना अब उठेंगे
आँखों से अश्कों का इक नया रिश्ता होगा
डूबते दिल को तेरी यादों का सहारा होगा
फिर वो ही महफिले होगी
वो ही ग़ज़लों का सफ़र होगा
फिर वो ही शमा होगी
मगर इक आवाज ना होगी , जब
अंजन उस महफ़िल में ना होगा
सफल कौन है?
इस प्रश्न का उत्तर आपको अलग-अलग ही मिलेगा, जैसे कि कोई, कार्यकर्ता को, तो कोई बिजनेसमैन, तो कोई क्लर्क या विद्यार्थी को सफल मानेगा। किसी के लिए एक ही सफलता काफी है, तो दूसरे के लिए एक सफलता के बाद दूसरी सफलता और फिर तीसरी, चौथी..।
तो फिर पूर्ण सफलता क्या है? इस शब्द को मनोवैज्ञानिक, व्यवहार वैज्ञानिक, दार्शनिक, धर्म, समाज वैज्ञानिक, मानवशास्त्री, प्रेरक गुरु सभी अपने-अपने तरीके से परिभाषित करते हैं। समाज विज्ञान इसे सिर्फ बोध की स्थिति बताता है। समाज वैज्ञानिकों के अनुसार सफलता का सोच है, एक अवधारणा जो उसे महसूस करने वाले पर निर्भर करती है।
सफलता वह स्थिति है जहां व्यक्ति स्वयं को देखना चाहता है। किसी के लिए नई बढ़िया कार, विदेश में छुट्टियां मनाना, नया घर, नई नौकरी सफलता के दायरे में आती है। अगर उसके पास ये सारी चीजें नहीं होतीं तो वह उन्हें पाने के लिए संसाधनों और अवसरों की तलाश में जुट जाता है। कुछ लोगों को बहुत ज्यादा पैसे, कमाई, स्वतंत्रता, ऐश्वर्य जैसी चीजों की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे लोग जीवन में मिली छोटी-छोटी चीजों से सफलता का अनुभव करते हैं।
मनोवैज्ञानिक डा. निक एरिजा कहते हैं, "किसी चीज को पाना आंतरिक स्थिति है न कि बाहरी। यह सच है कि बाहरी चीजें आंतरिक स्थिति को प्रेरणा देती हैं, लेकिन अंतत: जो सफलता अंतर्मन में महसूस होती है, वही सबसे महत्वपूर्ण है।" कुछ लोग सफलता और धन को एक मान लेते हैं।
अर्थशास्त्री जॉन मार्क्स रुपयों के बल पर हर ख्वाहिश पूरी कर लेने की ताकत रखने वाले को सफल मानते हैं। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में कहा है कि सामान्य के बीच अपनी योग्यता को साबित करना ही सफलता है। वहीं दुनियाभर के साधु-महात्माओं ने उन व्यक्तियों को सफल माना है जो सांसारिक चीजों से ऊपर उठकर सोचते हैं। भारतीय विद्वानों के अनुसार सफल वहीं है, जिसने अपनी इच्छाओं पर काबू पा लिया है। समाज विज्ञानी इसे तुलनात्मक स्थिति मानते हैं।
समाज वैज्ञानिक केविन मेक्कैली का कहना है कि सफलता एक अमूर्त विषय हैं। इसे मापने के लिए कोई तराजू उपलब्ध नहीं है। फिर भी लोग इसे नापते हैं। सफलता को नापने का मीटर उनकी संस्कृति व आर्थिक स्थिति होती है। इन्हीं तत्वों को आधार मानकर वे अपनी तुलना दूसरे व्यक्ति से करते हैं और अपनी सफलता या असफलता का निर्धारण करते हैं।
व्यवहार विज्ञानी गेरी रेयान सफलता का अर्थ समझने के लिए सबसे पहले मनुष्य की प्रकृति को समझने की बात करते हैं। उनके अनुसार हर मनुष्य को सोचने, समझने, समीक्षा व प्रतिक्रिया करने का तरीका अलग-अलग होता है। इसमें शरीर के तीनों भाग - शरीर, आत्मा एवं प्रवृत्ति काम करते हैं। यही उन्हें सफलता का आभास भी दिलाते हैं।
सफलता का रहस्य मनुष्य की सोच और सफलता को देखने की क्षमता में छिपा है। अमेरिकी मनोविज्ञान के पिता विलियम जेम्स कहते हैं - "हम जो सोचते हैं, उसे हासिल कर सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के अंदर भावनाओं की ऐसी अंतहीन शक्ति है, जो उसे किसी भी समस्या से लड़ने में मदद करती है। वह अपनी सारी कमजोरियों से बाहर आ सकता है। आर्थिक निर्भरता प्राप्त कर सकता है। आध्यात्मिक रूप से जाग्रत हो सकता है। हर चीज जिसका संबंध सफलता से है वह हासिल कर सकता है। यह सफलता का स्रोत हर व्यक्ति में उपलब्ध है, जिसे वे सफलता कंपास से समझाते हैं।"
जेम्स के मुताबिक यह कंपास प्राकृतिक रूप से आपके अंदर उपलब्ध होता है, और हमेशा सही दिशा दिखने का काम करता है। यह कंपास भौगोलिक दिशा दिखाने की जगह सफलता का मार्ग बताता है। कोई भी व्यक्ति इसके जरिए यह जान सकता है कि उसके पास सफल होने के लिए कितनी क्षमता है। एक तरह से यह सफलता की आधारशिला भी तैयार करता है। सफलता का मार्ग दिखाने में इसका उपयोग सबसे अधिक तब किया जा सकता है जब आप सफलता और असफलता की धुंध में खो जाएं। यह दिमाग को विकल्प खोजने में मदद करता है। अब्राहम लिंकन ने एक बार कहा था - 'सफल लोगों का प्रतिशत तब बढ़ सकता है जब वे अपने दिमाग को उस काम के लिए तैयार कर लें।'
आस्ट्रेलिया के मनोवैज्ञानिक एलन रिचर्डसन द्वारा बास्केटबॉल खिलाड़ियों पर किया गया प्रयोग भी इस बात का समर्थन करता है, जिसमें उन्होंने खिलाड़ियों को तीन समूहों अ, ब, स में बांट दिया। समूह 'अ' को उन्होंने प्रतिदिन 20 मिनट तक फ्री थो का अभ्यास करने का अवसर दिया। समूह 'ब' को उन्होंने अभ्यास न करने की सलाह दी और 'स' को रोज 20 मिनट तक मानसिक रूप से अभ्यास करने को कहा। शोध के अंद में पाया गया कि 'अ' समूह के खिलाड़ियों की फ्री थ्रो क्षमता में 25 प्रतिशत तक का सुधार आया। आशा के अनुरूप समूह 'ब' के लोगों में कोई सुधार नहीं था। लेकिन समूह 'स' के लोगों में 24 प्रतिशत तक सुधार पाया गया जो 'अ' समूह के बराबर था, जबकि वे बास्केटबॉल कोर्ट में गए ही नहीं। यह प्रयोग साबित करता है कि हमारा दिमाग कठिन से कठिन लक्ष्य को भी पूरा कर सकता है। बस आप हर दम तैयार रहें।साभार :सहारा समय
लेखक फिल कोविंगटन इस बात को और पुख्ता करते हैं। उनके अनुसार हमारे अंदर सफलता की दो अवस्थाएं होती हैं, पहली यह हमाने निर्णय पर आधारित होती है, जिसमें हम यह सोचते हैं कि सफलता हमारे लिए क्या है? और दूसरा वह बोध जिसमें हम जानते हैं कि इसके लिए हम क्या अच्छा कर सकते हैं? इसका मतलब यह हुआ कि वास्तविक सफलता का साधन आंतरिक व मानसिक स्थिति है। लेकिन तंत्रिका विज्ञान और व्यवहार विज्ञान इसे मानसिक स्थिति न कहकर भावनात्मक स्थिति कहता है।
सफलता के गुर बताने वाले ज्यादातर परामर्शदाता इस बात पर जोर देते हैं कि 'भावनात्मक समझ' सफलता व जीवन में खुशियों की बेहतर भविष्यवक्ता होती है। यह तार्किक समझ से ज्यादा सटीक होती है। विज्ञान इस बात की पुष्टि करता है कि आकर्षण ही सफलता हासिल करने के लिए प्रेरित करता है, जिसकी वजह से आपको बा' चीजों पर बहुत अधिक निर्भर नहीं रहना पड़ता।
तंत्रिका विज्ञान और व्यवहार विज्ञान ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया है कि जब हम किसी चीज से भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं - तब अपने दिमाग के तंत्रिका तंत्र को शारीरिक रूप से उस चीज के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित कर देते हैं। इस न्यूरोबायोलॉजिकल खोज को पारलौकिक लेखक सदियों से 'आकर्षण का कानून' कहते रहे हैं। इस प्राचीन कानून को यदि आधुनिक विज्ञान की भाषा में कहें तो इसका मतलब हुआ हम उसी चीज के प्रति आकर्षित होते हैं, जिस पर हम भावनाओं को जानबूझकर केंद्रित करते हैं।
ऐसा करते समय हम उस चीज पर सीधे ध्यान केंद्रित करने के लिए दिमाग के तंत्रिका तंत्र को मजबूती प्रदान करते हैं। इस तरह दिमाग सपनों को पूरा करने की मशीन बन जाता है। ऐसे कई लोग हैं जो कॉलेज या स्कूल की पढ़ाई के दौरान बहुत मेधावी छात्र रहे, लेकिन वे जीवन में सफल नहीं कहलाए। ऐसे व्यक्ति जीवन स्तर को उठाने वाली चीजों से भावनात्मक रूप से जुड़ नहीं पाते। उनमें किसी चीज को पाने की भावनात्मक वचनबद्धता की कमी रहती है।
वहीं कमजोर या सामान्य बुद्धि के छात्र बड़े पदों पर पहुंच जाते हैं, या बड़े व्यापारी बन जाते हैं। सफल और खुशहाल जीवन जीने के लिए उन्हें जोश की भावना कुछ पाने के लिए सीधे प्रेरित करती है। हम इसे कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं कि गरीबी से दूर भागने या आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा काम कर सकता है। अरस्तू के शब्दों में कहें तो आवेग से प्रेरित लोग कहीं ज्यादा साहसी, उत्साह और आशा से भरे हुए होते हैं। शुरुआत में आवेग उन्हें डरने से रोकता है, जबकि बाद में उन्हें आत्मविश्वास के साथ प्रेरित करता है।
मनोवैज्ञानिक जॉजन गार्टनर इसका संबंध आनुवांशिक गुण से बताते हैं। उनका कहना है कि सफलता प्राप्त करने का गुण आनुवांशिक होता है। व्यक्ति में पहले सफलता प्राप्त करने का गुण मौजूद रहता है, जो इसे माता-पिता से मिलता है। लैलॉग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के संस्थापक शेफस्काई इस विचार को सिरे से खारिज करते हैं। वह कहते हैं, 'सफल व्यक्ति का इतिहास इस बात का गवाह है कि सफलता वंशानुगत नहीं होती व जीन, आयु, रंग इत्यादि पर निर्भर न करके व्यक्ति प्रयासों पर निर्भर करती है।'
अनगिनत अध्ययनों में यह बात साबित हुई है कि लोगों का उत्तराधिकार, अचानक लॉटरी या और किसी तरह से मिलने वाला पैसा कुछ सालों में खत्म हो जाता है और उन्हें अपनी शुरुआत शून्य से करनी होती है।
शेफस्काई की बात वजनदार लगती है। अब्राहम लिंकन, महात्मा गांधी और धीरूभाई अंबानी जैसी अनगिनत हस्तियां हैं, जहां इस वंशानुगत गुण का उनकी सफलता से कोई वास्ता नहीं है।
समाजविज्ञानी भी वंशानुगत सफलता की बात को नकारते हैं। इनके अनुसार सफलता व्यक्तिगत होती है, जो अपनी बुद्धि, प्रयास और संरचनात्मक पर निर्भर करती है। छात्र से लेकर शोधकर्ता, क्लर्क से लेकर किसी कंपनी के सीईओ तक को आगे बढ़ने के लिए बुद्धि या मस्तिष्क की शक्ति की आवश्यकता पड़ती है।
अगर तंत्रिका-तंत्र शोधकर्ताओं की बात मानें तो दिमाग मांसपेशी की तरह है, जिसकी क्षमता को जितना चाहें उतना बढ़ाया जा सकता है। यह जितना इस्तेमाल होगा, उतना शक्तिशाली बनेगा।
कदम-कदम पर मिली सफलता जहां एक ओर लोकप्रिय बनाती है, वहीं दूसरी तत्व यह भी है कि सफल व्यक्ति के अंदर अपनी लत भी डाल देती है। सफलता के आदी बन चुके लोगों के लिए सफलता की लत शब्द का प्रयोग करना गलत नहीं होगा। स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल कहते हैं कि 'एक के बाद दूसरी सफलता के पीछे दौड़ने का मतलब है, आप किसी अवसर को छोड़ना नहीं चाहते। मैं भी किसी अवसर को छोड़ना नहीं चाहता हूं।' शोधकर्ता कहते हैं कि आपके अगले कदम के आगे आपकी पिछली सफलता चलती है, जिस कारण कई काम वैसे ही आसान हो जाते हैं।
असफलता का डर मनोवैज्ञानिक डर है, जो व्यक्ति को पहले ही हार मानने के लिए उकसाता है। खेल मनोविज्ञान के अनुसार, सफलता की तरह असफलता भी आंतरिक धारणा है। यह प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक स्थिति का भाग है। आप अपने अंदर विजय भावना लेकर चलते हैं। खेल मनोवैज्ञानिक पीटर जेनसन बेनरीड ने ओलंपिक खिलाड़ियों पर किए अध्ययन में पाया कि खेल में जीत से मात्र एक पल पहले खिलाड़ी पर किए गए अध्ययन में पाया कि खेल में जीत से मात्र एक पल पहले खिलाड़ी इस बात को स्वीकार कर लेता है कि वह हारेगा या जीतेगा।
अंतत: परिणाम भी उसी के अनुसार आता है। यह बात आम लोगों की जिंदगी पर भी लागू होती है। एक छोटा-सा पल जो जीत से एक कदम दूर होता है, इस पल में जो भी निर्णय हम लेते हैं वह या तो असफलता का कलंक लगा जाता है या विजयमाला पहनाता है।
प्रसिद्ध लेखक गेरी सिम्पसन सफलता के गणित के आधार पर इस बात को प्रमाणित करते हैं। यदि आप सफलता के लिए मानसिक रूप से मात्र 95 प्रतिशत तैयार हैं यानी उस सफलता के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है तो यह स्थिति सफलता के प्रतिशत को शून्य कर देती है। गेरी के गणितीय सिद्धांत के अनुसार समझें तो शून्य का 95 प्रतिशत शून्य होता है।
अधिकतर लोग सफल होने से रह जाते हैं और उनका प्रयास शून्य पर आकर खत्म हो जाता है। हाथ आती है तो सिर्फ असफलता। असफलता की तरह सफलता भी एक गतिशील स्थिति है। आज अगर सफल हैं तो कल असफल भी हो सकते हैं। सफल व्यक्तियों ने अपनी सफलता के मूलमंत्र के रूप में एक बात जरूर कहीं है - 'सफलता पाना जितना कठिन है उतना ही कठिन उसे बनाए रखना भी है।' इस डर से कि आप हार जाएंगे, सफलता के लिए कोशिश न करना सबसे बड़ी हार होगी।
Wednesday, November 3, 2010
बात पिछली दीपावली की है।
बात पिछली दीपावली की है। भूल गया था, पर इस बार दीपावली की धूमधाम शुरू होते ही याद आ गई। घर को सजाया सँवारा गया, बच्चों के लिए नए कपड़े बने। कुल मिलाकर यह कि दीपावली की रात पूरी सोसायटी में गुप्ता परिवार की रात होनी तय थी। चमकेंगी तो गुप्ता मैडम, घर सजेगा तो हमारे गुप्ता जी का, सलोने लगेंगे तो गुप्ता जी के बच्चे, यानी ये दीवाली केवल गुप्ता जी की होगी ये तय था। समय घड़ी के काँटों पे सवार दिवाली की रात तक पहुँचा, सभी ने तयशुदा मुहूर्त पे पूजा पाठ की। उधर सारे घरों में गुप्ता जी के बच्चे प्रसाद (आत्मप्रदर्शन) पैकेट बांटने निकल पड़े । जहाँ भी वे गए सब जगह वाह वाह के सुर सुन कर बच्चे अभिभूत थे किंतु भोले बच्चे इन परिवारों के अंतर्मन में धधकती ज्वाला को न देख सके। ईर्ष्यावश सुनीति ने सोचा बहुत उड़ रही है प्रोतिमा गुप्ता, क्यों न मैं उसके भेजे प्रसाद-बॉक्स दूसरे बॉक्स में पैक कर उसे वापस भेज दूँ, यही सोचा बाकी महिलाओं ने और नई पैकिंग में पकवान वापस रवाना कर दिए श्रीमती गुप्ता के घर। यह कोई संगठित कोशिश न ही बदले की भावना बल्कि एक स्वाभाविक आंतरिक प्रतिक्रया थी, जो सार्व-भौमिक सी होती है। आज़कल आम है। कोई माने या न माने सच यही है जितनी नकारात्मक कुंठा इस युग में है उतनी किसी युग में न तो थी और न ही होगी । इस युग का यही सत्य है। दूसरे दिन श्रीमती गुप्ता ने जब डब्बे खोले तो उनके आँसू निकल पड़े जी में आया कि सभी से जाकर झगड़ आऐं किंतु पति से कहने लगीं, "अजी सुनो चलो जगत देव तालाब गरीबों के साथ दिवाली मना आएँ। |
दीपों की बातें
मैंने ध्यान लगा कर सुना। चार दीपक आपस में बात कर रहे थे। कुछ अपनी सुना रहे थे कुछ दूसरों की सुन रहे थे। पहला दीपक बोला, 'मैं हमेशा बड़ा बनना चाहता था, सुंदर, आकर्षक और चिकना घड़ा बनना चाहता था पर क्या करूँ ज़रा-सा दिया बन गया।'
दूसरा दीपक बोला, 'मैं भी अच्छी भव्य मूर्ति बन कर किसी अमीर के घर जाना चाहता था। उनके सुंदर, सुसज्जित आलीशान घर की शोभा बढ़ाना चाहता था। पर क्या करूँ मुझे कुम्हार ने छोटा-सा दिया बना दिया।'
तीसरा दीपक बोला, 'मुझे बचपन से ही पैसों से बहुत प्यार है काश मैं गुल्लक बनता तो हर समय पैसों में रहता।'
चौथा दीपक चुपचाप उनकी बातें सुन रहा था। अपनी बारी आने पर मुस्करा कर अत्यंत विनम्र स्वर में कहने लगा, 'एक राज़ की बात मैं आपको बताता हूँ, कुछ उद्देश्य रख कर आगे पूर्ण मेहनत से उसे हासिल करने के लिए प्रयास करना सही है लेकिन यदि हम असफल हुए तो भाग्य को कोसने में कहीं भी समझदारी नहीं हैं। यदि हम एक जगह असफल हो भी जाते हैं तो और द्वार खुलेंगे। जीवन में अवसरों की कमी नहीं हैं, एक गया तो आगे अनेक मिलेंगे। अब यही सोचो, दीपों का पर्व - दिवाली आ रहा है, हमें सब लोग खरीद लेंगे, हमें पूजा घर में जगह मिलेगी, कितने घरों की हम शोभा बढ़ाएँगे। इसलिए दोस्तों, जहाँ भी रहो, जैसे भी रहो, हर हाल में खुश रहो, द्वेष मिटाओ। खुद जलकर भी दूसरों में प्रकाश फैलाओ, नाचो गाओ, और खुशी-खुशी दिवाली मनाओ।:--नीरज त्रिपाठी
हार्दिक शुभकामनाएं।
इस दीपावली विशेष ध्यान दें:
* पटाखों का कम से कम प्रयोग करके, पर्यावरण को वायु प्रदुषण से बचाएं।
* बच्चों को अपनी उपस्थिति मे ही आतिशबाजी जलाने दें।
* आतिशबाजी जलाते समय पानी की बाल्टी पास मे रखें।
* आतिशबाजी जलाते समय सूती कपड़े पहने।
* अपनी जरुरत के मुताबिक ही सामान खरीदें, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बहकावे मे ना आएं।
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!
Monday, November 1, 2010
‘हम तुम्हारे अब भी हैं’
कहने को तो हम, खुश अब भी हैं
हम तुम्हारे तब भी थे, हम तुम्हारे अब भी हैं
रूठने-मनाने के इस खेल में, हार गए हैं हम
हम तो रूठे तब ही थे, आप तो रूठे अब भी हैं
मेरी ख़ता बस इतनी है, तुम्हारा साथ चाहता हूँ
तब तो पास होके दूर थे, और दूरियाँ अब भी हैं
मुझसे रूठ के दूर हो, पर एहसास तो करो
प्यासे हम तब भी थे, प्यासे हम अब भी हैं
इस इंतज़ार में मेरा क्या होगा, तुम फिक्र मत करना
सुकून से हम तब भी थे, सुकून से हम अब भी हैं
बस थोड़ा रूठने के अंजाम से डरते हैं
डरते हम तब भी थे, डरते हम अब भी हैं
हमारी तमन्ना कुछ ज़्यादा नहीं थी, जो पूरी न होती
कम में गुज़ारा तब भी था, कम में गुज़ारते अब भी हैं
चलते हैं तीर दिल पे कितने, जब तुम रूठ जाते हो
ज़ख्मी हम तब भी थे, ज़ख्मी हम अब भी हैं
मेरी मासूमियत को तुम, ख़ता समझ बैठे हो
मासूम हम तब भी थे, मासूम हम अब भी हैं
आप हमसे रूठा न करें, बस यही इल्तिजा है
फ़रियादी हम तब भी थे, फ़रियादी हम अब भी हैं
तुम हो किस हाल में, कम से कम ये तो बता दो
बेखब़र हम तब भी थे, बेखब़र हम अब भी हैं
कोई आँसू बहाता है’
कोई आँसू बहाता है, कोई खुशियाँ मनाता है
ये सारा खेल उसका है, वही सब को नचाता है।
बहुत से ख़्वाब लेकर के, वो आया इस शहर में था
मगर दो जून की रोटी, बमुश्किल ही जुटाता है।
घड़ी संकट की हो या फिर कोई मुश्किल बला भी हो
ये मन भी खूब है, रह रह के, उम्मीदें बँधाता है।
मेरी दुनिया में है कुछ इस तरह से उसका आना भी
घटा सावन की या खुशबू का झोंका जैसे आता है।
बहे कोई हवा पर उसने जो सीखा बुज़ुर्गों से
उन्हीं रस्मों रिवाजों, को अभी तक वो निभाता है।
किसी को ताज मिलता है, किसी को मौत मिलती है
ये देखें, प्यार में, मेरा मुकद्दर क्या दिखाता है।