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Wednesday, September 9, 2009

 

 

 

जब कभी मैंने किसी को अपना बनाया है
रह रह के उसमें बस सपना ही नज़र आया है
भले ही बढ़के उसको सीने से खुद लगाया है
पर उसके मिलने में खोखलापन ही पाया है !
सोचा था मिलके उससे चिराग जगमगाएंगे
मेरे गुलिस्तां में भी फूल मुस्कराएंगे
फिर से अतीत के लम्हों को हम दोहराएंगे
नहीं मालूम था सब धूल में मिल जाएंगे !
मैंने दुश्मनों को दोस्तों से बेहतर पाया है
वक्त पड़ने पे दोस्तों ने दामन छुड़ाया है
मुझे फूलों ने हरदम बड़ा रुलाया है
मगर कांटों ने मुझे नींद से जगाया है !
किसी हम्मसाए की दुआ से में ज़िंदा हूं
किसी को चोट दूं मैं नहीं दरिन्दा हूं
उड़े जो आसमान में मैं तो वो परिंदा हूं
किसी को अपना कहके मैं बड़ा शर्मिंदा हूं !
मुझे इंसान में शैतान नज़र आता है
भले ही शांत हो फिर भी तूफान नज़र आता है
किसे अपना कहूं हर शख्स मुझे परेशान नज़र आता है
मुझे तो मेहमान में भी भगवान नज़र आता है

 

 

 

 

   

 

 

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