Friday, November 14, 2025

बिरसा मुंडा: जनजातीय गौरव और स्वतंत्रता संग्राम के महानायक

 परिचय

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में बिरसा मुंडा का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। वे केवल एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि आदिवासी समाज के लिए सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अग्रदूत भी थे। बिरसा मुंडा को 'धरती आबा' (धरती के पिता) के नाम से भी जाना जाता है, और आज भी वे झारखंड, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश के आदिवासी समाज में पूजनीय हैं।

प्रारंभिक जीवन

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलीहातू गाँव में हुआ था। वे मुंडा जनजाति से थे, जो उस समय ब्रिटिश शासन और जमींदारों के अत्याचारों से पीड़ित थी। बिरसा का बचपन गरीबी और संघर्ष में बीता, लेकिन उनमें नेतृत्व की अद्भुत क्षमता बचपन से ही दिखने लगी थी। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा जर्मन मिशन स्कूल से प्राप्त की, लेकिन जल्द ही उन्होंने महसूस किया कि मिशनरी शिक्षा उनके समाज की संस्कृति और पहचान के लिए खतरा है।

 

सामाजिक और धार्मिक सुधार

बिरसा मुंडा ने अपने समाज में व्याप्त अंधविश्वास, नशाखोरी, छुआछूत, और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने अपने अनुयायियों को स्वच्छता, ईमानदारी, और एकता का संदेश दिया। बिरसा ने एक नए धार्मिक आंदोलन की शुरुआत की, जिसे 'बिरसाइट' कहा गया। इसमें एक ईश्वर की पूजा, नैतिकता, और सामाजिक सुधारों पर बल दिया गया। उन्होंने आदिवासियों को अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों और संस्कृति को बचाने के लिए प्रेरित किया।

 

ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह (उलगुलान)

ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू किए गए ज़मींदारी प्रथा और वन कानूनों ने आदिवासियों की ज़मीनें छीन ली थीं। बिरसा मुंडा ने 1895 में 'उलगुलान' (महाविद्रोह) का नेतृत्व किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को संगठित किया और ब्रिटिश अधिकारियों, जमींदारों और मिशनरियों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष छेड़ दिया। उनका उद्देश्य था - "आदिवासियों की ज़मीन आदिवासियों को वापस मिले, और उनके अधिकारों की रक्षा हो।"

बिरसा के नेतृत्व में हजारों आदिवासी एकजुट हुए और उन्होंने कई जगहों पर ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी। 1899-1900 के दौरान यह आंदोलन अपने चरम पर था। ब्रिटिश सरकार ने बिरसा को पकड़ने के लिए कई प्रयास किए और अंततः 3 फरवरी 1900 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

 

शहादत और विरासत

बिरसा मुंडा की मृत्यु 9 जून 1900 को रांची जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में हो गई। वे मात्र 25 वर्ष के थे, लेकिन इतने कम समय में उन्होंने जो प्रभाव छोड़ा, वह आज भी अमिट है। उनके आंदोलन के दबाव में ब्रिटिश सरकार को 'छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट 1908' लागू करना पड़ा, जिससे आदिवासियों की ज़मीन की रक्षा हुई।

आज बिरसा मुंडा केवल झारखंड बल्कि पूरे भारत में आदिवासी अस्मिता, संघर्ष और स्वाभिमान के प्रतीक हैं। उनकी जयंती (15 नवंबर) को 'झारखंड स्थापना दिवस' के रूप में मनाया जाता है। रांची एयरपोर्ट, विश्वविद्यालय, स्टेडियम, अस्पताल आदि का नाम उनके नाम पर रखा गया है।

 

निष्कर्ष

बिरसा मुंडा का जीवन हमें यह सिखाता है कि साहस, नेतृत्व और एकता से किसी भी अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सकती है। वे आज भी सामाजिक न्याय, अधिकारों और स्वतंत्रता के प्रेरणास्त्रोत हैं। बिरसा मुंडा का सपना था - "धरती पर सबका अधिकार हो, कोई शोषित हो, और आदिवासी समाज अपनी पहचान और संस्कृति को बनाए रखे।"

 

"धरती आबा" बिरसा मुंडा को शत-शत नमन!

 

 

 

 

No comments:

Post a Comment


आपकी प्रतिक्रिया और सुझाव