रब जाने अब गाँव में मेरे यार पुराने कैसे हैं।
जिसको छूकर सब हमजोली झूठी क़समें खाते थे
अब वो पीपल कैसा है, वो लोग स्याने कैसे हैं।
छिप-छिपकर तकते थे जिसको अब वो दुल्हन कैसी है
सास, ससुर, भौजी, नंदों के मीठे ताने कैसे हैं।
पहली-पहली बारिश में हर आँगन महका करता था
छज्जों का टप-टप करना, वो दौर सुहाने कैसे हैं।
रोज़ सुबह इक परदेशी का संदेशा ले आती थी
उस कोयल की चोंच मढ़ाने के अफ़साने कैसे हैं।
दिन भर जलकर और जलाकर सूरज का वो ढल जाना
शाम की ठंडी तासींरे, चौपाल के गाने कैसे हैं।
परबत वाले मंदिर पे क्या अब भी मेला भरता है
घर से बाहर फिरने के सद शोख़ बहाने कैसे हैं।
हम तो यारों शहर में आकर सारे रंग उड़ा बैठे
पत्थर के इस जंगल में हम ख़ुद न जाने, कैसे हैं।
साभार : ग़ज़ल ( दिनेश ठाकुर )
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