जो भी आधा और अधूरा शब्द मिला मुझको राहों में
मैने उसको पिरो छन्द में कभी कभी गुनगुना लिया है
जितनी देर टिके पाटल प
टपके हुए भोर के आंसू
उतनी देर टिकी बस आकर
है मुस्कान अधर पर मेरे
जितनी देर रात पूनम की
करती लहरों से अठखेली
उतनी देर रहा करते हैं
आकर पथ में घिरे अंधेरे
किन्तु शिकायत नहीं, प्रहर की मुट्ठी में से जो भी बिखर
आंजुरि भर कर उसे समेटा और कंठ से लगा लिया है
पतझड़ का आक्रोश पी गया
जिन्हें पत्तियो के वे सब सुर
परछाईं बन कर आते हैं
मेरे होठों पर रुक जात
खो रह गईं वही घाटी म्रं
लौट न पाईं जो आवाज़ेंं
पिरो उन्हीं में अक्षर अक्षर
मेरे गीतों को गा जाते
सन्नाटे की प्रतिध्वनियों में लिपटी हुई भावनाओं को
गूंज रहे निस्तब्ध मौन में अक्सर मैने सजा लिया है
यद्यपि रही सफ़लताओं स
मेरी सदा हाथ भर दूरी
मैने कभी निराशाओं का
स्वागत किया नहीं है द्वारे
थके थके संकल्प्प संवारे
बुझी हुई निष्ठा दीपित कर
नित्य बिखेरे अपने आंगन
मैने निश्चय के उजियारे
सन्मुख बिछी हुई राहों का लक्ष्य कोई हो अथवा न हो
मैने बिखरी हुई डगर को पग का सहचर बना लिया है
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