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Friday, September 13, 2019

हिंदी भाषा के विकास में साहित्यकारों की भूमिका

किसी भी भाषा समाज व संस्कृति का ज्ञान उसके साहित्य से होता है। साहित्य व साहित्यकार भाषा, संस्कृति व समाज को आगे बढाते हैं। राष्ट्रभाषा के गौरव को समृद्ध करते है, पहचान दिलाते है हालांकि राष्ट्रभाषा को राष्ट्रभाषा घोषित किये जाने के पीछे उस भाषा का साहित्य नही बल्कि यह देखा जाता है कि उस भाषा को कितने विशाल  स्तर पर जन मानस द्वारा बोला, लिखा व समझा जा रहा है परन्तु उस भाषा को विकसित व लोकप्रिय बनाने में साहित्य कारो  की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

भाषा विचारों की अभिव्यकित का साधन है, बिना भाषा के किसी भी प्रकार की अभिव्यकित असम्भव है। समय के परिवर्तन के साथ-साथ भाषा में भी परिवर्तन अवश्यम्भावी है और भाषा की जीवन्तता का प्रमुख आधार  भी यही है। आदिकाल से आधुनिक काल तक हिन्दी भाषा के इतिहास पर दृषिटपात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि समय के साथ उसके रूप एवं विन्यास में परिवर्तन हुए हैं। आज हिन्दी जिस रूप में हमारे समक्ष है अपने प्रारमिभक दौर में उसका वही रूप नहीं था। इस स्तर तक पहुँचने के लिए साहित्यकारों ने  निरन्तर संघर्ष किया।
आदिकाल में पध ही प्रधान था। गध की भी कोई भाषा होती है इस ओर उनका ध्यान  ही नहीं था। भकितकाल में आदर्श चरित्राों की अवतारणा हुई , मानवीय मूल्यों की महत्ता निर्धरित की गई , भक्ति  के मानदंड स्थापित किये गये। गध की भाषा विकसित करने की ओर इस काल के कवियों का ध्यान  भी नहीं गया। रीतिकाल जीवन की विलासिता से पूर्ण युग था, गध के अनुकूल वातावरण का अभाव वहाँ था। सम्पूर्ण रचनाएँ पध में ही हुई ।

उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों और अंग्रेज़ी भाषा के सम्पर्क में आने पर भाषा के स्तर में परिवर्तन हुआ और बौधिक्ता  का समावेश हुआ। वैचारिक-विमर्श के लिए खड़ी बोली हिन्दी का चयन किया गया क्योंकि देश की दयनीय सिथति की अभिव्यकित में ब्रजभाषा या अन्य भाषा तुच्छ जान पड़ी। अत: नवीन चेतना के जागरण के लिए खड़ी बोली हिन्दी का गध रूप विकसित हुआ।
विस्तृत अर्थ में अगर हिन्दी का अर्थ देखे तो इस भाषा की पांचो उपभाषाएं अर्थात सहायक भाषाओं को भी सम्मिलित माना जाता है व इन सह भाषाओं के अन्तर्गत आने वाली 17 बोलियों को भी। इस प्रकार देखा जाये तो हिन्दी के विकास में इन सहायक भाषाओं का व बोलियों का भी भरपूर योगदान है। ठीक इसी प्रकार साहित्यकारो का भी हिन्दी भाषा को विकसित व समृद्ध बनाने में विषेष योगदान है। साहित्यकारो ने राष्ट्रभाषा में विपुल साहित्य रचकर आम लोगो की व गैर हिन्दी भाषी लोगो की रूचि को इसमें बढाया व इसे रोचक व रसयुक्त बना दिया। हिन्दी में रचे गये उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह, छंद, दोहा, सोरठा, छप्पय, आलेख, शोध पत्र, निबन्ध यहां तक विदेषी भाषाओं के समग्र साहित्य के अनुवाद ने भी राष्ट्रभाषा को जीवन्त बनाया व इसकी जमीन व आसमान को विस्तार दिया। अमीर खुसरो, रासो काव्य, कबीर सूर तुलसी से आधुनिक कविता के प्रारम्भ तक आते आते हिन्दी भाषा एक व्यापक रूप धारण कर लेती है। हालांकि हिन्दी का यह रूप अनेका अनेक उतार चढाव के बावजूद तैयार होता है परन्तु आजादी की लडाई से लेकर आज तक साहित्यकारों, व पत्र पत्रिकाओं ने हिन्दी के विकास में निरन्तर अपना योगदान दिया है।
स्वतंत्रता के साथ साथ हिन्दी के विकास के योगदान में उदंत मार्तडं, वंग दूत, सुधारक समाचार, सुधा दर्पण पत्र पत्रिकाओं के संपादक व लेखको की हिन्दी को भारत व्यापी जनमन की भाषा बनाने में सक्रिय भूमिका रही। भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा इसके युगीन साहित्यकारो की जो विशिष्ट भूमिका रही वो वंदनीय हैं। पीढी दर पीढी साहित्यकार हिन्दी भाषा के विकास एवं उत्थान में अपना योगदान देते आ रहे हैं। न केवल भारत में रहने वाले साहित्यकार बल्कि दुनियाभर में बसे प्रवासी साहित्यकार भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपना उत्तरदायित्व बखुबी निभा रहे हैं
साहित्यकार हिन्दी साहित्य की सेवा में प्रण-प्राण से जुटे हुए है और ये सभी साधु वाद के पात्र है जो मातृ भाषा के प्रति अपने कर्तव्यो का निर्वहन कर रहे हैं।

सप्रेम
विवेक अंजन 

5 comments:

Naval said...

Very good mahoday

Ravindra Pandey said...

Chaa gaye kaviraj.........

Yashraj said...

Superb Dada

Yashraj said...

Suparb dada

Unknown said...

Bht he badhia likha hai.aasha kartae hain ke aap aise he aagae badhtae rahaen!!!

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