हम नहीं वह जो करें दिल से फ़रामोश तुम्हें
जानते अपना हैं हम जाने-दम-ब-होश तुम्हें
चश्मे-मस्त अपनी जो दिखलाए वो मयनोश तुम्हें
जाहिदो! होशो-ख़िरद का न रहे होश तुम्हें
कर चुके आहो-फ़ुगां जब्त तुम, ऐ हजरते-दिल
दम-ब-दम गर है मुहब्बत का यही होश तुम्हें
शब-ए-फ़ुरक़त में भी रहते हो बग़ल में मेरे
रखते हैं अपने तसव्वुर से हम-आग़ोश तुम्हें
आंखें सुरमा से हैं आलूदा तेरी, पूछ इनसे
किसके मातम ने किया है ये सियहपोश तुम्हें
शम्अ-सा गो कि सरापा हो जुबां तुम, लेकिन
देखता हूं ‘जफ़र’, इस बज्म में ख़ामोश तुम्हें
- ओम सारथी, बूंदी (राज)
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