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Friday, September 17, 2010

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,

फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबमें दाँव, बंधु!
....सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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