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Sunday, July 25, 2010

गुलज़ार साहब की लिखी एक कविता

मोड़ पे देखा है वह बूढ़ा-सा इक पेड़ कभी?
मेरा वाक़िफ़ है, बहुत सालों से मैं उसे जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो इक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कंधे पर चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख़ से जा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर

मेरी शादी पे मुझे याद है शाख़ें देकर
मेरी वेदी का हवन गर्म किया था उसने
और जब हामिला थी 'बीबा' तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ कैरियां फेंकी थीं इसी ने

वक्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती 'बीबा'
'हाँ उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है'
अब भी जल जाता हूँ, जब मोड़ गुजरते में कभी
खाँसकर कहता है, 'क्यों सर के सभी बाल गए?'

सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको...


                                   गुलज़ार साहब की लिखी एक कविता

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