कुछ तुम भी मगरूर थे, कुछ मैं भी मगरूर था
अगरचे ना तुम मजबूर थे, ना मैं मजबूर था
एक जिद के झोंके ने दो कश्तियाँ, मोड़ दीं दो तरफ
वरना दूरियों का ये ग़म किस कमबख्त को मंजूर था
खतामंदी का अहसास दफ़न किये हम अपने सीने में
कहाँ तक बहलायें दिल को, सब वक़्त का कुसूर था
ये तो नहीं कि मेरी नज़रों को धोका हो गया
तुम्हारी जानिब से भी हल्का-सा कोई इशारा ज़रूर था
दिल ही मेरा नादाँ निकला, यकीं कर बैठा
यूँ जमाने में शोख नज़रों का मुकर जाना मशहूर था
एक तुझसे ही क्यों हो शिकायत मुझे ज़माने में
हर किसी के जब लब पर यहाँ जी-हुज़ूर था
प्रकाश पंडित
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