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Wednesday, November 29, 2017

मैं और मेरा प्रियतम हो।



दूर कहीं, अम्बर के नीचे,
गहरा बिखरा झुटपुट हो।
वही सलोनी नदिया-झरना,
झिलमिल जल का सम्पुट हो।

नीरव का स्पन्दन हो केवल,
छितराता सा बादल हो।
तरूवर की छाया सा फैला,
सहज निशा का काजल हो।

दूर दिशा से कर्ण उतरती,
बंसी की मीठी धुन हो।
प्राणों में अविरल अनुनादित,
प्रीत भरा मधु गुंजन हो।

उसी अलौकिक निर्जन स्थल पर,
इठलाता सा यह मन हो।
दूर जगत की दुविधा से,
मैं और मेरा प्रियतम हो।

sabhar- 

Tara Singh Ji


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