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Sunday, March 21, 2010

कितने ख्वाब पिघलते हैं.

राहे-मोहब्बत तपती भूमि, जिस्मो-जान पिघलते हैं

आज वफ़ा के मारे राही अंगारों पर चलते हैं।

मेरे मन के नील गगन का रंग कभी ना बदलेगा

देखें तेरे रूप के बादल कितने रंग बदलते हैं।

देख रहे हैं सांझ-सवेरे दिलवालों की बस्ती से

अरमानों की लाशें ले कर कितने लोग निकलते हैं।

खुशियों के परबत पर जब भी गम का सूरज उगता है

आंसू बन कर फ़िर आंखों से कितने ख्वाब पिघलते हैं.


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