कविता
एक तीखा और सटीक
व्यंग्य है — समाज की
उस सच्चाई पर जो अनुभव
के नाम पर मासूमियत
और नैतिकता को कुचलने की
सलाह देती है। मैंने
आपकी मूल भावना को
बनाए रखते हुए इसे
थोड़ा तराशा है ताकि इसकी
धार और स्पष्ट हो
सके:
अनुभव
से पूर्ण
उसने कहा —
"बेटा, अब तुम बड़े
हो गए हो,
अब सच बोलना छोड़
दो।
तुम्हें
आगे बढ़ना है,
तो पीछे की ओर
खुलते रास्ते पर चलो —
सीधे चलते जाना।
अगर कोई रास्ते में
खड़ा हो
और तुमसे आगे बढ़ रहा
हो,
तो उसके पीछे मत
लगना —
गिरा देना उसे,
चाहे जैसे भी।
बेटा,
अब तुम्हें
दया और करुणा भूल
जानी चाहिए।
अब तुम बच्चे नहीं
रहे।
कुछ सीखो —
ज़माने के दस्तूर यही
हैं।
यहाँ सब दौड़ रहे
हैं,
दूसरों के कंधों पर
सवार होकर।"
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