'नमक स्वादानुसार' : पुस्तक समीक्षा
पुस्तक: नमक स्वादानुसार प्रकाशक: हिंदियुग्म, नई दिल्ली लेखक: निखिल सचान
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हिंदी
युग्म प्रकाशन से प्रकाशित, निखिल
सचान के पहले कहानी संग्रह नमक स्वादानुसार के बारे में मैंने एक फ़ेसबुक स्टेटस
लिखा था. तब तक मैंने बस पाँच कहानियाँ ही पढ़ी थीं. बाद में मुझे लगा कि किसी
क़िताब को आधा पढ़कर लिखने का उतावलापन नहीं दिखाना चाहिए था. राहत की बात यह है
कि मैंने बस इतना ही लिखा कि हिन्दी को एक संभावनाशील लेखक मिल चुका है. और इससे
ज़्यादा राहत की बात है कि पूरी क़िताब पढ़ने के बाद मैं यही बात ज़्यादा
आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ.
आज के मॉर्डन युग में
जहां हिंदी साहित्य के प्रति लोगों की रूची कम हो रही है,वहीं अंग्रेजी भाषा में अपनी पढ़ाई पूरी कर
चुके नए लेखक निखिल सचान ने हिंदी साहित्य के उस पुरानी संस्कृति को नए रंग में
ढालने की कोशिश की है, ताकि
युवा हिंदी साहित्य की संस्कृति से जुड़े रहें। उनकी ये कोशिश काफी कारगर साबित
हुई। गुड़गांव स्थित निखिल ने अपनी पहली किताब ‘नमक स्वादानुसार’ में जीवन के उन पहलु और कहानियों को हमारे
सामने रखा है जिनसे हम रोजाना रू-ब-रू तो होते हैं लेकिन कभी उसे जीने की कोशिश
नहीं करते हैं। निखिल की किताब इंडिया में फिलहाल टॉप 20 बेस्ट सेलिंग किताबों में शुमार है।
क़िताब
की कुल नौ कहानियों का कैनवास बहुत बड़ा है. क्रांति, प्रेम, आत्महत्या से लेकर बच्चों की
फैंटसी तक के लिए निखिल की कहानियों में पर्याप्त जगह है. कहानी के कथ्य का
विश्लेषण करना तो अभी ज़ल्दबाजी होगी लेकिन निखिल ने जिन विषयों को कहानी
लिखने के लिए चुना है उन्हें देखकर उनके प्रति एक सकारात्मक राय बनती है.
इस संग्रह की सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी कि निखिल की
नौ में से करीब चार कहानियों के नायक छोटे बच्चे हैं. हिन्दी में छोटे बच्चों की
छोटी कहानियों को पर्याप्त जगह नहीं मिली है. कुछ कहानियों में छोटे बच्चों को कथा
के केन्द्र में रखा भी गया है तो उनके चरित्रांकन में बड़ापन हावी रहता है. लेकिन
निखिल की कहानी के बच्चे वैसी ही सोच रखते हैं जैसा कि बच्चे रखते होंगे. वो बचपन
में ही विलियम वर्डवर्थ या पीबी शैली को नहीं याद करते.
'परवाज़', 'पीली
पेंसिल', 'साफ़े
वाला साफ़ा लाया' जैसी
कहानियां मुझे इस लिहाज से आकर्षक लगीं. संभव है कि इन्हीं कहानियों को कोई सधा
हुआ लेखक ज़्यादा मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता लेकिन सधे हुए लेखकों को विमर्श
खड़ा करने वाले विषयों से फुरसत कहाँ ! शायह इन कहानियों को नए लेखक ही लिख सकते
हैं.
यह बहुत ही सरलीकृत तरीका है फिर भी कहानियों के मोटे तौर पर दो प्रकार स्वीकार किए जाते हैं. चरित्र प्रधान कहानियाँ और विचार प्रधान कहानियाँ | निखिल ने भी दोनों तरह की कहानियों कहने की कोशिश की है. और शायद ज्यादातर कहानियों में दोनों होने की कोशिश की है. इस कोशिश का नतीजा यह होता है कि विचार प्रधान कहानियों में उनका वैचारिक कच्चापन साफ झलकता है. 'विद्रोह' जैसी कहानी फौरी मनोरंजन (टिटिलेशन) के काम तो आ सकती है लेकिन जब आलोचना के निकष पर उसका वजन किया जाएगा तो वो हवा हो जाएगी.
भाषा के मामले में भी निखिल में विकास की बहुत संभावना है. इस बात को सराहा जाना चाहिए कि हिन्दी के इस युवा कहानीकार के पास अपने ढ़ंग की कई अब तक अनकही कहानियाँ हैं जिसे वो हमें सुनाना चाहता है.
मुझे पूरा विश्वास है कि यदि निखिल अपने और अपने चरित्रों के प्रति पूर्णतः ईमानदार बने रहे तो आने वाले समय में उनकी क़लम से हमें नायाब कहानियाँ मिलेंगी. और यह एहतियात भी ज़रूरी है कि हिन्दी के कुछ दूसरे युवा लेखकों की तरह वो दार्शनिक बनने की कोशिश कत्तई न करें. कहानीकार को कहानीकार ही होना चाहिए. इतिहास ने हमें यही सबक सिखाया है. दर्शन देने के लिए कहानीकार चाहे तो एक अलग क़िताब लिख सकता है.