जो
भी आधा और अधूरा शब्द मिला मुझको राहों में..." — एक गहन, आत्मविश्लेषी
और भावनात्मक रचना है, जो
जीवन की अधूरी अनुभूतियों,
स्मृतियों और संघर्षों को
शब्दों में पिरोती है।
हालांकि यह कविता किसी
प्रसिद्ध कवि की प्रकाशित
रचना के रूप में
सीधे उपलब्ध नहीं है, इसकी
शैली और भावों से
यह स्पष्ट होता है कि
यह एक आधुनिक हिंदी कविता है, जो अधूरेपन
की सुंदरता और संघर्षों में सौंदर्य को दर्शाती है।
✨ मुख्य भाव और विषय:
- अधूरे शब्दों का सौंदर्य:
कवि ने राहों में मिले अधूरे शब्दों को छंदों में पिरोकर उन्हें गुनगुनाया — यह रचना प्रक्रिया की कोमलता को दर्शाता है। - क्षणिक अनुभूतियाँ:
जैसे पाटल पर टपके भोर के आँसू या पूनम की रात की लहरें — ये सब क्षणिक हैं, पर कवि के मन में स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं। - शिकायत नहीं, स्वीकार है:
जीवन की बिखरी हुई घड़ियों को कवि ने आंजुरी में भरकर सहेजा है — यह एक गहरी सकारात्मकता और स्वीकार्यता का भाव है। - पतझड़ और परछाइयाँ:
पतझड़ के आक्रोश को पी जाना और खोई हुई आवाज़ों को गीतों में पिरो देना — यह रचना की पुनर्रचना है, जो पीड़ा को सौंदर्य में बदल देती है। - निराशा से दूरी:
कवि कहता है कि उसने कभी निराशा का स्वागत नहीं किया, बल्कि थके हुए संकल्पों को सँवारा और बुझी निष्ठा को फिर से दीपित किया। - डगर ही सहचर बनी:
चाहे लक्ष्य स्पष्ट हो या नहीं, कवि ने राह को ही अपना साथी बना लिया — यह जीवन के प्रति एक गहरी दार्शनिक दृष्टि है।
जो भी आधा और
अधूरा शब्द मिला मुझको
राहों में
मैने
उसको पिरो छन्द में
कभी कभी गुनगुना लिया
है
जितनी
देर टिके पाटल प
टपके
हुए भोर के आंसू
उतनी
देर टिकी बस आकर
है मुस्कान अधर पर मेरे
जितनी
देर रात पूनम की
करती
लहरों से अठखेली
उतनी
देर रहा करते हैं
आकर
पथ में घिरे अंधेरे
किन्तु
शिकायत नहीं, प्रहर की मुट्ठी में
से जो भी बिखर
आंजुरि
भर कर उसे समेटा
और कंठ से लगा
लिया है
पतझड़
का आक्रोश पी गया
जिन्हें
पत्तियो के वे सब
सुर
परछाईं
बन कर आते हैं
मेरे
होठों पर रुक जात
खो रह गईं वही
घाटी म्रं
लौट
न पाईं जो आवाज़ेंं
पिरो
उन्हीं में अक्षर अक्षर
मेरे
गीतों को गा जाते
सन्नाटे
की प्रतिध्वनियों में लिपटी हुई
भावनाओं को
गूंज
रहे निस्तब्ध मौन में अक्सर
मैने सजा लिया है
यद्यपि
रही सफ़लताओं स
मेरी
सदा हाथ भर दूरी
मैने
कभी निराशाओं का
स्वागत
किया नहीं है द्वारे
थके
थके संकल्प्प संवारे
बुझी
हुई निष्ठा दीपित कर
नित्य
बिखेरे अपने आंगन
मैने
निश्चय के उजियारे
सन्मुख
बिछी हुई राहों का
लक्ष्य कोई हो अथवा
न हो
मैने
बिखरी हुई डगर को
पग का सहचर बना
लिया है