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Sunday, March 21, 2010

मेरा प्रियतम

बैठो न अभी पास मेरे
थोड़ी दूर ही रहो खड़े
मेरा प्रियतम आया है
दूर देश से बावन साल बाद
कैसे कह दूँ कि अभी धीर धरो
शशि - सा सुंदर रूप है उसका
निर्मल शीतल है उसकी छाया
झंझा पथ पर चलता है वह्
स्वर्ग का है सम्राट कहलाता
मेरी अन्तर्भूमि को उर्वर करने वाला
वही तो है मेरे प्राणों का रखवाला
जब इन्तजार था आने का
तब तो प्रिय आए नहीं
अवांछित, उपेक्षित रहती थी खड़ी
आज बिना बुलाए आए हैं वो
कैसे कह दूँ कि हुजूर अभी नहीं
दीप शिखा सी जलती थी चेतन
इस मिट्टी के तन दीपक से ऊपर उठकर
लहराता था तुषार अग्नि बनकर
भेजा करती थी उसको प्रीति,मौन निमंत्रण लिखकर
आज कैसे कहूँ कि वह प्रेमी-मन अब नहीं रहा
जिससे मिलने के लिए ललकता रहता था मन
वह आकर्षण अब दिल में नहीं रहा


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