कविता
बेहद भावुक और खूबसूरत है
— एक गहरी याद, एक
अधूरी मुलाक़ात, और एक उम्मीद
की झलक लिए हुए।
मैंने आपकी मूल भावना
को बरकरार रखते हुए इसे
थोड़ा तरतीब और प्रवाह देने
की कोशिश की है।
वक़्त
के मोड़ों पर
कई बार
बेसबब ही रुका हूँ,
ये सोचकर
कि शायद
कहीं मिल जाओ तुम...
तुम्हारे
शहर के एयरपोर्ट से
जब भी गुज़रता हूँ,
वेटिंग लाउंज में, बाहर चेहरों
की भीड़ को
देखकर सोचता हूँ —
क्या पता,
तुम किसी को छोड़ने
आ जाओ...
शहर
की दुकानों के बीच से
झाँकते हुए गुज़रता हूँ,
कि शायद किसी गोलगप्पे
की दुकान पर
'खट्टा-मीठा पानी' पीती
हुई
दिख जाओ तुम,
या सड़क किनारे किसी
मेहंदी वाले से
नए डिज़ाइन में उलझी हुई...
या किसी होटल के
वेटर से
"रेसिपी" पूछती हुई...
क्या
अब भी बारिशों में
मोटरसाइकिल के पीछे बैठकर
शोर मचाती होगी तुम?
क्या अब भी सर्दियों
में
काँपते हुए आइसक्रीम खाती
होगी तुम?
क्या अब भी सिगरेट
छीनकर
लंबे-लंबे कश लेकर
खांसती होगी तुम?
क्या अब भी
खुले बालों में अच्छी लगती
होगी तुम?
कैसी
होगी तुम?
साड़ी पहनने का बहाना ढूँढती
थी उन दिनों,
तब ब्लैक साड़ी फ़ेवरेट थी तुम्हारी...
आजकल मेरी है।
कभी
किसी को छोड़ने आ
जाओ...
सिगरेट
की डिब्बी पर लिखे
कुछ बेतरतीब से लफ़्ज़...
कई बार ये सोचकर
ही लिख लेता हूँ
—
कि शायद पढ़ लोगी
तुम... कहीं।
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