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Sunday, March 21, 2010

शायद पढ़ लोगी तुम कही ?

 

 

 

वक़्त
के मोडो पर
कई बार
बेसबब ही रुका हूँ
ये सोचकर
क़ी शायद
मिल जायोगी तुम कही.....


तुम्हारे शहर के एरपोर्ट से जब भी गुज़रता हूँ
वेटिंग लाउंज मे ,बाहर चेहरो क़ी भीड़ को
देख कर सोचता हूँ
गर
तुम किसी को छोड़ने आ जाओ ……..

बीच शहर क़ी दुकानो पर झाँकते हुए गुज़रता हूँ

कि
शायद किसी गोल्गप्पे क़ी दुकान पर
'
खट्टा मीठा पानी"पीती हुई तुम दिख जाओ
या सड़क किनारे किसी मेहंदी वाले से
किसी नये डिजाईन मे उलझी हुई….
या किसी होटेल के वेटर से "रेसीपी "पूछती हुई


क्या अब भी बारिशो मे
मोटरसाइकल के पीछे बैठकर शोर मचाती होगी तुम!
क्या अब भी सर्दियों में
काँपते हुए आइसक्रीम खाती होगी तुम !
क्या अब भी सिगरेट छीनकर
लंबे लंबे कश लेकर खांसती होगी तुम !
क्या अब भी
खुले बालो मे अच्छी दिखती होगी तुम!
कैसी होगी तुम?
साड़ी पहनने का बहाना ढूँढती थी उन दिनो
,
तब ब्लेक साड़ी फ़ेवरेट थी तुम्हारी.......

आजकल मेरी है!
कभी किसी को छोड़ने आ जाओ ........



सिगरेट की डब्बी पर लिखे गये कुछ बेतरतीब से लफ्ज़ ....................
.कई बार ये सोचकर ही लिख लेता हूँ कि शायद पढ़ लोगी तुम कही ?



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