अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और जीवन-कर्म के बीच की दूरी को निरंतर कम करने की कोशिश का संघर्ष....
Friday, January 18, 2013
Monday, January 14, 2013
की कोई नाज हो जैसे
अब जिंदगी ऐसे ठिठुरने लगी कि पूस की रात हो जैसे
वो याद आया तो आँखे नम सी लगी,कल की बात हो जैसे
मै गुम था ,उसकी यादो की तपन में सारी रात बिताया मैने
ना बताया रिश्ता लिबास सा क्यों उतारा, कोई राज हो जैसे
अक्सर खुला रहता है, सुबह -शाम दरवाजा उस बदनाम का
उसके लिए हिन्दू-मुस्लिम, जात-पात कोई बकवास हो जैसे
इन गरीबो की दीवारों में पलस्तर कब लगाएगी जिंदगी
हर शाम हवाए दीवारों ऐसे घुसती है,की कोई खास हो जैसे
आँखों के फूल खिलकर,खुद-ब-खुद शाख से गिर जाते है
तुमको गए हुए तो दिन हो गए, लगता है की आज हो जैसे
मेरे जाने के बाद भी खुदा हमेशा सलामत रखे तुझे,ए बेवफा
इस बेवफाई में अंजन आज भी जिन्दा है, की कोई नाज हो जैसे