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Tuesday, August 17, 2010

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Friday, August 13, 2010

नागपंचमी विशेषः जीवनदाता नागदेवता

बरसात के मौसम में बिलों से निकलने वाले इन सर्पो का कोई भयवश वध न कर दे, इसलिए इनकी पूजा का विधान किया गया है क्योंकि सांप सिर्फ भक्षक ही नहीं कीट-पतंगों और चूहों से फसलों के रक्षक भी हैं।

पूजा-विधान

प्राय: सभी मानव जातियों में नाग किसी-न-किसी रूप में पूजे जाते हैं, लेकिन भारत में उनकी पूजा प्रत्यक्ष देवता के रूप में बड़ी श्रद्धा से की जाती है। कारण हम मानते हैं वसुधैव कुटुम्बकम अर्थात समूची धरती के सभी वासी हमारे परिजन ही हैं। भले ही वे नाग या सर्प ही क्यों न हों।

प्राचीन मान्यता
मान्यता है कि नाग सृष्टि के जन्म के साथ ही उत्पन्न हुए। उनकी चर्चा वेदों से लेकर पुराणों तक और रामायण से लेकर महाभारत तक कई रूपों में मिलती है। पौराणिक मान्यता है कि वे कश्यप और कद्रु की संतान हैं। शतपथ ब्राम्हण में महानाग के अर्थ में नाग शब्द का उल्लेख हुआ है।

वृहदारण्यक उपनिषद और ऐतरेय ब्राrाण में भी इसके संदर्भ मिलते हैं, जो सर्प के अर्थ में प्रयोग किए गए हैं। इस अर्थ में नाग और सर्प का साम्य नजर आता है। भारतीय मान्यता में जिन तीन प्रमुख लोकों स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल की चर्चा है, उनमें पाताल इनका लोक माना गया है। रामायण की रामकथा में राम-रावण युद्ध के दौरान पाताल लोक का नागवंशी और रावण का रिश्ते का भाई अहिरावण राम, लक्ष्मण का अपहरणकर्ता निरूपित किया गया है।

नाग की महत्ता
नागों की महत्ता कई रूपों में व्यक्त हुई है। भारतीय मान्यता है कि पृथ्वी को शेषनाग ने अपने मस्तक पर मणि की भांति धारण किया हुआ है। विष्णु की शैया यही शेषनाग है। शंकर के आभूषण नाग हैं, इसीलिए उनका एक नाम नागेश या नागेश्वर भी है। कृष्ण के जीवन में कालिया दमन की कथा नाग के संदर्भो को सामने लाती है। महाभारत में भीम नागलोक में जाकर उत्पात मचाते हैं और फिर नागों से सौ हाथियों का बल ले उपकृत हो पुन: पृथ्वी पर लौट आते हैं।

देवियों के हाथों में नाग चित्रित किया गया है तो जैन र्तीथकरों के चित्रों में भी नाग दृष्टिगोचर होते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि समुद्र मंथन की जो प्राचीन कथा भारतीय साहित्य में मिलती है, उसमें भी वासुकी नाग को रस्सी बनाकर अमृत संधान का प्रयत्न नजर आता है। इससे नागों की महत्ता तो पता लगती ही है, यह भी संकेत मिलता है कि अमृत की खोज में विषधर नाग कितने उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

आकर्षण का केंद्र
नाग या सर्प अपने विष, अपनी चपलता, अपनी सर्वउपलब्धता और अपने रहस्यमय व्यक्तित्व और स्वरूप के कारण प्रारंभ से ही आकर्षण का केंद्र रहे हैं। ये अनजाने ही भय भी उत्पन्न करते हैं। नाग अकेले हैं, जो रेगिस्तान से लेकर समुद्रों तक, नदियों से लेकर वनों तक, हिमालय से लेकर पथरीले पर्वतों तक और नगरों से लेकर उपवनों तक सभी जगह उपलब्ध होते हैं। हजारों प्रजातियों के रूप में और अनगिनत रंग-रूप में। कोई विषधर है तो कोई विषरहित, लेकिन सभी अपनी ओर खींचते हैं, डराते हैं और पूजन के लिए प्रेरित करते हैं।

नागों से जुड़ी किंवदंतियां
नागों से जुड़ी किंवदंतियां भी कम नहीं हैं। यह कि नाग बदला लेते हैं, धन के रक्षक हैं, आसमान में उड़ते भी हैं, नाग कन्याएं होती हैं, जिन्हें विष कन्या भी कहते हैं। उनसे जुड़े मायाजाल हैं, उनसे जुड़े नागपाश जैसे शस्त्र हैं, जो महाबलवान हनुमानजी तक को बांधने में सक्षम होते हैं।

रावण का पुत्र इंद्रजीत अशोक वाटिका में हनुमान से हुई लड़ाई में अंत में उन्हें नागपाश से ही बांधकर रावण के समक्ष ले गया था। ये किंवदंतियां कितनी सच हैं और इनका कितना पुष्ट वैज्ञानिक आधार है, यह आज तक प्रमाणित या खंडित नहीं किया जा सका है। यही कारण है कि नाग हमारे जीवन, हमारी परंपराओं में गहरे तक जुड़ गए हैं। इतने गहरे कि पंचमहाभूतों के प्रतीकों में भी उन्होंने स्थान पा लिया है।

नाग पूजन का महत्व
नागपंचमी के रूप में नागों की पूजा प्रकृति और जीव-जंतु मात्र की पूजा का प्रतीक है। नागपंचमी श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाई जाती है। कारण वर्षा शुरू होते ही कृषि प्रधान भारत में कृषक खेतों की ओर जाते हैं तथा बिलों में पानी भरने के कारण सर्प बाहर आ जाते हैं।

भय में कोई इन सर्पो का वध न कर दे, इसलिए इस दिन उनकी पूजा का विधान किया गया है क्योंकि सांप सिर्फ भक्षक ही नहीं कीट-पतंगों और चूहों से फसलों के रक्षक भी हैं। प्राय: समूचे भारत में नागपंचमी पर नाग की पूजा प्रत्यक्ष, मूर्ति या भित्ती चित्रों के रूप में की जाती है। उन्हें दूध का परंपरागत भोग लगाया जाता है। हालांकि नए शोध बताते हैं कि सांप कतई दूध नहीं पीते। सांप के विष का प्रयोग जीवनरक्षक औषधि बनाने में भी किया जाता है।

नागपंचमी विधान
नागपंचमी श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाई जाती है। समूचे भारत में नागपंचमी पर नाग की पूजा प्रत्यक्ष, मूर्ति या भित्ती चित्रों के रूप में की जाती है। उन्हें दूध का परंपरागत भोग लगाया जाता है।