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Wednesday, March 31, 2010

सच की लड़ाई

सवालों से लड़कर सँवरता गया हूँ।
विवादों से भिड़कर उभरता गया हूँ।
सुमन खुद ही खुशबू में तब्दील होकर
सरेवादियों में महकता गया हूँ।।

यूँ दुनिया से लड़ना कठिन काम यारो।
है खुद को बदलना हरएक शाम यारो।
मेरी जो भी फितरत ये दुनिया भी वैसी,
हो कोशिश कभी हों बदनाम यारो।।

नया सीख लेने की हरदम ललक है।
कहीं पर जमीं तो कहीं पर फलक है।
मगर दूसरों की तरफ है निगाहें,
जो दर्पण को देखा तो खुद की झलक है।।

कहूँ सच अगर तो वे मुँहजोर कहते।
अगर चुप रहूँ तो वे कमजोर कहते।
मगर जिन्दगी ने ही लड़ना सिखाया,
है सच की लड़ाई जिसे शोर कहते।।

Sunday, March 28, 2010

अभी ना करना प्यार


अभी तुम छोटी, प्यारी, कोमल


अभी ना करना प्यार

अभी तुम्हारा मृदुल बदन है

बच्चों का सा अल्हड़ मन है

परियों से भी कोमल तन है

अभी ना करना प्यार।





अभी तुम नादान परी हो

यौवन की दहलीज खड़ी हो

अभी नहीं तुम चल पाओगी

बीच डगर में रह जाओगी

अभी ना करना प्यार



सपनों की आदी ये पलकें

धूप सदृश्य सा खिलता यौवन

कैसे सह पाओगी तपन कठिन

कहीं छूट न जाएं यार

अभी ना करना प्यार





अभी तुम बढ़ो, आसमान को छूने

उन्मुक्त होकर विचरण कर लो

क्यों बांध रही सीमाओं में अपने को

फिर नहीं कर पाओगी पार

अभी ना करना प्यार





अभी तुम खेलो, कूदो, खाओ

चट्टानों से तुम टकराओ

पढ़-लिखकर आगे बढ़ जाओ

जग में कुछ बनकर दिखलाओ





इन आंखों में जो सपने हैं

अभी जो तुम्हारे अपने हैं

सभी छोड़ देंगे तुम्हारा हाथ

फिर नहीं देगा कोई साथ



अभी तुम छोटी, प्यारी, कोमल

अभी ना करना प्यार....

Sunday, March 21, 2010

कोई देख लेगा..


अरे नहीं... कोई देख लेगा..
तुम्हारे ये वाक्य आज भी
मेरे कानों में
गूँजते हैं... भले ही इन्हें
एक दशक से ज्यादा हो गया...

तुम्हारे सूर्ख लवों का
वो एहसास... आज भी मेरे
लवों पर हैं...

मेरे स्पर्श मात्र से
काँपते हुए तुम्हारे
होंठ ... और गर्म होती तुम्हारी साँसें
धीरे से हल्के से मेरा तुम्हें छूना...

और तुम्हारा वो छिंटक कर दूर जाना...
सच में नहीं भूला पाया तुम्हारे
उन एहसासों को...

तुम नहीं हो तो क्या हुआ
आज भी तुम्हारे
एहसासों के साथ जी रहा हूँ...

की वो आई चांदनी तेरा नूर चुराने ।

यूँ न निकलो रात की चांदनी में नहाने,
कि वो आई चांदनी तेरा नूर चुराने ।

चाँद का ये बुलावा
कुछ नहीं है छलावा

लौट जाओ अभी कर के कोई बहाने,
की वो आई चांदनी तेरा नूर चुराने।

कुछ अलग रात है
राज की बात है

राज की बात को कोई किसे जाने,
की वो आई चांदनी तेरा नूर चुराने ।

दहकती रही मेरी हसरतें गुलमोहर के साथ...

अभी तक गर्म हैं तुम्हारे होंठ,
भले ही अर्सा पहले छूआ था, मैंने उन्हें
मेरी प्यास शुरू होती है
समन्दर के किनारे से
और खत्म होती है
तुम्हारी आँखों के नीले दरिया में...


कई बार चाहा कि
छा जाऊँ इन्द्रधनुष बनकर
तुम्हारे मन के आसमान पर
या सजता रहूँ तुम्हारी देह पर
हर श्रृंगार बनकर

फलती रही अनगिनत कामनाएँ
अमलतास के सुनहरेपन में
दहकती रही हसरतें गुलमोहर के साथ
तुम एक बार ही सही
सिर्फ एक कदम चलो
पसारकर अपनी आत्मीय बाँहें, समेटों मुझे
और डूब जाओ सूरज की तरह
मेरी इच्छाओं के क्षितिज में...

प्रेमी पति-पत्नी

एक होती है पत्नी, एक होती है प्रेमिका. दोनों में 'प' अक्षर की समानता है. लेकिन 'प' में 'र' का जुड़ाव नहीं होता. शुरू में शायद होता हो जो विवाह के बाद नज़र नहीं आता.
अक्सर प्रेमी पति-पत्नी बनने के बाद प्रेमी नहीं रहते, ख़रीदी हुई जायदाद की तरह दोनों एक दूसरे के मालिक हो जाते हैं. दोनों एक-दूसरे की क़ानूनी जायदाद होते हैं. जिसमें तीसरे का दाखिला वर्जित होता है. समाज में भी, अदालतों में भी और नैतिकता के ग्रंथों में भी. वह आकर्षण जो शादी से पहले एक-दूसरे के प्रति नज़र आता है, वह कई बार के पहने हुए वस्त्रों की तरह, बाद में मद्धिम पड़ जाता है.

मानव के इस मनोविज्ञान से हर घर में शिकायत रहती है. कभी-कभी यह शिकायत मुसीबत भी बन जाती है. दूरियों से पैदा होने वाला रोमांस जब नजदीकियों के घेरे में आकर हकीक़त का रूप धर लेता है तो रिश्तों से सारी चमक-दमक उतार लेता है. फिर न पति आकाश से धरती पर आया उपहार होता है और न पत्नी का प्यार खुदाई चमत्कार होता है.

हिंदी कथाकार शानी की एक कहानी है, शीर्षक है 'आखें'. इसमें ऐसे ही एक प्रेम विवाह में फैलती एकरसता को विषय बनाया गया है. दोनों पति-पत्नी बासी होते रिश्ते को ताज़ा रखने के लिए कई कोशिशें करते हैं. कभी सोने का कमरा बदलते हैं, कभी एक दूसरे के लिए गिफ्ट लाते हैं, कभी आधी रात के बाद चलने वाली अंग्रेज़ी फ़िल्मों की सीडी चलाते हैं....मगर फिर वही बोरियत...

अंत में कथा दोनों को एक पब्लिक पार्क मे ले जाती है, दोनों आमने-सामने मौन से बैठे रहते हैं. इस उकताहट को कम करने को पति सिगरेट लेने जाता है, मगर जब वापस आता है तो उसे यह देखकर हैरत होती है कि पत्नी से ज़रा दूर बैठा एक अजनबी उसकी पत्नी को उन्हीं चमकती आँखों से देख रहा होता है, जिनसे विवाह पूर्व वह कभी उस समय की होने वाली पत्नी को निहारता था...

अर्थशास्त्र का एक नियम है, वस्तु की प्राप्ति के बाद वस्तु की क़ीमत लगातार घटती जाती है. पास में पानी का जो महत्व होता है, प्यास बुझने के पश्चात वही पानी में उतनी कशिश नहीं रखता.

"पहले वह रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से जिस्म में तब्दील हुई
और फिर...
जिस्म से बिस्तर बन के
घर के कोने में लगी रहती है
जिसको कमरे में घुटा सन्नाटा
वक़्त बेवक़्त उठा लेता है
खोल लेता है बिछा लेता है."...



तेरी उल्फत

तेरी उल्फत ने तो दीवाना बना रखा है,
और लोगों ने भी अफसाना बना रखा है।
आँधियाँ तेज़ चलें बुझ न सकेगा फिर भी,
खून-ऐ-दिल से जो दीया हम ने जला रखा है।


उनसे ख़ुद उनकी जफ़ाओं का गिला कैसे करें,
हमने आहों को भी सीने में दबा रखा है
वो जो कातिल है सितमगर है मोहब्बत की मेरी,
हमने उन्वान-ऐ-ग़ज़ल उसको बना रखा है।


बन के अनजान सर-ऐ-बज्म वो मुझसे बोले,
इश्क में किसके बुरा हाल बना रखा है।
कौन कहता है तुझको भूल गया है दिल,
तेरी याद को तो हमने ईमान बना रखा है।


आँखें नम हैं

यादों का बादल ,आँखें नम हैं

जाने क्यों प्यासी मेरी नजर
है

शायद बादल अभी बरसा कम
है

अनजानी सी क्यों झुकी तेरी नजर
है

ये नज़ारा क्यों नही तुझे नजर
है

क्यों नही मेरी तरफ़ तेरी नज़र
है

प्यार को मेरे किसकी नज़र
है

जो मुझसे दूर तेरी नज़र है !



आँखों आँखों में।

गुज़र गयी रात आंखों आंखों में,
हो गयी मुलाक़ात आंखों आंखों में।
सदियों से प्यासी थी मोहब्बत,
हो गयी बरसात आंखों आंखों में।

मिल न सके थे दिल कभी दिल से,
हो गयी मुलाक़ात आंखों आंखों में।
एहादेवाफा और कसमों की भी,
हो गयी शुरुआत आंखों आंखों में।

दे दिया दिल एक दूजे को,

हो गयी सौगात आँखों आँखों में।


अनुबंध मिलन का

प्रिय से था अनुबंध मिलन का ,
खुशी खुशी थी चली गयी मैं ;
पर अभिथल पर नहीं मिले वे ,
मर्माहत थी ,भली  गयी मैं ;
चार घड़ी की व्यर्थ प्रतीक्षा ,
समय चक्र में दली  गयी मैं ;
वंचक का विश्वास किया था,
इसीलिये तो छ्ली   गयी मैं 



कितने ख्वाब पिघलते हैं.

राहे-मोहब्बत तपती भूमि, जिस्मो-जान पिघलते हैं

आज वफ़ा के मारे राही अंगारों पर चलते हैं।

मेरे मन के नील गगन का रंग कभी ना बदलेगा

देखें तेरे रूप के बादल कितने रंग बदलते हैं।

देख रहे हैं सांझ-सवेरे दिलवालों की बस्ती से

अरमानों की लाशें ले कर कितने लोग निकलते हैं।

खुशियों के परबत पर जब भी गम का सूरज उगता है

आंसू बन कर फ़िर आंखों से कितने ख्वाब पिघलते हैं.


तब कैसे जीवन बीतेगा

राशन नही मिलेगा भाषन
पीने को कोरा आश्वासन
नारों की बरसात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा

भीख मांगती भरी जवानी
नही बचा आँखों का पानी
बेशर्मी से बात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा

जातिवाद का जहर घोलते
राष्ट्र वेदी पर स्वार्थ तोलते
अपनो का प्रतिघात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा

आदर्शों की बात पुरानी
संस्कार बस एक कहानी
मानवता पर घात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा

नियम खोखले, तोड़े हैं दम
मैं ही मैं है, नही बचा हम
निज के हित की बात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा

मिलन कहाँ पर होगा..?

मै पीड़ा का राजकुँवर हूँ, तुम शहजादी रूपनगर की
हो भी गया प्रेम हम में तो, बोलो मिलन कहाँ पर होगा..?
मेरा कुर्ता सिला दुखों ने,
बदनामी ने काज निकाले,
तुम जो आँचल ओढ़े उसमें
अम्बर ने खुद जड़े सितारे
मैं केवल पानी ही पानी, तुम केवल मदिरा ही मदिरा
मिट भी गया भेद तन का तो, मन का हवन कहाँ पर होगा

मैं जन्मा इसलिये कि,
थोड़ी उम्र आँसुओं की बढ़ जाए
तुम आई इस हेतु कि मेंहदी
रोज नए कंगन बनवाए,
तुम उदयाचल, मैं अस्ताचल, तुम सुखांत की
मिल भी गए अंक अपने तो रस अवतरण कहाँ पर होगा?

मीलों जहाँ न पता खुशी का,
मै उस आँगन का इकलौता,
तुम उस घर की कली जहाँ
नित होंठ करें गीतों का न्यौता
मेरी उमर अमावस काली और तुम्हारी पूनम गोरी
मिल भी गई राशि अपनी तो बोलो लगन कहाँ पर होगा?

इतना दानी नही समय कि
हर गमले में फूल खिला दे
इतनी भावुक नही जिंदगी
हर खत का उत्तर भिजवा दे
मिलना अपना सरल नही पर फिर भी ये सोचा करता हूँ,
जब ना आदमी प्यार करेगा जाने भुवन कहाँ पर होगा..?

हो भी गया प्रेम हम में तो, बोलो मिलन कहाँ पर होगा..?


प्रिय नहीं आना अब सपनों में

प्रिय नहीं आना अब सपनों में


स्मृति को तुम्हारे आलिंगन

कर रहने दो मुझे अपनों में

प्रिय नहीं आना अब सपनों में



पल उधेड़े कितने मैंने

उलझे थे उस इंद्र धनुष में

जिसको हमने साथ गढ़ा था

रंग भरे थे रिक्त क्षणों में

प्रिय नहीं आना अब सपनों में



रुमझुम गीतों के नूपुर में

जड़ी जो हमने गुनगुन बातें

उस सुर से बुन मैंने बाँधी

गाँठ स्वप्न और मेरे नयनों में

प्रिय नहीं आना अब सपनों में



कभी खनक उठते हँसते पल

कभी आँसू से सीले लम्हे

कभी मादक सी उन शामों को

बह जाने दो अब झरनों में

प्रिय नहीं आना अब सपनों में

तुम्हारी भावनाएं

तुम्हारी आँखे
वैसी नहीं
जिन्हें कह सकूं नशीली
तुम्हारी मुस्कान
भी तो सजावटी नहीं
तुम्हारे दांत नहीं हैं
मोतियों जैसे
शक्लो-सूरत से भी
परी नहीं हो तुम।
पर फिर भी
सबसे बढ़कर हैं
तुम्हारी भावनाएं

प्रियतम की प्रीत दिखाई देती॥

हर किसी के दिल के अन्दर॥
प्रियतम की कूक सुनाई देती॥
हर किसी के आँखों में ढल के॥
प्रियतम की प्रीत दिखाई देती॥
सुहाना लगता है सफर ॥
जब सांझ को साजन मिले॥
चेहरे से चेहरा को देखे॥
होठो में मुस्कान लिए॥
उनकी बोली से मोती निकले॥
मीठी बातें हंसे देती॥
हर किसी के आँखों में ढल के॥
प्रियतम की प्रीत दिखाई देती॥
झिर-झिर पवन हिलोरे॥
सावन रिम-झिम हस हस बोले॥

चिडिया चूचू गीत सुनावत॥
मन की बगिया आनंद लुटावत॥
अकेले मिल कर धीरे से हंस कर॥
मन की बातिया बाते देती॥
हर किसी के आँखों में ढल के॥
प्रियतम की प्रीत दिखाई देती॥

मुझ से करो न प्यार॥

बहुत दिनों तक हुई परीक्षा
अब रूखा व्यवहार न हो।
अजी, बोल तो लिया करो तुम
चाहे मुझ पर प्यार न हो॥

जरा जरा सी बातों पर
मत रूठो मेरे अभिमानी।
लो प्रसन्न हो जाओ
गलती मैंने अपनी सब मानी॥

मैं भूलों की भरी पिटारी
और दया के तुम आगार।
सदा दिखाई दो तुम हँसते
चाहे मुझ से करो न प्यार॥





एक बार कह लेते प्रियतम

एक बार कह लेते प्रियतम

घना कुहासा
धुँआ-धुँआ सा
छँट जाता
घुप्प आसमां
बँधा-बँधा सा
कट जाता
कोरों पे ठहरी दो बूँदे
बह जाती चुपके से अंतिम

एक बार कह लेते प्रियतम

कही नहीं पर
कहीं जो बातें
मूक आभास
दो प्राणों के
गुँथे हवा में
कुछ निश्वास
अधरों पर कुछ काँपते से स्वर
भी पा जाते मुक्ति चिरतम

एक बार कह लेते प्रियतम

मौन स्वीकृति
बंद पलकों में
शर्माती
नये स्वप्न के
तानेबाने
सुलझाती
आशाओं के इंद्रधनुष से
रंग-बिरंग हो सज जाता तम

एक बार कह लेते प्रियतम


Thanks to :
मानसी

गुलमोहर की छाँव मेँ !

वह बैठी रहती थी, हर साँझ,
तकती बाट प्रियतम की , चुपचाप
गुलमोहर की छाँव मेँ !
जेठ की तपती धूप सिमट जाती थी,
उसके मेँहदी वाले पैँरोँ पर
बिछुए के नीले नँग से, खेला करती थी
पल पल फिर, झिडक देती ...
झाँझर की जोडी को..
अपनी नर्म अँगुलीयोँ से.....
कुछ बरस पहले यही पेड हरा भरा था,
नया नया था !
ना जाने कौन कर गया
उस पर, इतनी चित्रकारी ?
कौन दे गया लाल रँग ?
खिल उठे हजारोँ गुलमोहर
पेड मुस्कुराने लगा
और एक गीत , गुनगुनाने लगा
नाच उठे मोरोँ के जोड
उठाये नीली ग्रीवा थिरक रहे माटी पर
शान पँखोँ पे फैलाये !
शहेरोँ की बस्ती मेँ "गुलमोहर एन्क्लेव " ..
पथ के दोनो ओर घने लदे हुए ,
कई सारे पेड -
नीली युनिफोर्म मेँ सजे, स्कूल बस के इँतजार मेँ
शिस्त बध्ध, बस्ता लादे,
मौन खडे........बालक !
..........सभ्य तो हैँ !!
पर, गुलमोहर के सौँदर्य से
अनभिज्ञ से हैँ ...!!


जीवन मरण मत देखिए.

सिवा अपने इस जगत का आचरण मत देखिए.
काम अपना है तो औरों की शरण मत देखिए.
होती हैं हर पुस्तक में ज्ञान की बातें भरी,
खोलकर पढ़िए भी इसको आवरण मत देखिए.
कंटकों के बीच खिल सकता है कोई फूल भी,
समझने में व्यक्ति को वातावरण मत देखिए.
लक्ष्य पाना है तो सुख की कल्पनाएं छोड़ दो,
लक्ष्य ही बस देखिए आहत चरण मत देखिए.
यदि समझना चाहते हो जगत के ध्रुवसत्य को
आत्मा को देखिए जीवन मरण मत देखिए.



जब से पाया तुमको प्रियतम


जब से पाया तुमको प्रियतम
भूली मैं सारा संसार
धुंधले स्वपनों की आभा में
देखा तुमको कितनी बार,
परख न पाई तुम्हीं आधार
फंसती जब मैं थी मझधार।

जब से जाना तुमको प्रियतम
मिला नैया को खेवनहार
जब से पाया…

मन मूरख जग संग लिपटा था
बिसर गया था अपना धाम,
अंधकार में भटक रहे थे
निराधार से मेरे प्राण
जब से ढूंढ़ा तुमने प्रियतम
हुआ प्रतिफल निज पथ उजियार
जब से पाया…

लगी थी माया पहरेदार
मेरे उर-बुध्दि के द्वार
न कर पाई तुम्हरी पहचान
आये निकट तुम कितनी बार।
जब से थामा तव कर प्रियतम
खुले इस अन्तरघट के द्वार
जब से पाया…

अपना परिचय आप ही दीन्हा
बांह पकड़ मोहें राह दिखाई
निरख-निरख कर रूप संवारा
निर्भय कर मोहें अधर चढ़ाई
जब अपनाया तुमको प्रियतम
रोम-रोम कर उठा पुकार
जब से पाया…

झूम उठी मैं तव स्पन्दन से
पुलक-पुलक उर सिहर-सिहर तन
भींगी पलके तुम्हें निहार
प्रेम रस से भीगे प्राण।
जब से चाहा तुमको प्रियतम
अपना लगे सारा संसार
जब से पाया तुमको प्रियतम
भूली मैं सारा संसार।

मेरे प्रियतम प्यारे,

मन से मनको लिख रही हूँ,

पाती एक अजानी प्रियतम !

पाती मेँ प्रेम - कहानी !

तुम भी हामी भरते जाना, सुनते सुनते बानी ॥

फिर कह रही कहानी !

कहुँ, सुनाऊँ, तुमको प्रियतम,

था राजा या रानी ? सुनोगे क्या ये कहानी ?

सुनो, एक थी रानी बडी निर्मम !

पर थी वह बडी ही सुँदर !

ज्यूँ बन उपवन की तितली !

गर्वीली, मदमाती, बडी हठीली !

एक था राजा, बडा भोला नादानरखता सब जीवोँ पर प्रेम समान !

बडा बलशाली, चतुर, सुजान !

सुन रहे हो तो हामी भरना अब आगे सुनो कहानी !

भोर भए , उगता जब रवि था,

राजा निकल पडता था सुबही को,

साथ घोडी लिये वह "मस्तानी"

सुनो, सुनो, ये कहानी !

छोड गाँव की सीमा को वह,

जँगल पार घनेरे कर के,आया, जहाँ रहती थी रानी !

अब आगे सुनो, कहानी !

रानी रोज किया करती थीगौरी - व्रत की पूजा,

नियम न था कोई दूजा ~

छिप मँदीर की दीवारोँ से,देखी राजा ने रानी -

मन करने लगा मनमानी !

किसी तरह पाऊँ मैँ इसको,हठ राजा ने ये ठानी !

वह भी तो था अभिमानी !

पलक झपकते रानी लौटी,

लौट चले सखीयोँ के दल

मची राजा के दिल मेँ हलचल !

पाणि - ग्रहण प्रस्ताव भेज कर ,

राजाने देखा मीठा सपना दूर नहीँ होँगेँ दिन ऐसे,

हम जब होँगेँ साजन - सजनी !

रानी ने पर अपमानित करके,

ठुकराया उसका प्रस्ताव !

क्या हो, था ही हठी स्वभाव !

आव न देखा, ताव न देखा,

राजा ने फिर धावा बोला-

अब तो रानी का आसन डोला !

बँदी बन रानी, तब आईँ राजा के सम्मुख गई लाई

कारा गृह मेँ भेज दीया कह, "नहीँ चाहीये, मुझे गुमानी !

ना होगी मेरी ये, रानी ! "

एक वर्ष था बीत चला अब

आया श्री पुरी मेँ अब उत्सव !

श्री जग्गनाथ का उत्सव !

रीत यही थी, एक दिवस को,

राजा , झाडू देते थे ....मँदिर के सेवक होते थे !

बुढा मँत्री, चतुर सयाना ,

लाया खीँच रानी का बाना कहा,

" महाराज, ये भी हैँ प्रभु की दासी,- पर मेरी हैँ महारानी ! "

कहो कैसी लगी कहानी ?

सेवक राजा की ,सेविका से,

हुई धूमधाम से शादी--

फिर छमछम बरसा पानी !

मीत हृदय के मिले सुखारे

बैठे, सिँहासन, राजा ~ रानी !

हा! कैसी अजब कहानी !

जो प्रभु के मँदिर जन आयेँ,

पायेँ नैनन की ज्योति,

प्रवाल - माणिक मुक्ता मोती !

यहाँ न हार किसी की होती !

अब कह दो मेरे प्रियतम प्यारे,

कर याद मुझे कभी क्या,

वहाँ, हैँ आँख तुम्हारीँ रोतीँ?

काश! कि, मैँ वहाँ होती !

मेरे अकेलेपन ने

अकेलापन
द्वार पर बिना दस्तक दिये ही
मेरे घर में घुस आया
और जबरन मेरे साथ
बिस्तर पर लेट गया
मैंने लाख कोशिश की
उसे धक्के दे कर
घर से निकालूँ
पर वो
विचित्र प्राणी की तरह
मुझसे चिपका ही रहा
मैं बालकनी में जा
कुर्सी पर बैठ
लोगों की आवाजाही देखने लगा
शायद अकेलापन
मुझमें से निकल
खुद भी हवाखोरी में
मशगूल हो जाये
पर
लोगों की अफरा-तफरी
देखते ही बनती थी
किसी को बात करने की तो क्या
रुकने की भी फुर्सत नहीं थी
लोग अकेले ही
दौड़े ही चले जा रहे थे
अनजानी मंजिल की ओर
अपने-अपने में ही मस्त
मुझे लगा
इनको तो पहले से ही
अकेलेपन ने जकड़ रखा था
फिर मेरा अकेलापन
कैसे दूर करेंगे
मैं अकेलेपन के साथ ही
कमरे में लौट आया
पर अकेलापन घर के
हर कोने तक
मेरे साथ चला आता था
कौन बाँटता मेरा अकेलापन
बीवी किटी पार्टी में व्यस्त थी
बेटा-बहू काम पर गये थे
और बच्चे स्कूल
वापिस आ कर भी
उन्हें मेरे लिये फुर्सत कहाँ
वो व्यस्त थे
अपने ही कामों में
खेलने-खिलाने में
सीरियल के मोह में
और मैं
अकेला ही भटकता रहूँगा
अपने ही घर में
मैंने चाहा
पड़ोसी की मदद लूँ
पर वो भी तो
इसकी छाया से ग्रसित
इसी लड़ाई में जूझ रहा था
फिर मेरी क्या सहायता करता
सो मैंने
अकेलेपन से ही
दोस्ती कर ली
मेरे अकेलेपन ने
मुझे समझा दिया था
कि आजकल के दौर में
इससे जूझना व्यर्थ था।



मैं और मेरा प्रियतम हो।



दूर कहीं, अम्बर के नीचे,
गहरा बिखरा झुटपुट हो।
वही सलोनी नदिया-झरना,
झिलमिल जल का सम्पुट हो।

नीरव का स्पन्दन हो केवल,
छितराता सा बादल हो।
तरूवर की छाया सा फैला,
सहज निशा का काजल हो।

दूर दिशा से कर्ण उतरती,
बंसी की मीठी धुन हो।
प्राणों में अविरल अनुनादित,
प्रीत भरा मधु गुंजन हो।

उसी अलौकिक निर्जन स्थल पर,
इठलाता सा यह मन हो।
दूर जगत की दुविधा से,
मैं और मेरा प्रियतम हो।

मेरा प्रियतम

बैठो न अभी पास मेरे
थोड़ी दूर ही रहो खड़े
मेरा प्रियतम आया है
दूर देश से बावन साल बाद
कैसे कह दूँ कि अभी धीर धरो
शशि - सा सुंदर रूप है उसका
निर्मल शीतल है उसकी छाया
झंझा पथ पर चलता है वह्
स्वर्ग का है सम्राट कहलाता
मेरी अन्तर्भूमि को उर्वर करने वाला
वही तो है मेरे प्राणों का रखवाला
जब इन्तजार था आने का
तब तो प्रिय आए नहीं
अवांछित, उपेक्षित रहती थी खड़ी
आज बिना बुलाए आए हैं वो
कैसे कह दूँ कि हुजूर अभी नहीं
दीप शिखा सी जलती थी चेतन
इस मिट्टी के तन दीपक से ऊपर उठकर
लहराता था तुषार अग्नि बनकर
भेजा करती थी उसको प्रीति,मौन निमंत्रण लिखकर
आज कैसे कहूँ कि वह प्रेमी-मन अब नहीं रहा
जिससे मिलने के लिए ललकता रहता था मन
वह आकर्षण अब दिल में नहीं रहा


घर और कहीं था

वो राह कोई और सफ़र और कहीं था
ख्वाबों में जो देखा था वो घर और कहीं था

मैं हो न सका शहर का इस शहर में रह के
मैं था तो तेरे शहर में पर और कहीं था

कुछ ऐसे दुआएं थीं मेरे साथ किसी की
साया था कहीं और शज़र और कहीं था

बिस्तर पे सिमट आये थे सहमे हुए बच्चे
माँ-बाप में झगड़ा था असर और कहीं था

इस डर से कलम कर गया कुछ हाथ शहंशाह
गो ताज उसी का था हुनर और कहीं था

था रात मेरे साथ 'रवि' देर तलक चाँद
कमबख्त मगर वक़्त ए सहर और कहीं था

मन पर अधिकार तुम्हारा है।

तन तो मेरा है लेकिन -
मन पर अधिकार तुम्हारा है।

मेरी साँसों में सुरभित ,
तेरी चाहत का चंदन है ;
कहने को तो ह्रदय हमारा ;
पर इसमें तेरी धड़कन है।

तेरी आंखों से जो छलके -
है वो प्यार हमारा है ।।

मेरे शब्द गीत के रखते
तेरी पीड़ा के स्पंदन ;
कलिकाए ही अनुभव करतीं
भ्रमरों के वो कातर क्रन्दन;

मैं वो मुरली की धुन हूँ -
जिसमें गुंजार तुम्हारा है॥

चाह बहुत है मिलने की -
अवकाश नहीं मिलता है ;
दोष नियति का भी कुछ है -
जो साथ नहीं नहीं मिलता है ;

सोम से शनि तक मेरा है -
लेकिन इतवार तुम्हारा है॥


प्यार .....

प्यार ...
क्या है यह ?
लफ्ज़ नही है सिर्फ़
जिसे बाँध लिया जाए
किसी सीमा में
और खत्म कर दिया जाए
उसकी अंतहीनता को

प्यार ....
वस्तु भी नही है कोई
यह तो है एक एहसास
एक आश्वासन
जो धीरे धीरे
दिल में उतरता
मुक्त गगन सा विचरता
शब्दों को कविता कर जाता है

प्यार .....
है नयनों में भरा सपना
जो कई अनुरागी रंगो से रंगा
चहकता है पक्षी सा
अंधेरों को उजाले से भरता
नदी सा कल कल करता
बूंद को सागर कर जाता है

प्यार .....
मिलता है सिर्फ़
दिल के उस स्पन्दन पर
जब सारा अस्तित्व मैं से तू हो कर
एक दूजे में खो जाता है
कंटीली राह पर चल कर भी
जीवन को फूलों सा मह्काता है !!

हम

हम मुश्किलों से लड़ कर मुकद्दर बनाएँगे।
गिरती हैं जहाँ बिजलियाँ वहाँ घर बनाएँगे।।
 पत्थर हमारी राह के बदलेंगे रेत में -
 हम पाँव से इतनी उन्हें ठोकर लगाएँगे॥


दर्दे गम

दर्दे गम सीने में अपने दबा तो सकते हैं ।
सुकूँ मिले ना मिले मुस्करा तो सकते हैं ।
यूं ज़रूरी नहीं हर ख्वाब का पूरा होना ,
कम से कम दिल को पल भर भुला तो सकते हैं ।
खुदकशी करनी है तो बाद में भी कर लेंगे ,
अपनी किस्मत को फिर से आजमा तो सकते हैं।
साथ में हम हैं तो फिर दाम की परवाह न कर,
हम नहीं पीते हैं फिर भी पिला तो सकते हैं।
जितना ज्यादा हो गम का बोझ मेरे सर पे रख ,
जितना
भारी हो मगर हम उठा तो सकते हैं।



शायद पढ़ लोगी तुम कही ?

 

 

 

वक़्त
के मोडो पर
कई बार
बेसबब ही रुका हूँ
ये सोचकर
क़ी शायद
मिल जायोगी तुम कही.....


तुम्हारे शहर के एरपोर्ट से जब भी गुज़रता हूँ
वेटिंग लाउंज मे ,बाहर चेहरो क़ी भीड़ को
देख कर सोचता हूँ
गर
तुम किसी को छोड़ने आ जाओ ……..

बीच शहर क़ी दुकानो पर झाँकते हुए गुज़रता हूँ

कि
शायद किसी गोल्गप्पे क़ी दुकान पर
'
खट्टा मीठा पानी"पीती हुई तुम दिख जाओ
या सड़क किनारे किसी मेहंदी वाले से
किसी नये डिजाईन मे उलझी हुई….
या किसी होटेल के वेटर से "रेसीपी "पूछती हुई


क्या अब भी बारिशो मे
मोटरसाइकल के पीछे बैठकर शोर मचाती होगी तुम!
क्या अब भी सर्दियों में
काँपते हुए आइसक्रीम खाती होगी तुम !
क्या अब भी सिगरेट छीनकर
लंबे लंबे कश लेकर खांसती होगी तुम !
क्या अब भी
खुले बालो मे अच्छी दिखती होगी तुम!
कैसी होगी तुम?
साड़ी पहनने का बहाना ढूँढती थी उन दिनो
,
तब ब्लेक साड़ी फ़ेवरेट थी तुम्हारी.......

आजकल मेरी है!
कभी किसी को छोड़ने आ जाओ ........



सिगरेट की डब्बी पर लिखे गये कुछ बेतरतीब से लफ्ज़ ....................
.कई बार ये सोचकर ही लिख लेता हूँ कि शायद पढ़ लोगी तुम कही ?



शक्ति तो ब्रजबाला है



सुनी देवो की जो करुण पुकार
हुई कृष्ण की दृष्टि भी अपार
जब देखी उग्र रूप राधा
कान्हा ने यह निर्णय साधा
किसी तरह राधा को मनाऊँ मैं
अपना स्वरूप बताऊँ मैं
कान्हा ने मन में विचार किया
चतुर्भुज रूप साकार किया

राधा ने देखा जो सम्मुख
कान्हा को देख के हुई चकित
गिर कर के राधा चरणों पर
रो-रो कर कहती, हे नटवर
राधा की सौंगंध है तुमको
मथुरा न जाओ तजकर हमको
बिन तेरे जी न पाएँगे
तुम्हे बिन देखे मर जाएँगे
अधूरी है तुम बिन यह राधा
इस लिए मैंने निर्णय साधा
जो मधुपुरी को तुम जाओगे
जिंदा न मुझे फिर पाओगे
मैं प्राण त्याग दूँगी कान्हा
रहेगा तुम पर यह उलाहना

इक प्रेम दीवानी मौन हुई
कहो प्रेम में ग़लती कौन हुई?
गिरा ब्रजरानी का अश्रुजल

धुल गये कान्हा के चरण-कमल
हाथों से उसे उठाते हैं
फिर प्यार से गले लगाते हैं
राधा के पोंछते हुए नयन
बोले कान्हा यह मधुर वचन

तुम क्यों अधीर हो रही प्रिय
अब ध्यान से मेरी सुनो विनय
तुम प्रेम की देवी हो राधे
सब प्रेम से ही कारज साधे
फिर रूठी है क्यों मेरी प्रिया
कहो, तुम बिन मैंने किया क्या?
राधे तुम मेरी शक्ति हो

तुम ही मेरी भक्ति हो
अधूरा है तेरे बिना कृष्ण
तुम बिन नहीं माने मेरा मन
दो शरीर और एक प्राण
करते हुए ऐसा आलिंगन

गिर रहे राधा के अश्रुकन
भावुक हो गया कान्हा का मन
कहने को नहीं कोई शब्द रहे
कोई क्या कहे? और कैसे कहे?
प्रिया-प्रियतम दोनों हुए मौन

दोनों को समझाएगा कौन
?
फिर कान्हा ने तोड़ते हुए मौन

लेकर राधा का मधुर चुंबन
मैंने तेरी हर बात मानी
शक्ति हो तुम मेरी आह्लादिनी
राधा और कृष्ण कहाँ हैं भिन्न
मोहन राधा, राधा मोहन
दिखने में तो हम दो हैं तन
पर एक है हम दोनों का मन

प्रिया-प्रियतम मिलकर हुए एक
कहो किसकी है ऐसी भाग्य रेख?
वो जगत-पिता, वो जग-माता

करुणा से हृदय भर जाता
दोनों कोमल दोनों सुंदर
बस समझे उसको मन-मंदिर
इक पीत वरण, इक श्याम-गात
छवि देख के मनुजनमा लजात
एक टेक दोनों रहे देख
कुदरत ने भी खोया विवेक
थम गई सारी चंचलता
रुक गया सूर्य का रथ चलता
दोनों हैं बस आलिंगनबद्ध
प्रकृति भी हो गई स्तब्ध
वो करुण हृदय,वो भावुक मन
नयनों में भरे हुए अश्रुकन
नहीं अलग हो रहे उनके तन
जल रहे ज्वाला में शीत बदन
बस प्रेम है उनके नयनों में
उनके तन में, उनके मन में
हृदय की हर धड़कन में
और बार-बार आलिंगन में
सब कहने की है उनकी आशा
पर प्यार की होती है कब भाषा
भाषा है प्यार की आँखों में
बस प्रेमी ही समझें लाखों में
मूक है आँखों की भाषा
कह देती मन की अभिलाषा
प्यार की भाषा के अश्रुकन
पढ़ सकते जिसको प्रेमीजन
देख के उन आँखों की चमक
हो जाते उनमें मग्न प्रियतम
बस आँसू उनको ख़टकते हैं
निशी दिन जो बरसते रहते हैं
मुँह से बोला नहीं शब्द एक
प्रिय-प्रिया फिर भी हो गये एक
कह दी उन्होंने बातें अनेक
कोई भी समझ पाया न नेक
घायल हो जाते हैं दो दिल
बिन बोले कैसे जाएँ मिल?
बिन बोले हो न सके अपने

लेकर के आँखों में सपने
प्रिया-प्रियतम फिर अलग हुए
और प्यार से ही कुछ शब्द कहे
हो गये दोनों के नेत्र सजल
जैसे खिले हों कोई नील कमल
नहीं प्यार के उनके कोई सीमा
हो रहे भावुक प्रिय-प्रियतमा
राधा फिर धीरे से बोली
और प्यार भारी अखियाँ खोली

कान्हा, राधा हो न जाए ख़त्म
न जाओ मधुपुरी, तुम्हें मेरी कसम
जो तुम चले जाओगे मथुरा
कैसे जी पाएगी राधा?
जीवन भर साथ निभाने का

किया था तुमने मुझसे वादा
छू कर राधा गिरधर के चरण
न भूलो अपना दिया वचन
दिखा कर मुझको सुंदर सपने
क्या भूलोगे वायदे अपने?
जब पकड़ा तुमने मेरा हाथ

अब छोड़ चले क्यों मेरा साथ
मुझे याद है तेरा पहला स्पर्श
भर दिया था मन मेरे में हर्ष
तुम भूल भी जाओ पर नटवर
मैं भूल न पाऊँगी मरकर
यह प्यार था तुम्हीं ने शुरू किया
जब पहली बार तूने मुझे छुआ
तेरी प्यार चिंगारी अब गिरधर
बन गई ज्वाला मेरे अंदर
दिन-रात ये मुझे जलाती है
आँखों से नीर पिलाती है
जब प्रेम निभा ही नहीं सकते
फिर प्रेम दिखाते हो क्यों मोहन?
जब प्यार भरा दिल नहीं रखते

करते हो फिर क्यों आलिंगन?
मैं थी जब जल भरने आई

तूने लेते हुए अंगड़ाई
पूछा था मुझे इशारे से
कब बजेगी तेरी शहनाई?
मैंने भी कहा इशारे से

तू माँग मेरी को अभी भर दे
तब तूने अपनी माँ से कहा
माँ मेरी भी शादी करदे
लिखी फिर तूने प्रेम-पाती
हम भी होंगे जीवन-साथी
नहीं मिलेंगे फिर हम छिप-छिपकर
हो जाएँगे एक, अति सुंदर
फिर जब मैं जाने लगी घर
ले गये तुम मुझको पकड़ भीतर
ले जा के मुझे इक कोने में
मेरे नयना थे रोने में
कहे थे तुमने बस इतने शब्द
तुम रोओगी मुझको होगा दर्द
लिए झट से मैंने आँसू पोंछ
सुध-बुध भूली, नहीं रहा होश
मुझे जब भी तूने दी आवाज़
मैं भूल गई सब काम-काज
और चली आई तज लोक-लाज
फिर छोड़ चले तुम मुझको आज
क्यों तुमने मुझे सताया था?
सखियों के मध्य बुलाया था

ले-ले कर तुमने मेरा नाम
कर दिया मुझको सब में बदनाम
मैं रोक सकी न चाह कर भी
तुम छेड़ते थे मुझे राह पर भी
मैं लोगों में थी सकुचाती
पर मन ही मन खुश हो जाती
जब मिले थे मुझको कुंज गली
मैं दधि की मटकी ले के चली
साथ थी मेरे सब सखियाँ
फिर भी न रुकीं तेरी अखियाँ
आँखों से मुझे बुला ही लिया
नयनों से तीर चला ही दिया
वह तीर लगा मेरे सीने में
फिर कहाँ थी राधा जीने में?
सुध-बुध खोकर मैं गिर ही गई

सब सखियों से मैं घिर ही गई
फिर आए थे तुम जल्दी-ल्दी
और उठा लिया अपनी गोदी
हृदय में ज्वाला रही धधक
इक टेक बाँध गई अपनी पलक
उस भावना में हम बह ही गये
इक दूजे के बस हो ही गये
तब भूल गई हमको सखियाँ
मुस्का रहीं थी उनकी अखियाँ
तुम यमुना तट पर आ करके
और वंशी मधुर बजा करके
जब तुमने पुकारा था राधा
तब तोड़ दी मैंने सब बाधा
मैं आई थी तब भाग-भाग
और लगा था किस्मत गई जाग
तुम मीठी-मीठी बातों से
सताते थे मुझको रातों में
बस साथ है तेरा सुखदाई
हर रात मैं तुझे मिलने आई
मुझसे लिपटी मानस पीड़ा
जब कर रहे थे हम जलक्रीड़ा
जल रहे थे हम यमुना जल में
और आग थी पानी की हलचल में
प्रकृति ने छेड़ा था संगीत
थी गीत बन गई अपनी प्रीत

बस-बस राधे न हो भावुक
न छेड़ो वह बातें नाज़ुक
क्यों भूल रही हो तुम राधा?
कान्हा है तेरे बिन आधा

नारी नहीं हो तुम साधारण
फिर क्यों विचलित है तेरा मन
राधा से भिन्न कहाँ कान्हा
फिर कैसा तेरा उलाहना?
दो देह मगर इक प्राण हैं हम

क्योंकि भू पर इंसान हैं हम
करने पुर कुछ सत्य कर्म
लिया है हमने यह मानव जन्म
उस कर्म को पूरा करना है
फिर क्यों कंस से डरना है
ऐसा नहीं कर सकती राधा
नहीं कर्म में बन सकती बाधा
तुम याद वह अपना रूप करो
और धैर्य धरो बस धैर्य धरो
मेरा वादा है यह तुमसे
तुम भिन्न नहीं होगी मुझसे
पहले तुम स्वयम् को पहिचानो
शक्ति हो मेरी यह मानो
बिन शक्ति के क्या मैं लड़ सकता?
क्या प्यार को रुसवा कर सकता?

सुन राधा ने नेत्र किए बंद
देखा तो पाया वह आनंद
राधा तो कृष्ण में समा ही गई
परछाई अपनी छोड़ चली
छाया भी न रह सकी बिन कान्हा
दिया उसने भी एक उलाहना

विचलित है छाया का भी मन
ले लिया उसने भी एक वचन
जो मुझे छोड़ कर जाओगे
तुम मुरली नहीं बजाओगे
मुझको अपनी मुरली दे दो
तुम जाके कर्म पूरा करदो
अब मुरली तुम जो बजाओगे
मुझे नहीं अलग कर पाओगे
मुरली सुन मैं आ जाऊँगी
और कर्म में बाधा बन जाऊँगी
अब तुम बिन मैं ब्रज में रहकर
मुरली से हर सुख-दुख कहकर
मानव का कर्म निभाऊँगी
जाओ तुम मैं रह जाऊँगी

मुरली को सौंप गये कान्हा
क्या लीला हुई? कोई न जाना
कान्हा का खेल निराला है
कहाँ कोई समझने वाला है
उसका यह रूप निराला है
पर शक्ति तो ब्रजबाला है